मई 2021 में द्रविड़ मुन्नेत्र कड़गम के नेतृत्व में सत्ता में आने के बाद मौजूदा तमिलनाडु सरकार ने जो आरंभिक कदम उठाये,उनमें से एक था, सरकारी पत्राचार में से "केंद्र सरकार" के शब्द को हटाना. भारत सरकार को संघ सरकार (ओन्ड्रिया अरासु) के बजाय केंद्र सरकार (मथिया अरासु) के रूप में संबोधित करने के तमिलनाडु के निर्णय का स्पष्ट उद्देश्य भारतीय परिसंघवाद के बढ़ते प्रयोग को रोकना था. एक लेखक और तमिल भाषाकर्मी आजी सेंथिलनाथन ने इस पर टिप्पणी करते हुए कहा है कि नाम में यह परिवर्तन परिसंघीय ढाँचे और राज्य की स्वायत्तता पर मँडराते हुए खतरे के कारण ज़रूरी था.
निर्विवाद रूप में परिसंघवाद बहुत हद तक तीस और चालीस के दशक की तरह भारतीय राजनीति की मूल अवधारणा बन गया है. अवधारणाएँ मात्र शब्द नहीं होतीं. शब्दों से अवधारणा को अलग करने वाला एक महत्वपूर्ण लक्षण है उसकी संदिग्धता. रेनहार्ट कोसेलेक के अनुसार, बुनियादी अवधारणाएँ "किसी निर्धारित समय के सबसे ज़रूरी मुद्दों के किसी भी सूत्रीकरण के लिए अपरिहार्य हैं." साथ ही वे "अत्यधिक जटिल, हमेशा अपरिहार्य, संदिग्ध, विवादास्पद और विवादग्रस्त भी होती हैं. आज परिसंघवाद हमारी राजनीतिक भाषा और विमर्श को इस तरह आकार देता है कि परिसंघवाद का अर्थ केंद्र और इकाइयों के बीच सत्ता संघर्ष के केंद्र में रहता है, जो एकात्मक लक्षणों की अभूतपूर्व वृद्धि का विरोध करता है और इससे भी महत्वपूर्ण बात यह है कि इसके माध्यम से एक ऐसी राजनीतिक भाषा की पटकथा लिखी जाती है जो भारत के राज्यों को सम्मान देने वाली संघीय परंपरा को पुनर्जीवित करती है.
तमिलनाडु द्वारा किये जा रहे शब्दार्थ के प्रतिरोध के इस कदम को परिसंघवाद की एक राजनीतिक भाषा की बहाली करने की एक ऐसी बड़ी परियोजना के रूप में देखा जाना चाहिए, जिससे भारत के राज्यों के अधिकारों की रक्षा की जा सके. फिर भी इस वाद-विवाद की शर्तें आपकी सोच से भी कहीं अधिक जटिल हैं. आज आज परिसंघवाद हमारी राजनीतिक भाषा और विमर्श को इस तरह से आकार देता है कि परिसंघवाद का अर्थ केंद्र और इकाइयों के बीच सत्ता संघर्ष के केंद्र में आ जाता है और ऐकांतिक लक्षणों की अभूतपूर्व वृद्धि का विरोध करता है और सबसे अधिक महत्वपूर्ण बात तो यह है कि यह एक ऐसी राजनीतिक भाषा की पटकथा लिखने लगता है जो भारतीय राज्यों की स्वायत्तता को स्मरण रखने वाली और परिसंघीय परंपरा की बहाली के लिए प्रयास करता है. तमिलनाडु के शब्दार्थ प्रतिरोध के कार्य को भारतीय राज्यों के अधिकारों की रक्षा करने वाली परिसंघवाद की राजनीतिक भाषा की बहाली की एक बड़ी परियोजना के रूप में देखा जाना चाहिए. फिर भी इस विचार-विमर्श की शर्तें आपकी सोच से भी अधिक जटिल हैं. परिसंघवाद सरकार या केंद्र सरकार के बीच का अंतर बहुत ऐतिहासिक है और इस पर तीस और चालीस के दशकों में व्यापक चर्चा की गई थी. सन् 1950 में भारत को परिसंघवाद के विरुद्ध “संघ” बनाने की प्रक्रिया के कारण ही संघ और केंद्र के बीच का अंतर कम परिणामकारी है. परिसंघवाद के विरुद्ध संघ की स्थापना इस विश्वास के आधार पर की गई थी कि घटक राज्यों की कोई मौलिक प्रभुसत्ता नहीं होती.
