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कोरोना विषाणु (वायरस) के प्रकोप से मुक्त होने के बाद भी स्वास्थ्य और आर्थिक मोर्चे पर व्यापक संकट से निपटने के लिए भारत सरकार को अपनी नीतियाँ बनानी होंगी

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16/04/2020
हर्ष तिरुमूर्ति

जैसे-जैसे भारत में 12,000 से अधिक कोविड-19 के मामलों की पुष्टि हुई है और तेज़ी से इस संख्या में वृद्धि भी हो रही है तो भी कोरोना विषाणु की नई बीमारी के कारण देश के सार्वजनिक स्वास्थ्य के सामने भारी खतरा मंडराने लगा है. भारत की इस महामारी के मॉडल पर आधारित कुछ अनुमानों के अनुसार 400 मिलियन से अधिक भारतीय इस साल संक्रमित हो जाएँगे. इस आँकड़े से आसानी से यह अनुमान लगाया जा सकता है कि भारत में कोविड-19 के कारण मृतकों की संख्या मौजूदा महामारी से इस समय संक्रमित विश्व के किसी भी भाग से कहीं अधिक होगी.  इसके कारण जो आर्थिक नुक्सान और दुष्परिणाम होंगे, उसका असर भी स्वास्थ्य के परिणामों पर पड़ेगा. ये परिणाम बहुत भयावह हो सकते हैं, इसलिए आवश्यक है कि इस संबंध में व्यापक तौर पर नीतिगत निर्णय लिये जाएँ.

कोविड-19 के फैलाव को रोकने के लिए स्वास्थ्य प्रणाली को पूरी तरह तैयार रहना होगा ताकि गंभीर मामलों से निपटा जा सके. सही तो यही होगा कि इस समय दो बड़ी प्राथमिकताएँ होनी चाहिए. ये दोनों ही प्राथमिकताएँ भारत के लिए बड़ी चुनौतियाँ सिद्ध होंगी. 24 मार्च को जो अप्रत्याशित राष्ट्रीय लॉकडाउन लागू किया गया था, वह नये संक्रमण के फैलाव को कम करने और उसके “वक्र को सपाट बनाने” के लिए बहुत आवश्यक था, लेकिन इस लॉकडाउन को लागू करने के लिए महत्वपूर्ण सरकारी संसाधनों को विभिन्न स्थानों पर भेजना और घनी आबादी वाले इस देश के अधिकांश भागों में ये संसाधन पहुँचाना बहुत ही कठिन काम रहा है. 

इस लॉकडाउन के कारण लोगों को भी अनगिनत मुसीबतें झेलनी पड़ रही हैं, लाखों प्रवासी मज़दूर गाँव के अपने घर पहुँचने के लिए भारी मुसीबतें झेलते हुए सफ़र पर निकल पड़े हैं. साथ ही और बहुत से लोगों की आजीविका पर संकट मंडराने लगा है. 21-दिनों की लॉकडाउन की आरंभिक अवधि को और भी बढ़ा देने के 11 अप्रैल के निर्णय के कारण ये मुसीबतें और भी बढ़ जाएँगी, भले ही अप्रैल के अंत तक इन्हें आंशिक तौर पर ही क्यों न बढ़ाया गया हो.

स्वास्थ्य प्रणाली तो पहले से ही चरमरा रही थी, अब उसकी चुनौतियाँ और भी भयावह हो जाएँगी. व्यापक परीक्षण और उपचार तो आवश्यक हैं ही, फिर भी दोनों मोर्चों पर भारी कमियाँ दिखाई देने लगी हैं. विश्व के अन्य भागों में व्याप्त इबोला और HIV/AIDS जैसी संकामक बीमारियों के फैलाव को रोकने के लिए जो सफल प्रयास किये गए थे, उससे सीख लेकर वैसे ही उपाय पूर्वी एशियाई देशों में कोविड के फैलाव को रोकने के लिए करने होंगे.

