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नागरिक, पंचायत और सरकार: ग्राम पंचायतें दोराहे पर

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06/06/2016
गैब्रिएल क्रक्स-विसनर

उस बात को लगभग पच्चीस साल हो गए जब विकेंद्रीकरण पर विश्व का सबसे बड़ा प्रयोग भारत में शुरू हुआ था. संविधान के 73वें संशोधन के अनुसार 200,000से अधिक ग्राम पंचायतों की स्थापना की गई, उन्हें विभिन्न प्रकार की सेवाओं का दायित्व सौंपा गया और ऐतिहासिक रूप से वंचितमहिलाओं और अनुसूचित जाति व जनजातियों के लिए सीटें आरक्षित की गईं. बहुत से लोग मानते हैं कि ये पंचायतें लोकतांत्रिक और नौकरशाही के जाल में फँसे कागज़ी शेर हैं. यही कारण है कि नागरिकों से भी उनकी यहीअपेक्षा है कि इन पंचायतों की अनदेखी की जाए. उदाहरण के लिए नब्बे के दशक के उत्तरार्ध में राजस्थान में किये गये अनुसंधान से पता चला था कि केवल 10प्रतिशत निवासी ही सामाजिक मुद्दों पर मददके लिए अपनी पंचायत से संपर्क करते हैं. इसके बजाय वे बिचौलियों की मदद से राज्य के अधिक अनौपचारिक मार्गों को अपनाना पसंद करते हैं.

लेकिन मेरे अनुसंधान से एक नई बात सामने आई है. राजस्थान के 2,000 से अधिक व्यक्तियों के सर्वेक्षण से पता चला है कि पंचायतों के माध्यम से जो भी कार्रवाई की गई, वह किसी चैनल से किये गये दावे से कहीं अधिक प्रभावी थी. अधिकांश लोगों (62%) ने बताया कि राज्य स्तर की सेवाएँ प्राप्त करने के लिए उन्होंने पंचायतों से संपर्क किया, जबकि एक चौथाई लोगों ने राजनीतिक दलों या उनसे संबद्ध संगठनों से संपर्क किया और सिर्फ़ 17 प्रतिशत लोगों ने ही बिचौलियों से संपर्क किया. दूसरे शब्दों में पंचायतें स्थानीय नागरिकों और सरकार के बीच केंद्रीय एजेंसियों के रूप में उभर रही हैं. और सबसे अधिक वंचित महिलाओं, निचली जाति के लोगों और गरीब लोगों के संदर्भ में तो यह बिल्कुल ठीक भी है. स्थानीय शासन के संदर्भ में, खास तौर पर राजस्थान जैसे सामंती “रजवाड़ों” की विरासत वाले राज्यों में इससे बहुत बड़ा अंतर आया है. लॉयड और सूज़न रुडोल्फ़ ने इस बारे में लिखा है कि “लोग राजनीतिक दृष्टि से अप्रासंगिक हो गए हैं और उन्हें लगता है कि ऐसा होना भी चाहिए.”

हम स्थानीय तौर पर नागरिक कार्रवाई रूप में हुए इस विस्फोट का पता कैसे लगा सकते हैंइस प्रकार के उदाहरण भी सामने आते हैं, जब सरकार की स्थानीय संस्थाओं की उपस्थिति लगातार बढ़ने के बावजूद असमान ही बनी रहती है और इनका मूल्यांकन उनकी पहुँच, उपस्थिति और सुगमता के आधार पर किया जाता है. नब्बे के दशक से भारत सरकार गाँवों के नज़दीक पहुँचने लगी है. लेकिन जब इस परिवेश में नियमों के आधार पर स्थानीय प्रशासन चलाने के बजाय विवेकाधिकार से ही उनकी पहचान की जाती है तो सरकार की उपस्थिति में अस्थिरता बनी रहती है: नागरिकों के जीवन में उसकी उपस्थिति दिखाई भी पड़ती है, भ्रांति भी पैदा करती है, संकटमय भी होती है और अस्थिर भी रहती है. इसी व्यापकता और असमानता के मिले-जुले रूप के कारण ही दावे करने का मंच तैयार होता है. जहाँ एक ओर राज्य की व्यापक उपस्थिति के कारण नागरिकों की अपेक्षाएँ बढ़ती हैं, वहीं इसके असमान कार्य-निष्पादन के कारण जहाँ कहाँ सेवाएँ नहीं मिलतीं, उलाहने (और हकदारी) की भावना भी उत्पन्न होने लगती है.