केंद्र सरकार का इतिहास
साम्राज्यवादी सरकार और भारतीय नेता अक्सर “केंद्र” और “केंद्र सरकार” शब्दों का प्रयोग करते रहे हैं. 1919 के गवर्नमेंट ऑफ़ इंडिया ऐक्ट में स्थानीय सरकार एवं स्थानीय विधायिका से केंद्रीय विधायिका एवं केंद्र सरकार के अंतर को स्पष्ट किया गया है. भारत में जब तक ब्रिटिश शासन रहा तो केंद्र सरकार का मतलब गवर्नर जनरल इन काउंसिल ही रहा और प्रांतीय या स्थानीय सरकार का मतलब गवर्नर्स-इन-काउंसिल रहा. यह उल्लेखनीय है कि आज हर हाल में “स्थानीय” का मतलब राज्य सरकार नहीं, बल्कि नगरपालिका या पंचायत सरकार ही होता है. औपनिवेशिक भारत में "केंद्र", भारत की ब्रिटिश सरकार की सीट को दर्शाता था. ब्रिटिश भारतीय राष्ट्र केंद्रीकृत नियंत्रण के साथ-साथ एक आत्यंतिक एकात्मक राष्ट्र था, और इस प्रकार, केंद्र और केंद्र सरकार साम्राज्यवादी संवैधानिकता में महत्वपूर्ण श्रेणियाँ थीं. भारत के राष्ट्रवादी भी संवैधानिक भाषा में ही संवाद करते थे. इस भाषा में औपनिवेशिक शासन के अर्थ को स्वीकार किया गया है. भारतीय संविधान की पहली प्रमुख राष्ट्रवादी अभिव्यक्ति नेहरू रिपोर्ट (1928) में उदारता से "केंद्र सरकार" शब्द का उपयोग किया गया है. इस रिपोर्ट के लेखक तो केंद्र सरकार के लिए असाधारण शक्तियों की भी माँग करते रहे हैं. इन माँगों में प्रांतीय सरकारों के अधिनियमों को रद्द करना भी शामिल था, क्योंकि "कोई भी केंद्र सरकार उन शक्तियों के बिना नहीं चल सकती."
बीस के दशक के उत्तरार्ध में इस तथ्य को व्यापक तौर पर स्वीकार कर लिया गया था कि भारत का भावी संविधान परिसंघीय ही होगा. साइमन कमीशन (1927-29) की नियुक्ति भारत के भावी संविधान के लिए सिद्धांतों की अनुशंसा करने के लिए की गई थी. उनकी रिपोर्ट में ब्रिटिश भारत और देशी रियासतों दोनों को मिलाकर फ़ैडरेशन ऑफ़ इंडिया बनाने की बात की गई थी. अब अगला मुख्य कार्य तो एकात्मक औपनिवेशिक राज्य को संघीय राज्य में बदलना था. इसप्रकार केंद्र के विरुद्ध “परिसंघ” कही जाने वाली नई संवैधानिक श्रेणी भारतीय राजनीति के उत्तर अधिनायकवादी कालखंड में हावी होने लगी. 1930 के दशक में परिसंघ की अधिकांश योजनाओं में, केंद्रीय और परिसंघीय के बीच का सतर्क अंतर देखा जा सकता है. जब ब्रिटिश प्रांतों से संबंधित सामान्य मामलों से निपटना होता था तो केंद्र के प्रजाजन / केंद्र सरकार उसे भारत सरकार को संदर्भित करती थी. प्रांतों और रियासतों दोनों से ही संबंधित मामलों को परिसंघ के प्रजाजन / परिसंघ सरकार अखिल भारतीय स्तर के मामले के रूप में संदर्भित करती थी.
