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भूटान में भारत का पनबिजली निवेशः पर्यावरण पर प्रभाव और सिविल सोसायटी की भूमिका

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25/04/2016
सुप्रिया रॉय चौधुरी और शशांक श्रीनिवास

भारत अन्य उदीयमान शक्तियों से साथ वैश्विक बाज़ार में अपनी जगह बनाने में जुटा हुआ है और इसके लिए ज़रूरी है कि वह भारी मात्रा में बिजली की पूर्ति की प्रतिस्पर्धा में प्रभावी रूप में भाग ले. यह तभी संभव हो सकता है जब अपने घरेलू प्राकृतिक संसाधनों का दोहन करने के लिए नई बिजली परियोजनाओं को कार्यान्वित किया जाए, लेकिन सामाजिक और पर्यावरण संबंधी प्रभाव के बारे में प्रचलित धारणाओं के कारण भारत में बड़े स्तर की ढाँचागत परियोजनाओं को कार्यान्वित करना बहुत कठिन है. नर्मदा और तीस्ता नदियों पर बने बाँधों की विवादास्पद परियोजनाएँ इसकी प्रमुख उदाहरण हैं. आज पर्यावरण से संबंधित कड़े आंतरिक नियमों के कारण और सक्रिय सिविल सोसायटी द्वारा भारत के अंदर ही ऐसी ढाँचागत परियोजनाओं को कार्यान्वित करने की लागत को लेकर सवाल उठाये जाने लगे हैं. उदाहरण के लिए, स्थानीय पारिस्थितिकी (इकोलॉजी) संबंधी प्रचलित धारणाओं और स्थानीय समुदायों के कारण ही अरुणाचल प्रदेश में न्यामजंग चू नदी पर और मणिपुर की बराक नदी पर बाँधों के निर्माण का काम टलता रहा.  

इसलिए यह स्वाभाविक ही है कि भारत बिजली की लगातार बढ़ती अपनी ज़रूरतों को पूरा करने के लिए अंतर्राष्ट्रीय बाज़ारों की खोज में जुटा हुआ है. दुनिया भर के अनुभवों से तो यही लगता है कि राजकीय या निजी दोनों ही प्रकार की फ़र्में केवल उन देशों में ही निवेश करना पसंद करती हैं जहाँ राष्ट्रीय विनियामक ढाँचा कारोबार को बढ़ाने के लिए सर्वाधिक लाभप्रद हो. भूटान में बड़े पैमाने पर कम लागत वाली भारतीय पनबिजली के क्षेत्र में निवेश के लिए भारत का निर्णय इस दृष्टि से महत्वपूर्ण है.  

भूटान चारों ओर ज़मीन से घिरा हुआ और भारतीय राज्य सिक्किम और अरुणाचल प्रदेश के बीच का एक देश है, जिसमें पनबिजली उत्पादन की अपार संभावनाएँ हैं. सक्रिय कारोबारी वातावरण के साथ-साथ सक्रिय न्यायपालिका न होने के कारण और सिविल सोसायटी के हाल ही में उदय होने के कारण यह भारतीय ऊर्जा निवेश का आदर्श स्थल है.

भूटान में भारतीय ऊर्जा निवेश वैश्विक बाज़ार में इसलिए भी अनूठा है, क्योंकि इन सिद्धातों के प्रति इसकी व्यावसायिक प्रतिबद्धता है, जिसका आजकल लोकप्रिय नाम है, “दक्षिण-दक्षिण सहयोग”. वैश्विक दक्षिण के एक प्रमुख सेवा प्रदाता के रूप में भारत का विश्वास है कि इस समूह में अन्य देशों के विकास में भागीदारी राष्ट्रीय संप्रभुता, समानता, शर्तों के बंधन से मुक्त और आपसी लाभ के सिद्धांतों से जुड़ी होनी चाहिए. 

भारत के सहयोग से शुरू की गई पहली पनबिजली परियोजना (चूखा, 336 मेगावाट ) सन् 1988 में पूरी हुई थी, जिसमें से बाद में उत्पन्न अस्सी प्रतिशत बिजली भारत को निर्यात की गई थी. तभी से भारत में पनबिजली की माँग में नाटकीय रूप में वृद्धि होती रही है और नवोन्मेषकारी वित्तीय साधनों को जुटाने की खोज होती रही है. भारत ने भूटान को बिजली संयंत्र लगाकर 2020 तक 10,000 मेगावाट पनबिजली पैदा करने का आश्वासन दिया है. आरंभिक वर्षों में भारत ने भूटान को कुछ अंश अनुदान के रूप में और कुछ अंश रियायती ऋण के रूप में प्रदान किया है, लेकिन यह मॉडल इस कारण से टिकाऊ नहीं माना गया, क्योंकि यह पूरी तरह से भारत के संदर्भ में सार्वजनिक निधियों पर और भूटान के संदर्भ में वापस किये जाने वाले ऋण पर अवलंबित था. 