परीक्षण तो और अधिक व्यापक क्षेत्रों में करने ही होंगे, लेकिन जब तक यह वास्तविकता नहीं बन जाती तब तक रणनीतिक रूप में संसाधनों को जुटाना होगा. उदाहरण के लिए उन तमाम इलाकों को तेज़ी से चिह्नित करने के लिए जहाँ कोरोना विषाणु के मामले सामने आ रहे हैं, रक्षक निगरानी प्रणाली स्थापित की जा सकती है. साथ ही अधिकाधिक परीक्षण करने होंगे और संक्रमण की रोक-थाम के उपाय भी करने होंगे. इसी तरह संक्रमित लोगों के संपर्क में आने वाले लोगों की खोज की मौजूदा रणनीति को जारी रखना होगा, लेकिन अगली पंक्ति में काम करने वाले स्वास्थ्य-कर्मियों के अनुभव के आधार पर नये उपायों को लागू भी किया जाना चाहिए, ताकि भारी संख्या में सामने आने वाले संभावित मामलों की रिपोर्ट तेज़ी से भेजी जा सके.

कोविड-19 के मरीज़ों के इलाज के लिए नई तरह की चुनौतियाँ सामने आ रही हैं. हम कितने भी आशावादी क्यों न हों, भारत में जितनी संख्या में महामारी के नये मामले सामने आ रहे हैं, उन्हें देखते हुए अस्पतालों की मौजूदा क्षमता को बहुत अधिक बढ़ाना होगा. अस्पतालों में उपलब्ध बिस्तरों और वेंटिलेटरों की संख्या बढ़ाने के साथ-साथ प्राथमिकता के आधार पर व्यक्तिगत बचाव के उपकरणों का उत्पादन भी तेज़ी से करना होगा.  

भले ही भारत कोविड-19 की सबसे भयावह स्थिति को टालने में सफल हो जाए, फिर भी उसके आर्थिक दुष्परिणाम और भारत के अनौपचारिक मज़दूरों और गरीबी रेखा पर या उससे नीचे रहने वाले लोगों की भारी आबादी के कारण उनके स्वास्थ्य पर जो भारी असर पड़ेगा, उसका परिणाम बहुत भयावह हो सकता है. अब तक जिस प्रकार के अल्पकालिक उपायों की घोषणा की गई है, उससे कहीं अधिक व्यापक और निरंतर नीतिगत उपायों की आवश्यकता होगी.

अनेक राज्य सरकारों और केंद्र सरकार को यह श्रेय दिया जा सकता है कि उन्होंने लॉकडाउन की शुरुआत से ही विभिन्न प्रकार की राहत देने के उपाय करना शुरू कर दिया था. तमिलनाडु ने एक खास आबादी को 1,000 रुपये देने के साथ-साथ आवश्यक वस्तुओं को निःशुल्क देने की घोषणा कर दी थी. गुजरात और केरल जैसे अन्य राज्यों ने भी इसी प्रकार के उपायों की घोषणा कर दी थी. इसके अलावा, केंद्र सरकार ने 22.6 बिलियन डॉलर व्यय करने की एक योजना बनाई है, जिसके अंतर्गत 200 मिलियन लाभार्थियों को तीन महीने तक 500 रुपये का मासिक भुगतान करने और उज्ज्वला कार्यक्रम के लाभार्थियों को तीन महीने तक मुफ्त एलपीजी और निःशुल्क भोजन का राशन देने की व्यवस्था है.

हालाँकि नकदी अंतरण की व्यवस्था भी की जा रही है, फिर भी इससे अनेक लाभार्थियों और उनके परिवारों पर कोई खास आर्थिक लाभ होने की संभावना नहीं है. इससे अधिक महत्वपूर्ण बात तो यह है कि भले ही कोविड-19 के आर्थिक नुक्सान से सकल घरेलू उत्पाद (GDP) पर अल्पकालिक संकट नहीं भी पड़े तो भी सकल घरेलू उत्पाद (GDP) की वृद्धि पर दीर्घकालीन मंदी का असर ज़रूर होगा. रिज़र्व बैंक ऑफ़ इंडिया ने अपनी भविष्यवाणी में भारतीय अर्थव्यवस्था पर ल़ॉकडाउन के दुष्प्रभावों और आगामी वर्ष में संभावित अपरिहार्य वैश्विक मंदी को ध्यान में रखते हुए “भारी परिवर्तनों” की पहले ही घोषणा कर दी है. हालाँकि पिछले कई दशकों में भी कोई भविष्यवाणी सफल सिद्ध नहीं हो पाई है, फिर भी अगर इस साल के लिए सकल घरेलू उत्पाद (GDP) की वृद्धि में 1.5-2 प्रतिशत की भविष्यवाणी सही सिद्ध हो जाती है तो भी कोविड-19 से सीधे स्वास्थ्य पर पड़ने वाले भारी दुष्प्रभावों की तुलना में भारत में गरीबी, स्वास्थ्य और कुशल क्षेम पर कहीं अधिक बुरा असर पड़ेगा.  