तीन ऐसे कारण सामने आये हैं, जिनकी वजह से स्थानीय मामलों में सरकारी दखल बढ़ने लगा है, लेकिन इसमें समानता नहीं होती. पहला कारण तो यही है कि भारत के कल्याण क्षेत्र का विस्तार होने लगा है. इसका एक अंश सामाजिक अधिकार के नियमों में दिखाई पड़ता है, जो बढ़ते खर्चों के रूप में और कार्यक्रमों के विस्तार में जगजाहिर होने लगा है. नब्बे के दशक से अब तक प्रति व्यक्ति सामाजिक व्यय में 50 प्रतिशत से अधिक वृद्धि हुई है और अब मूलभूत कल्याणकारी कार्यक्रमों पर केंद्र सरकार का खर्च प्रति ग्रामीण परिवार 9065 रुपये ( गरीबी रेखा के 40 प्रतिशत) के बराबर हो गया है. मानव-विज्ञानी अखिल गुप्ता लिखते हैं, “सरकार पर गरीबों के प्रति कुछ भी न करने का आरोप नहीं लगाया जा सकता. भारत में कहीं पर भी पोषण, स्वास्थ्य, शिक्षा, आवास, रोज़गार और स्वच्छता आदि क्षेत्रों में विकास की इससे अधिक व्यापक योजनाओं की कल्पना करना भी कठिन है.” दूसरे शब्दों में, संसाधन बढ़ तो रहे हैं, लेकिन साथ ही नागरिकों में इसके प्रति जागरूकता भी बढ़ रही है. फिर भी वही संसाधन सार्थक होंगे, जिनकी पहुँच सरकार के पास होगी, भले ही यह सवाल जीवन या मृत्यु का न हो, फिर भी लोग क्या खाएँगे, कहाँ काम करेंगे और उन्हें बुनियादी संरक्षण और देखभाल की सुविधा कैसे प्राप्त होगी. परंतु बहुत-से लोग बुनियादी चीज़ों और सेवाओं से महरूम रहने के कारण कोशिश करते-करते हताश हो जाते हैं और सरकार द्वारा इन सुविधाओं को समान रूप से उपलब्ध कराने में असफलता का भारी अंतराल होने के कारण ही नागरिक कार्रवाई करने को मज़बूर हो जाते हैं. 

दूसरा कारण यह है कि समय के साथ पंचायतें भी गहन रूप में संस्थाओं का आकार लेने लगी हैं, पंचायतों की राजकोषीय स्वायत्तता तो सीमित ही रहती है, लेकिन उनके माध्यम से अधिक से अधिक संसाधन उन्हें मिलने लगे हैं और उनके माध्यम से ही इनका वितरण भी होने लगा है. सन् 2005 में शुरू की गई केंद्र सरकार की फ्लैपशिप कार्ययोजना नरेगा अर्थात् राष्ट्रीय ग्रामीण रोज़गार गारंटी योजना के कार्यान्वयन के बाद से तो यही खास तौर पर सही लगने लगा है. पंचायत के सदस्य औपचारिक और अनौपचारिक रूप में इस कार्यक्रम के संचालन में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं. इस कार्यक्रम की फ़ंडिंग $6 बिलियन डॉलर से अधिक है और इसके अंतर्गत एक तिहाई ग्रामीण परिवार आ जाते हैं. सन् 2010 से पंचायत के चुनावों में प्रतियोगिता बढ़ती जा रही है. राजस्थान में पंच-प्रधान के प्रत्येक पद के लिए औसतन 6.6 उम्मीदवार चुनाव के मैदान में होते हैं. महिलाओं और निचली जाति व जनजाति के लिए आरक्षित कोटे ने तो पंचायत का चेहरा ही बदल कर रख दिया है और इसके फलस्वरूप स्थानीय निर्वाचित पदाधिकारियों और मतदाताओं के बीच सामाजिक दूरी भी कम हो गई है.

तीसरा कारण यह है कि स्थानीय शासन के परिवेश में भी बहुत विविधता आ गई है. बढ़ते हुए कल्याण क्षेत्र का मोटे तौर पर अर्थ यह है कि परस्पर मिल-बाँटकर खाने के लिए उन्हें बड़ा केक मिल गया है. इसके कारण नये-नये और अधिक से अधिक औपचारिक और अनौपचारिक कार्यकर्ता भी उभरने लगे हैं जो इसी कोशिश में रहते हैं कि नागरिकों और सरकार के बीच संपर्क-सूत्र कायम किया जाए. मेरे सर्वेक्षण के डेटा में इस जटिलता को उजागर किया गया है: अधिकांश लोग दावे के लिए एक से अधिक चैनल का उपयोग करते हैं और नागरिक अक्सर कभी तो सीधा रास्ता अपनाते हैं और कभी-कभी किसी बिचौलिये के ज़रिये और कभी-कभी दोनों ही रास्ते अपना लेते हैं. उदाहरण के लिए वे लोग, जो पंचायत से सीधे संपर्क साधते हैं, उनकी तुलना में दो-तिहाई लोग वे हैं जो मध्यस्थता करने वाली संस्थाओं (जैसे पड़ोस में रहने वाली (नेबरहुड) संस्थाओं, एनजीओ या ब्रोकर) के माध्यम से संपर्क साधते हैं  ऐसे मामलों में पंचायत की भूमिका द्वारपाल (गेटकीपर) की होती है. उदाहरण के लिए इनमें से 90 प्रतिशत लोग वे हैं जो पंचायत के साथ मिलकर राजनीतिक पार्टियों से संपर्क साधते हैं. संक्षेप में पंचायत लगातार जटिल होते स्थानीय परिवेश में एक महत्वपूर्ण धुरी है.