इसके समाधान के लिए और 2020 के अपने महत्वाकांक्षी लक्ष्य को पूरा करने के लिए भारत ने भूटान में अपने पनबिजली संबंधी निवेश के लिए वित्तीय साधन जुटाने के उद्देश्य से एक नये “संयुक्त-उद्यम” (JV) मॉडल का प्रस्ताव किया है. जेवी मॉडल भारत और भूटान दोनों ही देशों में सार्वजनिक क्षेत्र के उपक्रमों के बीच एक ऐसी भागीदारी है, जिसमें 70 प्रतिशत वित्त कंपनी ऋण के रूप में लिया जाएगा और 30 प्रतिशत भारत से प्राप्त इक्विटी के रूप में. आरंभ में पिछले योगदान को दोनों ही देशों के बीच बराबर बाँटने का निर्णय किया गया था, लेकिन भूटान के इंकार करने पर भारत ने भूटान का 15 प्रतिशत हिस्सा भी सद्भावना के रूप में देने पर अपनी सहमति दे दी. इस जेवी मॉडल के अंतर्गत इस समय दस परियोजनाएँ चल रही हैं.

दूसरा मॉडल सार्वजनिक-निजी भागीदारी (PPP) के रूप में प्रस्तावित किया गया है. दगच्छु परियोजना भारत के टाटा पावर लि., भूटान की डीजीपीसी लि. और भूटान की राष्ट्रीय पेंशन व भविष्य निधि का एक संयुक्त उद्यम है और पनबिजली विकास के लिए भूटान की पहली सार्वजनिक-निजी भागीदारी (PPP) परियोजना है. सह-वित्तपोषक भागीदारों में शामिल हैं, एशिया विकास बैंक, ऑस्ट्रिया का रैफ़ेसन बैंक और एनपीपीएफ़, जिसके कारण सच्चे अर्थों में यह एक बहु-हितधारक (मल्टी-स्टेकहोल्डर) पहल है. इसी भागीदारी के कारण टाटा पावर लि. की एक कंपनी टाटा पावर ट्रेडिंग कंपनी दगच्छु परियोजना से उत्पन्न बिजली को भारत के ऊर्जा बाज़ार में बेच पाएगी. इस प्रकार पीपीपी मॉडल भारत को एक अवसर प्रदान करता है, जिसके कारण वह भूटान में उत्पन्न पनबिजली विकास में पूरी तरह अपने साधनों पर निर्भर रहते हुए सहयोग प्रदान कर सकता है. उक्त उदाहरणों से यह स्पष्ट है कि विभिन्न प्रकार के परिष्कृत वित्तीय साधन किसी भी प्रकार की राजनीतिक शर्तबंदी से बँधे हुए नहीं हैं. यही कारण है कि भारत भूटान को बिजली उत्पन्न करने के लिए इस प्रकार से भुगतान कर पा रहा है ताकि वह अपनी अर्थव्यवस्था को भी सुधार सके. इसके बदले भूटान भारत को बिजली बेचकर राजस्व कमा सकता है और इसके साथ ही व्यापार असंतुलन की प्रतिकूल स्थिति को भी ठीक कर सकता है. इससे यह स्पष्ट होता है कि भूटान के साथ भारत की ऊर्जा संबंधी भागीदारी दक्षिण-दक्षिण सहयोग के मूल सिद्धांतों के अनुरूप है.

हमने जब इसकी गहन समीक्षा की तो पता लगा कि इन परियोजनाओं के वास्तविक कार्यान्वयन के आधार विशेषकर भूटान के पर्यावरण के संदर्भ में केवल आपसी लाभ और समानता के मूल्य ही नहीं होते.

यद्यपि भूटान की शासन-व्यवस्था पर्यावरण और जैव विविधता की जबर्दस्त पक्षधर है, फिर भी भारतीय एजेंसियों द्वारा पर्यावरण के प्रभाव का जो आकलन किया गया है, उससे पता चलता है कि ये निर्णय हमेशा पर्यावरण की दृष्टि से अनुकूल नहीं होते. उदाहरण के लिए पुनत्संग्छु -I (1200 ) और II (1020 मेगावाट) की बिजली परियोजनाओं ने दुर्लभ प्रजाति के सफ़ेद पेट वाले बगुले के ठिकाने को चौपट कर दिया है. हालाँकि इन पक्षियों के कृत्रिम ठिकाने बनाने के प्रयास तो किये जा रहे हैं, लेकिन सच तो फिर भी यही है कि इनके स्वाभाविक ठौर-ठिकाने नष्ट होते जा रहे हैं और इसके लिए जो व्यवस्था की जा रही है, उसका बुनियादी तंत्र भी बहुत कमज़ोर है.   