इसी अर्थ में हैदराबाद के प्रधानमंत्री अकबर हैदरी ने अक्तूबर 1930 में लंदन में होने वाले गोलमेज़ सम्मेलन से कुछ पहले अपनी “फ़ैडरल स्कीम ऑफ़ इंडिया” को प्रस्तावित किया था. देशी रियासतों का प्रबंधन देखने वाले राजनीतिक विभाग से संबंधित अभिलेखागारों में तीस के दशक से पहले प्रयुक्त होने वाली परिसंघ और केंद्र के अंतर से संबंधित फ़ाइलों को देखा जा सकता है. तीस के दशक में भारत के बदलते संवैधानिक ढाँचे में देशी रियासतें संघीय समूह का हिस्सा थीं, क्योंकि केवल उनके संबंध में ही केंद्र के विपरीत संवैधानिक श्रेणी के रूप में परिसंघ का अस्तित्व हो सकता था.
वेस्टमिंस्टर-प्रकार की संसदीय सरकार का अनुकरण करने की अपनी इच्छा के कारण भारतीय राष्ट्रवादी बेशर्मी के साथ एक शक्तिशाली केंद्र सरकार की पैरवी करने में लग गए थे. यह राष्ट्रवादियों, देशी रियासतों के राजकुमारों और अल्पसंख्यकों के बीच मतभेद का एक महत्वपूर्ण मुद्दा बन गया था. मुस्लिम लीग, अपनी ओर से, लंबे समय से एक शक्तिशाली केंद्र सरकार को संदेह की नज़र से देख रही थी. नेहरू रिपोर्ट की प्रतिक्रिया में एम. ए. जिन्ना द्वारा जारी की गई चौदह सूत्रीय रिपोर्ट में यह माँग की गई थी कि शेष शक्तियाँ केंद्र के बजाय राज्यों में निहित होनी चाहिए. तीस और चालीस के दशक में प्रांतीय स्वायत्तता और सीमित केंद्र विभिन्न मुस्लिम संघीय विचारों की विशेषता बना रहेगा.
संविधान सभा
संविधान सभा में एक मजबूत केंद्र के पक्ष और विपक्ष में तरह-तरह के तर्क दिए गए थे. बी. आर. अम्बेडकर के नेतृत्व वाली मसौदा समिति दृढ़ता के साथ एक मजबूत केंद्र सरकार के पक्ष में खड़ी थी. "केंद्र" और "केंद्र सरकार" जैसे शब्द सभी विचार-विमर्शों में बिखरे हुए हैं, लेकिन 1950 में संविधान की अंतिम प्रति में इन शब्दों का उल्लेख तक नहीं है.
अम्बेडकर ने खास तौर पर बहस के महत्वपूर्ण क्षणों में "केंद्र" का प्रयोग किया था. अनुच्छेद 356 (संविधान के मसौदा अनुच्छेद 278) पर बहस करते हुए, अम्बेडकर ने कहा था कि "प्रांत में अच्छी सरकार है या नहीं यह केंद्र को निर्धारित करना है." इससे उनकी विचार प्रक्रिया का संकेत मिलता है और कुछ मायनों में संविधान सभा में डॉ. लोकनाथ मिश्रा द्वारा की गई टिप्पणी को स्पष्ट कर देता है कि “डॉ. अम्बेडकर ने हर चीज़ को केंद्र में ले लिया है. हज़रत मोहानी और दामोदर स्वरूप सेठ जैसे नेताओं ने केंद्रीकरण और राज्यों की संप्रभुता की कमी का कड़ा विरोध किया था और स्वरूप ने तो चिंताजनक टिप्पणी करते हुए यहाँ तक कह दिया था कि बहुत अधिक केंद्रीकरण से देश "अधिनायकवाद" की ओर चला जाएगा.