इन बदलावों का मिला-जुला नतीजा यह हुआ है कि पंचायत के इर्द-गिर्द स्थानीय नागरिकों और सरकार के बीच अधिकाधिक संपर्क और घनिष्ठता बढ़ रही है. आज सरकार ग्रामीण नागरिकों के दरवाज़े पर दस्तक देने लगी है. उनकी उपस्थिति केवल सार्वजनिक कार्यक्रमों में ही नहीं, नियमित स्थानीय चुनावों में भी दर्ज होने लगी है और उनके प्रतिनिधि भी उनके ही स्थानीय समुदायों से होते हैं. ब्रोकरों और बिचौलियों की बढ़ती जमात के कारण नये और अतिरिक्त चैनल खुलने लगे हैं, जिनके माध्यम से नागरिक सरकार से संपर्क साधने लगे हैं.

हम स्थानीय नागरिकों की इस कार्रवाई को देखकर कह सकते हैं कि भारत के सबसे गरीब इलाकों के निवासी सक्रिय होकर सेवाएँ पाने के लिए सरकार से जुड़े रहते हैं और यही स्थानीय लोकतंत्र की जीवंतता का प्रमाण है. इसका एक अँधेरा पहलू यह भी है कि नियमित रूप से सेवाएँ प्रदान करने में सरकार और पंचायत की विफलता के कारण नागरिक दावा करने के लिए बाध्य हो जाते हैं. इस प्रकार अधिकांश ग्रामीण भारत की तरह ग्रामीण राजस्थान भी नागरिकों की आवाज़ के सम और विषम चक्र और राज्य की प्रतिक्रिया या निष्क्रियता के बीच दोराहे पर खड़ा है.    

यह कहानी कैसे अनावृत होगी, इस बात में इन संस्थाओं की महत्वपूर्ण भूमिका है. क्या सामाजिक आंदोलन नागरिकों को दावा करने के लिए प्रेरित करते हैं और उस दावे को बनाये रखते हैं ?मज़दूर किसान शक्ति संगठन जैसे वर्तमान समूह राजस्थान में पहले से ही सक्रिय हैं और सामाजिक अधिकारों के लिए प्रभावी रूप में अभियान चलाते रहे हैं. भले ही उनकी उपस्थिति स्थानीय स्तर पर धुँधली-सी ही रहती है. क्या उनकी पहुँच और असर ज़्यादा बढ़ेगा ? या फिर क्या राजनीतिक दल इस अंतराल को भर पाएँगे ? मौजूदा चुनावी माहौल में यह संभव नहीं लगता, क्योंकि इस प्रणाली में प्रतियोगिता बहुत बढ़ गई है और इन्हें संरक्षण भी मिलता रहा है. आम आदमी पार्टी (आप पार्टी) जैसी नई पार्टियों, जो भ्रष्टाचार-विरोधी मंच की ही उपज हैं, के उदय से स्पष्ट है कि ये पार्टियाँ परंपरागत पार्टी मॉडल से बिल्कुल अलग हैं. हालाँकि ऐसी पार्टियाँ राजस्थान जैसे ग्रामीण इलाकों में कतई सक्रिय नहीं हैं. शायद सबसे अधिक संभावना अगर है तो ग्राम पंचायत में है, क्योंकि इनका उदय ही दावे करने के एक महत्वपूर्ण स्थल के रूप में हुआ है. क्या उन्हें प्रतिनिधित्व देने या विचार-मंथन करने की उस भूमिका के लिए सशक्त किया जा सकेगा, जिसके लिए इनकी कल्पना की गई है? बदलाव की गति बहुत धीमी और अनिश्चितता से भरी है. लेकिन जो लोग इन स्थानीय संस्थाओं में भरोसा रखते हैं, उन अनगिनत नागरिकों का अनुसरण करना ही ठीक लगता है.

गैब्रिएल क्रक्स-विसनर(gabikaya@gmail.com) अंतर्राष्ट्रीय क्षेत्र अध्ययन से संबंधित हार्वर्ड अकादमी में अकादमी स्कॉलर हैं और अगस्त, 2016 से वे वर्जीनिया विश्वविद्यालय में राजनीति व वैश्विक अध्ययन के सहायक प्रोफ़ेसर हो जाएँगी. उनके अनुसंधान का मुख्य विषय है, नागरिकों और सरकार के संबंध, स्थानीय शासन और सामाजिक कल्याण. संप्रति अपनी वर्तमान पुस्तक परियोजना में वे राजस्थान राज्य में नागरिकता की प्रथा की परीक्षा में जुटी हैं.  

 

हिंदी अनुवादः विजय कुमार मल्होत्रा, पूर्व निदेशक (राजभाषा), रेल मंत्रालय, भारत सरकार <malhotravk@gmail.com> / मोबाइल : 91+9910029919