आसन्न भारी आर्थिक संकट को देखते हुए हमें कई प्रकार के अतिरिक्त नीतिगत निर्णय भी लेने होंगे. अनेक परिवारों को पर्याप्त संरक्षण देने के लिए व्यापक और दीर्घकालीन प्रोत्साहन योजनाएँ शुरू करनी होंगी. छोटे उपक्रमों को सहयोग प्रदान करना दूसरी व्यय योजना का एक अंग होना चाहिए. एक उपाय यह भी हो सकता है कि नकदी अंतरण के आकार और अवधि को बढ़ाने के साथ-साथ उपयुक्त लाभार्थियों को अधिक सब्सिडी के साथ आवश्यक वस्तुएँ भी उपलब्ध कराई जाएँ. जब कोरोना विषाणु के संक्रमण का खतरा कम हो जाएगा या भौतिक दूरी बनाये रखने की आवश्यकता नहीं रहेगी तो भावी योजना के रूप में मनरेगा जैसी कामगारों के लिए लाभप्रद योजनाओं को व्यापक रूप में शुरू किया जा सकेगा.

भारत में कोविड-19 के व्यापक प्रभाव को कम करने के लिए सिर्फ़ आर्थिक उपाय पर्याप्त नहीं होंगे. उन वर्षों में भी जब अर्थव्यवस्था तेज़ी से बढ़ रही थी और पौष्टिक पूरक आहार प्रदान करने की व्यापक योजनाएँ भी चल रही थीं, तब भी भारत की गणना सर्वाधिक कुपोषित देशों में की जाती थी. विश्व के सबसे अधिक अविकसित एक तिहाई बच्चे भारत में ही रहते हैं और कुपोषण बच्चों की मृत्यु का एक प्रमुख कारण है. आवश्यक वस्तुओं और सेवाओं की डिलीवरी में कोविड-19 के सम्मिलित प्रभाव के कारण स्वास्थ्य प्रणाली पर भारी बोझ पड़ा है और आर्थिक मंदी का भारी असर कुपोषण की दर पर पड़ सकता है.  

कुपोषण और बच्चों के स्वास्थ्य पर पड़ने वाले जोखिम को टालने के लिए पहले चरण के रूप में मुख्य संकेतकों को बार-बार ट्रैक करना होगा. यह व्यवस्था खास तौर पर उन इलाकों में करनी होगी जहाँ कुपोषण की दर सर्वाधिक होती है. ऐसे इलाकों को तेज़ी से चिह्नित करने के लिए अतिरिक्त योजनाएँ चलानी होंगी. एक तरीका तो यह होगा कि कोविड-19 की वृद्धि की निगरानी में संलग्न अगली पंक्ति के स्वास्थ्य-कर्मियों के अनुभव के आधार पर इस प्रकार की ट्रैकिंग को आगे बढ़ाया जाए. जिन इलाकों में संकेतक स्थिति के और अधिक बिगड़ने का संकेत दे रहे हैं, वहाँ विशिष्ट हस्तक्षेप होने चाहिए, जैसे मुफ़्त राशन का अधिकाधिक प्रावधान, राशन पहुँचने से संबंधित समस्याओं का समाधान, नकदी अंतरण कार्यक्रमों का विस्तार या स्वास्थ्य सेवाओं का विस्तार.

कोरोना विषाणु के खिलाफ़ विश्वव्यापी लड़ाई में सभी देश स्वास्थ्य और आर्थिक कल्याण की भारी चुनौतियों से जूझ रहे हैं. विशाल आकार और आबादी की सघनता के साथ-साथ स्वास्थ्य और आर्थिक संकेतकों को देखते हुए भारत में यह चुनौती और भी गंभीर है. अब समय आ गया है कि हम स्वास्थ्य क्षेत्र की प्रतिक्रियाओं को ध्यान में रखते हुए व्यापक, दीर्घ और स्थायी व्यय की योजनाएँ बनाएँ.

हर्ष तिरुमूर्ति अर्थशास्त्री होने के साथ-साथ पेन्सिल्वेनिया विश्वविद्यालय में स्वास्थ्य-नीति के सह प्रोफ़ेसर भी हैं.

 

हिंदी अनुवादः डॉ. विजय कुमार मल्होत्रा, पूर्व निदेशक (राजभाषा), रेल मंत्रालय, भारत सरकार <malhotravk@gmail.com> / मोबाइल : 91+9910029919