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कुशल कार्यान्वयन से अधिक कल्याणवाद कारगर रहता है

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13/02/2023
शिखर सिंह

पिछले एक दशक में वितरण व्यवस्था को अधिक कारगर बनाने के लिए भारत में अनेक कल्याणकारी कार्यक्रम शुरू किये गए थे. इसका यही मतलब है कि राजनेता लीकेज, विवेकाधिकार और पक्षपात को कम करने वाले टैक्नोलॉजी से जुड़े समाधानों का उपयोग करके अंतिम छोर तक वितरण-व्यवस्था में सुधार लाना चाहते हैं. The Economist द्वारा किये गए एक अनुमान के अनुसार “हाई-टैक कल्याणकारी सुरक्षा-नैट” में लगभग 300 योजनाएँ आती हैं, जिनसे 950 मिलियन लोग लाभान्वित हुए हैं. इन लाभार्थियों में अधिकांश लाभार्थी गरीब तबके के थे और इन योजनाओं पर सकल घरेलू उत्पाद (GDP) का 3 प्रतिशत सरकार द्वारा खर्च किया गया है. राजनीतिक प्रेक्षकों का मानना है कि “नये कल्याणवाद” में नियमों का महत्व अधिक रहता है. इसके अंतर्गत दी जाने वाली राशि ‘आधार’ द्वारा पहचान सत्यापित होने और मोबाइल से प्रमाणित होने पर सीधे जनधन खातों में जमा हो जाती है. इसी के कारण सत्ताधारी पार्टी को राजनीतिक समर्थन भी मिलता है और उनके पक्ष में मतदान भी होता है.

लेकिन क्या कुशल कल्याणवाद से राजनीतिक लाभ मिलता है,जैसा कि कई लोग मानते हैं?  कल्याणकारी कार्यक्रमों का प्रभाव दो परस्पर संबद्ध सवालों पर निर्भर करता है: क्या मतदाता राजनेताओं को इसके लिए पुरस्कृत करते हैं? और क्या मतदाता प्रक्रिया का ख्याल रखते हैं, आखिर ये लाभ उन्हें कैसे प्रदान किये जाते हैं? दूसरे शब्दों में, क्या मतदाता भ्रष्टाचार और पक्षपात में कमी लाने के कारण कुशल कार्यान्वयन को महत्व देते हैं ?

शासन में सुधार आने से अक्सर विवेकाधिकार का प्रयोग कम होता है और पक्षपात में कमी आती है और इसके कारण चोरी या भ्रष्टाचार भी कम होता है. इस तरह के प्रयासों के कारण ही लोग भ्रष्टाचार के प्रति सार्वजनिक तिरस्कार की भावना रखते हैं. फिर भी, हमारे अपने अनुभव से पता चलता है कि परिवार, रिश्तेदारों, या सहजातीय लोगों से पक्षपात की भारी उम्मीदें तो रहती ही हैं और कभी-कभी सरकार से चोरी भी होती है. इसका विनोदी चित्रण कटियाबाज़ जैसी फ़िल्मों में किया गया है. यह प्रवृत्ति तो निश्चय ही हमारी जाति आधारित राजनीति से जुड़ी है. अपने दो साल के फील्डवर्क में मैंने देखा है कि पत्रकार, राजनेता और आम मतदाता अक्सर यह उम्मीद करते हैं  "हमारा है, हमारे लिए करेगा" (वह हममें से एक है और हमारे लिए कुछ करेगा या करेगी). एक राजनेता ने इसे संक्षेप में कहा, "जाति स्वार्थ से जुड़ी है".

तो फिर, जातीय, राजनीतिक या भौगोलिक संदर्भों में कुशल कार्यान्वयन और पक्षपात के बीच अदला-बदली में मतदाता की स्थिति क्या है? अपने शोधकार्य संबंधी साक्ष्य के आधार पर मेरा यही आकलन है कि जहाँ एक ओर भारत का मतदाता अच्छे काम को पुरस्कृत करता है, वहीं कुशल कार्यान्वयन की तुलना में उसका ध्यान परिणाम पर अधिक रहता है. मतदाता कुशलता को कम महत्व देता है. हमारे अखबारों में दिखाई देने वाली तस्वीर से अलग मतदाता का ध्यान शासन के सुधारों (खास तौर पर बेहतर कार्यान्वयन) पर कम ही रहता है.

वितरण नीति से जुड़े प्रयोग
इन सवालों का जवाब पाने के लिए, मैंने (1,047 मतदाताओं पर आधारित) एक ऑनलाइन सर्वेक्षण किया था और साथ ही CVoter इंडिया द्वारा राष्ट्रीय स्तर पर प्रतिनिधित्व के लिए 12 अलग-अलग भाषाओं में (5,350 मतदाताओं पर आधारित) टेलीफोन सर्वेक्षण भी किया था.

