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हिंद-प्रशांत क्षेत्र में समावेशी जलवायु नीति की ओर बढ़ते कदम

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29/01/2024
अंबिका विश्वनाथ एवं अदिति मुकुंद

भू-राजनीतिक उतार-चढ़ाव और बढ़ते तनाव के बीच, हिंद-प्रशांत दुनिया के सबसे महत्वपूर्ण आर्थिक और भू-राजनीतिक क्षेत्रों में से एक बना हुआ है. इस साझा स्थल में 40 अर्थव्यवस्थाएँ, दुनिया की 65 प्रतिशत आबादी (लगभग 4.3 बिलियन लोग) और $ 47.19 ट्रिलियन डॉलर की आर्थिक गतिविधियाँ शामिल हैं. इस क्षेत्र में जलवायु परिवर्तन का खतरा मंडरा रहा है, जिससे लाखों लोगों की जान खतरे में पड़ गई है और आशंका इस बात की भी है कि वैश्विक आर्थिक विकास पर इसका भारी असर पड़े. इसके रणनीतिक महत्व और इन संभावित कमजोरियों को पहचानते हुए, दुनिया के कई प्रमुख भू-राजनीतिक खिलाड़ियों ने - चाहे वे उस क्षेत्र में हों या उससे परे - पिछले दशक में हिंद-प्रशांत पर केंद्रित सुरक्षा ब्लूप्रिंट और नीतिगत कार्यक्रम तैयार किया है. जर्मनी, अमेरिका, कनाडा, फ्रांस, दक्षिण कोरिया और बांग्लादेश सहित इनमें से कई अभिनेताओं ने जलवायु सुरक्षा और इसके विभिन्न आयामों को अपनी रणनीतियों में शामिल कर लिया है. लेकिन अगर हिंद-प्रशांत के लोगों की विविध जरूरतों को शामिल नहीं किया गया तो भू-राजनीतिक ढाँचे के भीतर जलवायु चुनौती से निपटने के प्रयासों में कमी रहेगी. कुबेरनेइन इनीशिएटिव के अंतर्गत हमारे शोधकार्य में शहरी विकास के साथ-साथ हिंद-प्रशांत के लोगों के सामने आने वाले अधिक "पारंपरिक" सुरक्षा संबंधी सरोकारों के साथ जलवायु परिवर्तन (मौसम के पैटर्न और अधिक लगातार और तीव्र प्राकृतिक खतरों के संदर्भ में) के अंतःसंबधों के मानवीय प्रभाव पर ध्यान केंद्रित किया गया है. हिंद महासागर के क्षेत्र को "विश्व खतरा बेल्ट" कहा जाता है, जहाँ अक्सर भूकंप और सुनामी आते रहते हैं. ये चुनौतियाँ केवल समुद्र के बढ़ते स्तर, सागर के अम्लीकरण, और टाइफून, चक्रवात, बाढ़, सूखा, लू और बार-बार  होने वाली अन्य प्राकृतिक आपदाओं तक सीमित नहीं हैं. 2050 तक, हिंद-प्रशांत में 80 प्रतिशत से अधिक आबादी जलवायु परिवर्तन से सीधे प्रभावित हो सकती है. 2000 के बाद से यह वृद्धि 15 प्रतिशत की है.

"खतरे के गुणक" के रूप में जलवायु परिवर्तन एक ऐसा शब्द है जिसका उपयोग अब व्यापक रूप से कई अतिव्यापी क्षेत्रों पर व्यापक प्रभावों का वर्णन करने के लिए किया जाता है: लोगों का प्रवास, संसाधनों की कमी, शहरों में बढ़ती आबादी, जन स्वास्थ्य और कल्याण, आजीविका और आर्थिक सुरक्षा, कृषि उत्पादकता और तत्संबंधी आजीविका. उदाहरण के लिए: हिंद-प्रशांत क्षेत्र में विश्व भर में पकड़ी गई कुल मछलियों का 50 प्रतिशत से अधिक उत्पादन होता है. यह उत्पादन किसी भी अन्य क्षेत्र की तुलना में सबसे अधिक है. हालाँकि, समुद्र के गर्म होने, लवणता के बदलते स्तर और समुद्र के स्तर में वृद्धि होने से मछली और जलीय जीवन की उपस्थिति और उपलब्धता प्रभावित होती है, जिससे मछली पकड़ने पर निर्भर समुदायों की आजीविका प्रभावित होती है और अवैध, असूचित और अनियमित (IUU) मछलीपालन की वारदातों में वृद्धि होती है. इस क्षेत्र में मछली पकड़ने की गतिविधि में गिरावट आने से महिलाओं और हाशिए पर रहने वाले ऐसे समूहों पर बड़ा प्रभाव पड़ सकता है जो आम तौर पर आर्थिक रूप से मछली पकड़ने पर निर्भर रहते हैं. उदाहरण के लिए, एशिया में जलीय कृषि उद्योग में लगभग 72 प्रतिशत महिलाएँ हैं, जिनकी आजीविका खतरे में है, जिससे उनकी आर्थिक सुरक्षा और जलीय कृषि उद्योग के विकास में योगदान करने की क्षमता बाधित हो रही है.