संविधान सभा में किया गया विचार-विमर्श हमें यह दर्शाता है कि भले ही भारत को राज्यों का एक संघ बनना था, फिर भी यह किसी भी तरह से उस तरह का संघ नहीं बनने जा रहा था जिसकी वकालत देशी रियासतों और अल्पसंख्यकों द्वारा की गई थी. देशी रियासतों और अल्पसंख्यकों की दृष्टि में, क्षेत्रवाद और प्रांतीय स्वायत्तता की मजबूत भावना से अनुप्राणित केंद्र सरकार को केवल न्यूनतम कार्य ही करने चाहिए थे और अधिकांश विषयों को केंद्र और प्रांतों के बीच विभाजित कर दिया जाना चाहिए था. समवर्ती सूची बहुत छोटी होनी चाहिए थी. इस सूची में केंद्र और राज्यों के समवर्ती क्षेत्राधिकार ही होने चाहिए. तथ्य तो यह है कि तीस या चालीस के दशक में किसी ने यह नहीं सोचा था कि अंततः भारत के संविधान में समवर्ती सूची इतनी बड़ी हो जाएगी और इससे राष्ट्रवादी सोच के बढ़ते प्रभुत्व का पता चल जाता है और इसी के कारण स्वतंत्र भारत में औपनिवेशिक राज्य की एकात्मक संरचना को पुन: उत्पन्न करने की माँग उठने लगी है. 2 सितंबर, 1949 को संविधान सभा में अम्बेडकर और जवाहरलाल नेहरू के खिलाफ़ हज़रत मोहानी ने ठीक यही आरोप लगाया था कि केंद्रीय शक्तियों को बढ़ाकर, उन्होंने "पुराने ब्रिटिश एकात्मक भारतीय साम्राज्य" की तरह एक "एकात्मक भारतीय साम्राज्य" खड़ा कर दिया है.”
ऐतिहासिक स्मृति और भाषा की सांत्वना
इतिहास के माध्यम से यह गोलचक्कर हमें दर्शाता है कि संघ सरकार और केंद्र सरकार दोनों ही भारत सरकार को संबोधित करने के लिए उपयुक्त शब्द हैं. भारत के बाहर भारत सरकार ही एकमात्र मान्यता प्राप्त कानूनी और संवैधानिक इकाई है; केंद्र या संघ सरकार केवल घरेलू महत्व का ही मामला है. उत्तर औपनिवेशिक भारतीय राष्ट्र के निर्माण में भारतीय राष्ट्रवादी विचार के इतिहास और इसकी मूलभूत भूमिका को दोनों पदबंधों के माध्यम से अनुक्रमित किया गया है.
भले ही "केंद्र सरकार" का यह शब्द लिखित संविधान में शामिल नहीं है, फिर भी यह हमें इस तथ्य की ओर संकेत करता है कि संविधान का पाठ उस राजनीतिक भाषा की संतोषजनक प्रयुक्ति नहीं है जिसमें इसके लेखन से पहले इसकी मूल संकल्पना और विचार-विमर्श को शामिल किया गया था.
“यह मानकर कि हम एक ही भाषा बोलते हैं, हम सचमुच ही इस देश को संगठित करने जा रहे हैं.”
