जो लोग यह मानते हैं कि भारतीय समाज आम तौर पर गुणतंत्र पर अधिकाधिक ज़ोर देने लगा है, उन्हें यह बात रास नहीं आती कि वंशवाद अभी-भी चुनावी राजनीति पर हावी है- लेकिन अब उनका प्रभाव इतना नहीं रह गया है, जितना कि पहली नज़र में दिखायी देता है. सर्वाधिक महत्वपूर्ण राजनीतिज्ञों ने शीर्ष पर पहुँचने का दूसरा रास्ता ढूँढ लिया हैः कई दलों के ऊपरी पायदान के प्रमुख नेताओं को वंशवाद का कोई लाभ नहीं मिलता और जल्द ही इस व्यवस्था में किसी प्रकार के परिवर्तन की भी कोई संभावना नहीं है.
जब आम आदमी पार्टी ने इस वायदे के साथ आम आदमी के दिल में जगह बनायी कि न तो कोई प्रत्याशी ताम-झाम वाली भारी-भरकम सुरक्षा नहीं लेगा और न ही चुनाव लड़ने के लिए टिकट की खरीद-फ़रोख्त में भाग लेगा और न ही लाल बत्ती वाली गाड़ियों में चलेगा तो मतदाता हैरान रह गये और कुछ लोगों को तो लगा कि ये लोग कुछ सनकी हो गये हैं. राजनैतिक लाभों का यह प्रदर्शन राजनेताओं में इतना घर कर गया है कि इनके बिना राजनीतिज्ञों या मंत्रियों के जीवन की कल्पना भी नहीं की जा सकती.
पिछले दिसंबर में दिल्ली के चुनावों में आम आदमी पार्टी ने वर्षों से दिल्ली में काबिज अखिल भारतीय कांग्रेस और भारतीय जनता पार्टी को हरा दिया. यदि आम आदमी पार्टी इसी तरह आगे भी कामयाब होती है तो वह अपने संविधान में किये गये दूसरे वायदे को भी पूरा कर सकती है कि "एक ही परिवार के दो सदस्य हमारी पार्टी में चुनाव नहीं लड़ सकते".यह वायदा देश-भर में फैली इस धारणा की प्रतिक्रिया स्वरूप है कि भारतीय राजनीति में वंशवाद हावी हो चुका है.
वास्तविक आँकड़े निश्चय ही खतरे की घंटी का संकेत दे रहे हैं. वर्तमान लोकसभा के चालीस से कम उम्र के एक-तिहाई सांसदों के नज़दीकी रिश्तेदार इस समय राजनीति में हैं.भारतीय जीवन के अधिकांश क्षेत्रों में रिश्तेदारों और संबंधियों के नज़दीकी “परिवार” के लोग ही अक्सर चुनाव क्षेत्रों की दलगत राजनीति को नियंत्रित करते हैं. भाजपा और वामपंथी दलों के लोग अभी-भी अपेक्षाकृत गुणतंत्र वाले हैं, लेकिन हैरानी की बात तो यह है कि चवालीस साल से कम उम्र वाले कांग्रेस पार्टी के दस वर्तमान सदस्यों में से नौ सदस्य आनुवंशिक परंपरा से जुड़े हैं और निश्चय ही उन्होंने संसद की अपनी सीट “विरासत” में पायी है.
पैसा और आनुवंशिकता आपस में गहरे जुड़े हुए हैं. यदि हम प्रस्थान बिंदु के रूप में चुनाव आयोग को दिये गये आधिकारिक आँकड़ों को देखें तो पाएँगे कि वर्तमान लोकसभा के बीस सबसे अमीर सांसदों में से पंद्रह आनुवंशिक परंपरा से आये हैं और इनमें से दस सांसद कांग्रेस पार्टी में हैं. जो सांसद प्रतिष्ठित राजनैतिक घरानों से आये हैं वे उन सांसदों से पाँच गुना ज़्यादा अमीर हैं जिनकी राजनीति में कोई पारिवारिक पृष्ठभूमि नहीं है. उदाहरण के लिए राष्ट्रीय या क्षेत्रीय राजनीति से जुड़े जो सांसद सास, चाचा और पुत्र-पुत्री के रूप में “हाइपर कनैक्टेड” राजनैतिक परिवारों से आते हैं वे औसतन उन सांसदों से अधिक अमीर होते हैं जो कारोबार में लंबा और सफल कैरियर बिताने के बाद संसद में आये हैं.