प्रत्येक सर्वेक्षण में, मतदाताओं को यादृच्छिक रूप से यह जानकारी पढ़ने के लिए कहा गया थाः मौजूदा सरकार से संबंधित नकारात्मक कार्य-परिणामों की जानकारी, उनके कल्याणकारी कार्यक्रमों में से किसी एक कल्याणकारी कार्यक्रम की सकारात्मक जानकारी, या भ्रष्टाचार को कम करने के लिए सरकार द्वारा किए गए उपायों पर ज़ोर देने वाले किसी कल्याणकारी कार्यक्रम से संबंधित सकारात्मक जानकारी.

लंबे समय से चलने वाली बेरोज़गारी, ईंधन की कीमतों में वृद्धि और आमदनी में बढ़ती असमानता जैसे नकारात्मक हालात बताते हुए इस बात पर ज़ोर दिया गया था कि “भारत की अर्थव्यवस्था ठीक नहीं चल रही है”. सकारात्मक हालात बताते हुए कहा गया था कि कल्याणकारी योजनाओं (जैसे उज्ज्वला या प्रधानमंत्री आवास योजना) से बहुत लोग लाभान्वित हुए हैं. कुशलता की स्थिति के अंतर्गत सरकार द्वारा उठाये गए विशेष कदमों का उल्लेख दिया गया था, जैसे फर्जी दावों में कमी लाने के लिए (बायोमेट्रिक प्रमाणीकरण), भ्रष्टाचार और विवेकाधिकार खत्म करने के लिए (बैंक खातों में प्रत्यक्ष लाभ अंतरण, संपत्ति की जियोटैगिंग, आदि).

इस तरह के उपायों से यही पता चलता है कि यदि शोधकर्ता यादृच्छिक रूप में लोगों को जानकारी के विभिन्न अंशों को पढ़ने या सुनने के लिए कहता/ कहती है, तो सर्वेक्षण में भाग लेने वाले लोगों के समूह औसतन समान होते हैं, केवल अंतर यही होता है कि वे किस प्रकार की जानकारी पढ़ते या सुनते हैं. इससे शोधकर्ता अधिक विश्वास के साथ कह सकता है कि उनकी राजनीतिक प्राथमिकताओं में अंतर जानकारी के प्रकार के कारण होता है, न कि कुछ अन्य कारकों के कारण. इस अध्ययन में मैंने दो तरीकों से राजनीतिक प्राथमिकताओं का आकलन किया है: मैंने मतदाताओं से मोदी सरकार के प्रदर्शन को 0 से 10 के पैमाने पर रेट करने के लिए कहा (उच्चतर मूल्य अधिक अनुकूल मूल्यांकन का संकेत देते हैं) और काल्पनिक रूप से अपने राज्य की (जहाँ लोग उनमें से किसी को कुछ भी "दान" करने का विकल्प नहीं चुन सकते थे या फिर 10 रुपये को विभाजित करके पार्टियों में बाँट सकते थे) प्रमुख राजनीतिक पार्टियों को 10 रुपये का दान देने के लिए कहा. मेरी दिलचस्पी उस रकम को जानने की थी जो काल्पनिक दृष्टि से भाजपा को "दान" की गई थी.

मतदाता कुशल कार्यान्वयन की तुलना में परिणाम को महत्व देते हैं.
मैंने पाया कि मतदाता सकारात्मक नतीजों से जुड़ी जानकारी को अधिक महत्व देते हैं, खास तौर पर, लंबे समय से चली आ रही बेरोजगारी, बढ़ती असमानता और ईंधन की कीमतों में आई बढ़ोतरी के बारे में गंभीरता से सोचकर मतदाताओं ने औसतन मोदी सरकार के प्रदर्शन को 10 में से 6 अंक दिये. कल्याणकारी कार्यक्रमों के बारे में बताए जाने के बाद उन्होंने सरकार का अधिक अनुकूलता से मूल्यांकन किया (10 में से 7 से कुछ अधिक); सरकार की रेटिंग में पूरे पैमाने पर मोटे तौर पर 1.14 अंकों या लगभग 11 प्रतिशत अंकों का सुधार हुआ. जहाँ तक मतदाताओं द्वारा दिये गए दान का संबंध है, मतदाताओं ने नकारात्मक जानकारी को देखते हुए भी भाजपा को औसतन 10 रुपये में से 3.9 रुपये दिये. कल्याणकारी कार्यक्रमों की जानकारी मिलने पर उन्होंने 28 पैसे (0.28 रुपये) अधिक दिये. यह उपलब्ध बजट का लगभग 2.8 प्रतिशत है.