ओ. वी. विजयन द्वारा बिना तारीख का कार्टून
राम सुंदर और नैन्सी हड्सन-रॉड (संस्करण) से उद्धृत, दुःखद लोकोक्तिः ओ.वी.विजयन के भारत संबंधी कार्टून और टिप्पणियाँ (कोट्टायमःडी.सी. बुक्स 2006)
तमिलनाडु की हठधर्मिता हमें राजनीतिक भाषा की एक नई दुनिया में ले जाती है. हारी हुई लड़ाइयों और वैकल्पिक राजनीतिक वक्ररेखाओं को याद करना ज़्यादातर उन अवधारणाओं और मुहावरों पर निर्भर करता है जो हमारी रोज़मर्रा की भाषा में कहीं दूर दिखाई देते हैं. सच तो यह है कि कई भारतीय भाषाओं में, "संघ" और "केंद्र" के बीच के अंतर को बनाए रखना कठिन हो सकता है. इससे हमें परिसंघ के विपरीत संघ और केंद्र की सम्मिलित स्थिति का पता चलता है. अधिकांश भाषाओं में राजनीतिक और कानूनी विचारों की एक अलग श्रेणी होती है. संघ अपने निर्माण काल से ही केंद्र की धुरी से बँधा हुआ था, और यह शायद उन शब्दों की कमी को बयान करता है जो राजनीतिक शब्दावली और विमर्श में संघ और केंद्र के बीच सार्थक अंतर कर सकते हैं. उदाहरण के लिए, मलयालम में, परिसंघ या परिसंघीय सरकार (संयुक्ताबरनम) और एकात्मक सरकार (ऐक्यबरनम) का अर्थ अलग-अलग होता है, हालाँकि केंद्र और संघ के बीच का अंतर बहुत सूक्ष्म है. Center का अर्थ है केंद्रम् और union का अर्थ है ऐक्यम् / एकता. लेकिन मलयालम में केंद्रशासित क्षेत्र और संघशासित क्षेत्र में अंतर करने के लिए कोई शब्द नहीं है. (बहुत हद तक हिंदी के समान) दोनों का अर्थ है, केंद्र बरण प्रदेशम. तमिलनाडु के कदम का विरोध करने वालों का आरोप है कि ओंद्रिया अरासु का मतलब वास्तव में केंद्र सरकार नहीं है, बल्कि एक उप-जिला या निचले स्तर का ढाँचा है. यह शायद हमें उन भाषाओं में, जिनमें ऐसी उचित अवधारणाओं का अभाव है, संघीय अवधारणाओं की बहाली को चुनौती देने का संकेत करता है, फिर भी ये अवधारणाएँ आज भारत में दावा करने के लिए आवश्यक हैं.
भारत को एक परिसंघ कहना, या भारत सरकार को केंद्र सरकार के रूप में संदर्भित करना, पाठ के बाहर के रूप में देखा जा सकता है, क्योंकि संविधान में न तो महासंघ / परिसंघीय और न ही केंद्रीय उपस्थिति का उल्लेख है. फिर भी, संघ एक सुई जेनरिस भाषाई और राजनीतिक श्रेणी है जो अधिकांश भारतीय भाषाओं में मौजूद है. एक ओर सत्तारूढ़ और विपक्षी दल समान रूप से इस शब्द पर संवैधानिक चुप्पी की परवाह किए बिना भारत को एक महासंघ के रूप में देखना पसंद करते हैं, वहीं सभी संबंधित पार्टियों के लिए यह बहुत मायने नहीं रखता है कि तमिलनाडु एक ऐसे शब्द का उपयोग करना चाहता है जो उपयुक्त रूप में संवैधानिक है.
तमिलनाडु का रुख हमें परिसंघवाद की एक भाषा को बहाल करने की तात्कालिक आवश्यकता से अवगत कराता है, जिसे संघ और केंद्र के बीच अंतर करना चाहिए, यहाँ तक कि हम जो भाषाएँ बोलते हैं, वे हमें स्पष्ट रूप से उस तरह का अलगाव प्रदान नहीं करती हैं. भारत की स्थापना के समय केंद्रीय और परिसंघीय और संघ और केंद्र की संयुक्त स्थिति के बीच अलगाव का जटिल इतिहास भारत में बढ़ते केंद्रीकरण का विरोध करने में इस तरह के कार्य को सार्थक बनाता है.
शरत पिल्लै CASI में पोस्ट़डॉक्टरल रिसर्च फ़ैलो हैं. उनकी पहली पुस्तक project में उत्तर साम्राज्यवादी भारत में परिसंघवाद के विचारों के उदय और पतन की जाँच-परख की गई है. उनका ट्वीट है @i_sarathpillai
हिंदी अनुवादः डॉ. विजय कुमार मल्होत्रा, पूर्व निदेशक (हिंदी), रेल मंत्रालय, भारत सरकार
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