दूसरे लोकतांत्रिक देशों में राष्ट्रपति या प्रधानमंत्री की संतानें राजनीति की चूहा दौड़ में अक्सर शामिल तो होना चाहती हैं, लेकिन उनकी पार्टियों पर उनके परिवारों का नियंत्रण नहीं होता.भारत, पाकिस्तान और फिलिस्तीन में ही ऐसा होता है. बेनिग्नो क्विनो III, जो सन् 2010 में राष्ट्रपति बने, अपने परिवार में प्रमुख राजनैतिक सत्ता हथियाने वाले चौथी उत्तराधिकारी पीढ़ी के थे. बिलावल भुट्टो ज़रदारी अपने दादा और अपनी माँ की हत्या के बाद सन् 2007 में उत्तराधिकारी के रूप में पाकिस्तान की पीपुल्स पार्टी के सह-अध्यक्ष बने.भारत में राहुल गाँधी आनुवंशिक राजनीति के सबसे प्रमुख युवा वंशज हैं, लेकिन इस परंपरा को बीजू जनता दल,राष्ट्रीय लोकदल,समाजवादी पार्टी और राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी में भी दोहराया गया.
भाजपा अपने प्रमुख विरोधी दल की तुलना में अपेक्षाकृत कम आनुवंशिक और गुणवत्ता पर आधारित पार्टी के रूप में लोगों के सामने अपने-आपको पेश करने में अधिक स्मार्ट सिद्ध हुई है. नरेंद्र मोदी अपने भाषणों में राहुल गाँधी को “शाहज़ादा” कहकर संबोधित करते हैं. ऐसा लगता है कि इस साल होने वाले आम चुनाव में और भी नये कनिष्ठ वंशज सामने आएँगे.इनमें सबसे अधिक प्रमुख नाम है,भाजपा के अध्यक्ष राजनाथ सिंह के सुपुत्र पंकज सिंह का, जिसके कारण चुनावी दृष्टि से सबसे बड़े और सबसे महत्वपूर्ण उत्तर प्रदेश राज्य के कहीं अधिक योग्य और अनेक वरिष्ठ सहयोगी नाराज़ भी हो गये हैं.
कभी-कभी ऐसा लगता है कि इक्कीसवीं सदी में शक्तिशाली और उच्च पदस्थ लोग भी कई क्षेत्रों में उक्त परंपरा को आनुवंशिक रूप में फिर से दोहरा रहे हैं. बेयॉन्स और जे ज़े, या कान्ये वैस्ट और किम कर्दाशियन के बच्चे भी अपने ढंग से मिनी-सैलिब्रिटी हो गये हैं. उत्तर कोरिया का नर-हत्यारा किम जॉङ – उन, चीन के युवा “राजकुमार”, सीरिया के बशर-अल-असद या थाईलैंड की यिंगलक शिनवत्रा पारिवारिक परंपरा को ही सफलतापूर्वक आगे बढ़ा रहे हैं. ब्रिटेन के भावी शासनाध्यक्ष प्रिंस जॉर्ज मीडिया में बहुत चर्चित हैं.
भारतीय राजनीति में जब भाई-भतीजावाद का सवाल सामने आता है तो बहुत भयावह आँकड़े सामने आते हैं, लेकिन इससे बड़ी तस्वीर तो और भी जटिल हो सकती है. इस समय की सच्चाई क्या है? वास्तविक सत्ता किसके पास है उनके पास जो अपनी नियति या गुणवत्ता से आगे बढ़े हैं या वंशवाद से आगे आने वाले लोगों के पास? क्या प्रमुख मम्मी-डैडी सांसद भावी सुल्तान हैं या फिर वे उन तुर्की युवा सैनिकों अर्थात् जैनिसरियों के समान हैं जो असली शासकों को आगे बढ़ाने में मदद कर रहे हैं?