इन परिणामों से क्या निष्कर्ष निकलता है? पहला निष्कर्ष तो यही है कि खराब मैक्रोइकॉनॉमिक प्रदर्शन पर ध्यान दिलाने पर भी लगता है कि मतदाता भाजपा के प्रदर्शन का अनुकूल मूल्यांकन ही करते हैं. इससे कुछ हद तक कार्य-परिणामों के आधार पर मतदाताओं को गई अपील की सीमाओं का पता चलता हैः वे काम तो करते हैं लेकिन पार्टी को लाभ पहुँचाने वाला यह एकमात्र मुद्दा नहीं हो सकता : दूसरा निष्कर्ष यह है कि सर्वेक्षण में वर्णित रवैया भाजपा के लिए समर्थन को बढ़ा-चढ़ा कर दिखा सकता है, लेकिन व्यवहार संबंधी उपाय अधिक सटीक तस्वीर देते हैं. 

                                            कार्य-निष्पादन का मूल्यांकन                                                  भाजपा को दान

नकारात्मक        सकारात्मक        सकारात्मक+कुशलता       नकारात्मक        सकारात्मक       सकारात्मक+कुशलता

अगर हम कुशल कार्यान्वयन की बात करें तो क्या मतदाता इस बात की परवाह करते हैं कि वे  किस तरह से लाभान्वित होते हैं? यह जानकारी पाने के लिए मैंने भ्रष्टाचार और विवेकाधिकार में कमी लाने के लिए सरकार द्वारा उठाये गए कदमों का उल्लेख करने वाली अतिरिक्त जानकारी के प्रभावों की भी तुलना की है. इस अतिरिक्त जानकारी से क्या होगा? बहुत कुछ तो नहीं. सरकार के कार्य-निष्पादन के मूल्यांकन में 0.19 की या पूरे पैमाने पर मात्र 2 प्रतिशत बिंदुओं की वृद्धि हुई. सत्ताधारी पार्टी को दिये गए दान में 29 पैसे या उपलब्ध बजट के लगभग 3 प्रतिशत बिंदुओं की वृद्धि हुई. 

कुल मिलाकर कल्याणकारी योजनाओं से स्पष्ट राजनीतिक लाभ मिलता है, लेकिन "कुशलतापूर्वक" काम करने से कम से कम प्रत्यक्षदर्शियों को मामूली प्रीमियम तो मिलता ही है. एक अलग शोधकार्य में मैंने बताया है कि यह स्थिति वस्तुतः प्रधानमंत्री आवास योजना के लाभार्थियों की है.

निहितार्थ
इस विश्लेषण का नतीजा यह है कि अगर मतदाता बहुत हद तक प्रक्रिया (अर्थात् लोगों को लाभ कैसे पहुँचाया जाता है) को महत्व देते हैं तो अधिकांश शासनिक सुधारों का मकसद लीकेज, विवेकाधिकार और पक्षपात को कम करना ही रहेगा. यही कारण है कि ये सुधार राजनीतिक तौर पर कारगर सिद्ध होते हैं. मौजूदा दौर में, भ्रष्टाचार पर सार्वजनिक भाषणबाजी उच्च प्रोफ़ाइल मामलों तक ही सीमित रहती है और उनका ध्यान भ्रष्टाचार या भाई-भतीजावाद में लिप्त प्रभावशाली लोगों को उदाहरण बनाने पर केंद्रित रहता है. इसलिए आवश्यकता इस बात की है कि इस भाषणबाजी को अधिक गंभीर बनाया जाए. नीति निर्माण और अंतिम छोर तक वितरण पर ध्यान केंद्रित करने वाले दाताओं और विशेषज्ञों को चाहिए कि वे गुणात्मक रूप से इस बात का आकलन करें कि नागरिक, दक्षता बढ़ाने वाले उपायों के बारे में क्या सोचते हैं और क्या वे इनमें कोई सार्थकता भी पाते हैं. आवश्यकता इस बात की है कि सार्वजनिक सूचनाओं और जन-जागरण के अभियानों में पक्षपात और भ्रष्टाचार के दुष्प्रभावों को अधिक स्पष्टता से उजागर किया जाए और कुशल कार्यान्वयन से होने वाले लाभ से जुड़े महत्वपूर्ण बिंदुओं को इंगित किया जाए. यह ज़रूरी है कि कुशलता संबंधी प्रकरण को अनुमान के आधार पर नहीं, वास्तविकता के आधार पर तैयार किया जाए. जब तक मतदाताओं का दबाव नहीं पड़ेगा तब तक शासन में सुधार लाने के लिए राजनीतिक प्रोत्साहन और शासनिक सुधार भी कारगर नहीं होंगे.

शिखर सिंह CASI में पोस्ट डॉक्टरल रिसर्च फ़ैलो हैं. उनका ट्वीट है@shikhar_46.

 

हिंदी अनुवादः डॉ. विजय कुमार मल्होत्रा, पूर्व निदेशक (हिंदी), रेल मंत्रालय, भारत सरकार

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