भूटान में भारत की कुछ ऐसी पनबिजली परियोजनाएँ भी चल रही हैं जिनसे भारत के अंदर भी बुरा असर पड़ा है. उदाहरण के लिए करिच्छु (60 मेगावाट) की बिजली परियोजना ने सन् 2004 में विश्व विरासत के रूप में घोषित मानस राष्ट्रीय पार्क के ढलाव को अधिक पानी छोड़े जाने के कारण बहुत नुक्सान पहुँचाया है. मंगदेच्छु (270 मेगावाट) बिजली परियोजना, जो मानस की अपस्ट्रीम भी है, से होने वाले नुक्सान का अंदाज़ा लगाते हुए विश्व विरासत समिति ने पार्क पर (सितंबर, 2017 में शुरू होने वाली) इस परियोजना से पड़ने वाले अनुमानित प्रभाव के बारे में सूचना देने के लिए दो बार अनुरोध किया है. पिछले साल तक भूटान ने इस बारे में कोई सूचना नहीं दी थी.

साथ ही सभी बिजली परियोजनाओं से भूटानी अर्थव्यवस्था लाभान्वित ही हुई है, ऐसा भी नहीं है. सुने-सुनाये साक्ष्य से पता चलता है कि मुख्यतः भारतीय कंपनियाँ ही भारतीय मज़दूरों की सहायता से परियोजना के काम को पूरा करने के लिए उपठेके लेती हैं. भूटान के व्यापार और उद्योग चैम्बर के अध्यक्ष उग्येन त्सेचप ने कहा था, “ एक ओर तो सरकार समान अवसर देने और समान रूप से लाभों को साझा करने की बात करती है ओर दूसरी ओर सभी कुछ विदेशियों के हाथ में सौंप देती है.”

पनबिजली, भूटान की हरित सामाजिक-आर्थिक विकास की रणनीति का एक अनिवार्य और स्थायी तत्व है, लेकिन दोनों देशों की न्यायिक और सिविल सोसायटी को चाहिए कि वे इन पनबिजली परियोजनाओं के सामाजिक और पर्यावरण संबंधी प्रभाव की गहरी छानबीन करें और ऐसे उपाय करें जिनसे इन प्रभावों को कम किया जा सके और इसकी ज़िम्मेदारी तय की जा सके. भारत को चाहिए कि वह इसका नेतृत्व करे, क्योंकि इन प्रभावों के निर्माण के लिए अंततः वही ज़िम्मेदार है.  इसे सुनिश्चित करने के लिए भारत को चाहिए कि वह भूटान में या वैश्विक दक्षिण के किसी अन्य देश में इस तरह की परियोजनाओं में निवेश करने के लिए पर्यावरण और समाज से संबंधित वही मानक अपनाये जिन्हें पूरा किया जा सकता हो. इन मानकों को अपनाकर ही “दक्षिण-दक्षिण सहयोग” के उन सिद्धांतों को मज़बूत किया जा सकता है और विधिसम्मत बनाया जा सकता है, जिन पर भारत की विकास की भागीदारी निर्भर है. पनबिजली के संदर्भ में एक ऐसी व्यवस्था की जा सकती है, जिससे यह सुनिश्चित किया जा सके कि भारतीय और भूटानी सिविल सोसायटी के संगठन परियोजना के अनुमोदन की प्रक्रिया के विभिन्न स्तरों पर टिप्पणी कर सकें और यह सुनिश्चित कर सकें कि इन मानकों का अनुपालन किया जाता है. जैसे-जैसे भारत की अर्थव्यवस्था का विकास होता है और उसकी वृद्धि के लिए संसाधनों को जुटाने की खोज की जाती है, उसके विकास की भागीदारी का विस्तार होता जाएगा और उसकी भौगोलिक व्याप्ति भी बढ़ती जाएगी. वैश्विक दक्षिण के अन्य देशों के साथ मधुर संबंध बनाने के लिए यह आवश्यक होगा कि विदेशों में निवेश के लिए भारत की रणनीति के स्पष्ट विनियम बनाये जाएँ और दक्षिण-दक्षिण सहयोग के सिद्धांतों को संस्थागत स्वरूप प्रदान किया जाए.

सुप्रिया रॉय चौधुरी दक्षिण-दक्षिण विकास सहयोग से जुड़े मामलों पर एक स्वतंत्र अनुसंधानकर्ता और टिप्पणीकार हैं. उन्होंने ऑक्सफ़ैम भारत की विदेश नीति के कार्यक्रम का पहले नेतृत्व किया था और वारविक विश्वविद्यालय से अंतर्राष्ट्रीय संबंधों पर मास्टर डिग्री प्राप्त की थी.  

शशांक श्रीनिवासन भारत में स्थानिक (स्पैटियल) विश्लेषक और मानचित्रकार (कार्टोग्राफ़र) के रूप में कार्यरत हैं और उन्होंने कैम्ब्रिज विश्वविद्यालय से कंज़र्वेशन लीडरशिप प्रोग्राम में एम फ़िल के साथ स्नातक परीक्षा उत्तीर्ण की है.

हिंदी अनुवादः विजय कुमार मल्होत्रा, पूर्व निदेशक (राजभाषा), रेल मंत्रालय, भारत सरकार <malhotravk@gmail.com> / मोबाइल : 91+9910029919