भारत के बारह सर्वाधिक प्रमुख राजनीतिज्ञों की सूची बनाना मुश्किल काम है.आप जिनका भी नाम लेंगे दूसरे लोग उससे असहमत हो सकते हैं और वैकल्पिक नाम सुझा देंगे. इसके पीछे तर्क यह होगा कि बल्लेबाजी का क्रम सबके अपने विवेक और भारतीय राजनीति के दबावों पर निर्भर करेगा. सन् 2014 के अंत तक इसकी रैंकिंग निरर्थक हो जाएगी, फिर भी दर्जन-भर नेताओं की मेरी सूची इस प्रकार हैः
अहमद पटेल
अरविंद केजरीवाल
जयललिता
ममता बनर्जी
मनमोहन सिंह
मायावती
मुलायम सिंह यादव
नरेंद्र मोदी
नीतीश कुमार
राहुल गाँधी
शरद पवार
सोनिया गाँधी
इस सूची की व्याख्या और क्रम-विभाजन कई तरह से किया जा सकता है. इनमें से आधे लोग क्षेत्रीय क्षत्रप हैं, एक-तिहाई महिलाएँ हैं और सिर्फ़ दो लोग ऐसे हैं जिनकी आयु पचास से कम है. लेकिन सबसे अधिक खास बात है इन भागीदारों की पारिवारिक पृष्ठभूमि. इनमें से केवल राहुल गाँधी हैं जो अपने जन्म के साथ ही आर्थिक और राजनैतिक दोनों ही दृष्टियों से शिखर पर रहे हैं, लेकिन भारत के आनुवांशिक दृष्टि से अन्य समृद्ध सांसदों के ठीक विपरीत भयानक त्रासदी के कारण उनके जीवन पर भी ग्रहण लग गया. उनकी दादी और पिता दोनों ही आतंकवाद के शिकार हो गये. यद्यपि उनकी माँ सोनिया गाँधी ने राजनीति में पारिवारिक संबंधों के कारण ही प्रवेश किया था, लेकिन उनका अपना पालन-पोषण किसी समृद्ध परिवार में नहीं हुआ था और सत्ता के शिखर तक उनका सफ़र ऐसा नहीं था जिसका अनुकरण किया जा सके.
इस सूची के अन्य दस खिलाड़ियों में से पाँच या छह खिलाड़ियों का पालन-पोषण सुविधाओं के बीच हुआ था और शेष खिलाड़ी औसत मध्यम श्रेणी के परिवार से थे.सभी खिलाड़ी अपने बल-बूते पर ही आगे बढ़े हैं और किसी में भी आत्मतुष्टि का ऐसा भाव नहीं था जो अधिकांश वंशजों में दिखायी पड़ता है और जिसके कारण मतदाता उन्हें पसंद नहीं करते. यद्यपि आनुवंशिकता का धब्बा भारतीय लोकतंत्र के लिए सामान्य सी बात हो गयी है, लेकिन राष्ट्रीय नेतृत्व के शिखर पर सफलता से पहुँचने का यह कोई मंत्र नहीं है.
मतदाताओं की अनिश्चितता के कारण इनमें से कई लोगों की अपने माँ-बाप की पीढ़ी की तुलना में पार्टियों के प्रति निष्ठा कम होने लगी है. ऐसा लगता है कि भावी राजनैतिक दंगल में अपने बल-बूते पर आगे बढ़ने वाले नये और आधुनिक चेहरे सामने आएँगे, जिसकी हम अभी कल्पना भी नहीं कर सकते.एक ही पीढ़ी में यह सोचने का कोई कारण नहीं है कि भारतीय मतदाताऊँचे तबके के ऐसे लोगों से खुश हो जाएगा जिनमें अपने सरोकार के अलावा कुछ और सोचने की क्षमता ही नहीं है. इसका यह अर्थ नहीं है कि भारत में परिवार की राजनीति का अंत होने जा रहा है या फिर विशिष्ट वर्ग के लोगों को टिकट नहीं मिलेंगे. इसका मतलब सिर्फ़ यही है कि आनुवंशिक सांसद राजनैतिक दलों के सामान्य कार्यकर्ता बन सकते हैं. निश्चय ही उनका महत्व और रुतबा भी कायम रहेगा, लेकिन वे ऐतिहासिक सत्ता के शिखर तक नहीं पहुँच पाएँगे.
पैट्रिक फ्रैंच" इंडियाः ए पोर्ट्रेट"के लेखक हैं. वे कैसी के साथ मिलकर इस वर्ष गठित होने वाली नयी लोक सभा के आम चुनाव में आनुवंशिक राजनीति के सर्वेक्षण में समन्वय का काम करेंगे.
हिंदी अनुवादः विजय कुमार मल्होत्रा, पूर्व निदेशक (राजभाषा), रेल मंत्रालय, भारत सरकार <malhotravk@hotmail.com>