जलवायु परिवर्तन की पारदेशीय प्रकृति को पहचानने से यह स्पष्ट हो जाता है कि जलवायु कार्रवाई की अनिवार्यता किसी एक देश से आगे भी फैली रहती है. इसलिए आवश्यकता इस बात की है कि एक ठोस और सहयोगात्मक दृष्टिकोण अपनाया जाए जिसमें कोई विशेष देश नहीं, बल्कि पूरा क्षेत्रीय संगठन और सरकारें भी शामिल हों. क्षेत्रीय "एकपक्षीय " समूह प्रभावी सिद्ध हो रहे हैं. इसमें पारंपरिक रणनीतिक प्रयासों में समावेशिता के विचार भी शामिल हैं, जिसका संदर्भ अधिक न्यायसंगत परिणामों को बढ़ावा देने के लिए हितधारकों के व्यापक दायरे को शामिल करना होता है. उदाहरण के लिए, लिंग और समानता के विचारों को सुरक्षा और बाहरी मामलों सहित सभी नीतियों का एक हिस्सा बनाने का प्रयास आसियान के लैंगिक मेनस्ट्रीमिंग फ्रेमवर्क जैसे प्रावधानों के माध्यम से गति प्राप्त कर रहा है.

जैसा कि यह स्पष्ट हो गया है कि जलवायु परिवर्तन विभिन्न देशों और क्षेत्रीय संगठनों की हिंद-प्रशांत संबंधी रणनीतियों में एक केंद्रीय स्थान रखता है, यह समझने में पर्याप्त अंतर है कि जोखिम कहाँ है और वे किसे प्रभावित करते हैं, जिससे जलवायु सुरक्षा पर सहयोग को आगे बढ़ाने में असफलताएँ मिलती हैं.

इस क्षेत्र में औद्योगिक, विकासशील और सबसे कम विकसित देशों के बीच जलवायु वित्त, हानि और क्षति और उत्सर्जन में कमी के लक्ष्य जैसे मामलों को लेकर मतभेद मौजूद हैं, जिसके कारण प्राथमिकता वाले क्षेत्रों पर आम सहमति नहीं हो पाती. हालाँकि मानव सुरक्षा के मुद्दों को प्राथमिकता दी जाती है, फिर भी ये असमानताएँ बनी रहती हैं. उदाहरण के लिए,इस क्षेत्र में मानवीय सहायता और आपदा राहत (HADR) संबंधी कार्यों के लिए सैन्य क्षमताओं के बढ़ते उपयोग के बावजूद, सैन्य सुरक्षा और प्रतिस्पर्धी भू-राजनीतिक हितों से संबंधित सरोकारों को जलवायु सुरक्षा से जुड़ी चिंताओं से अधिक प्राथमिकता दी जाती है. प्रशांत क्षेत्र में प्रभाव बनाने के लिए चीन और पश्चिम के बीच तनाव ने जलवायु कार्रवाई पर चर्चा करने का अवसर प्रदान किया है, लेकिन अब तक यह भूराजनीतिक हितों को सुरक्षित करने से अधिक प्रेरित है. जलवायु परिवर्तन के प्रभावों को पर्याप्त रूप में परिभाषित नहीं किया गया है, और जब इसे रणनीतियों के मूल्यांकन की समावेशिता की कसौटी पर कसा जाता है, तो उन्हें बहुत लंबा रास्ता तय करना पड़ता है.

समावेशिता की कमी
समावेशिता की मौजूदा कमी दो बड़े रूपों में स्पष्ट दिखाई देती है. पहली कमी के अंतर्गत महिलाओं और कमजोर वर्गों पर जलवायु परिवर्तन के असंगत और विभेदित प्रभाव की अनदेखी होती है. ये कमजोरियाँ सामाजिक-आर्थिक हालात और भौगोलिक हालात तक फैली हुई हैं, जिससे पूरे क्षेत्र में चुनौतियों का एक चक्र तैयार हो गया है. प्रशांत क्षेत्र में छोटे द्वीप वाले विकासशील देशों को समुद्र के बढ़ते स्तर से अस्तित्व के खतरों का सामना करना पड़ रहा है, जबकि दक्षिण पूर्व एशिया में ये समुदाय बार-बार गंभीर तूफानों के आने की समस्या से जूझ रहे हैं. प्रशांत द्वीप समूह या बांग्लादेश वैश्विक स्तर पर ग्रीनहाउस के क्रमशः 0.03 प्रतिशत और 0.4 प्रतिशत के गैस उत्सर्जन के लिए जिम्मेदार हैं, लेकिन उन्हें कई व्यापक प्रभावों के साथ असमान रूप से परिणामों का सामना करना पड़ता है. उदाहरण के लिए, फिजी ने समुद्र के स्तर में वृद्धि और उच्च स्तर की नमक सामग्री के कारण कृषि के लिए अनुपयुक्त मिट्टी के कारण 42 गाँवों के पुनर्वास की योजना बनाई है. बांग्लादेश को आने वाले दशकों में हर साल कम से कम एक सुपर चक्रवात का सामना करना पड़ रहा है.

दूसरी कमी के अंतर्गत जलवायु बहुपक्षवाद में प्रतिनिधित्व न करने वाले हाशिए के स्वर निहित हैं. लिंग-निरपेक्ष या गैर-समावेशी जलवायु संबंधी कार्रवाई एक जोखिम भरा गुणक है. कुछ भौगोलिक क्षेत्रों में, उन समाजों में प्रभाव विशेष रूप से स्पष्ट दिखाई देता है जहाँ महिलाएँ अक्सर कृषि और संसाधन प्रबंधन में केंद्रीय भूमिका निभाती हैं. इसके दस्तावेज़ तो ठीक हैं, लेकिन नीतियों में अक्सर त्वरित बदलाव के कारण इनका उपयोग नहीं किया जाता है. चूँकि जलवायु परिवर्तन इन गतिविधियों को बाधित करता है, यह न केवल महिलाओं की आजीविका को खतरे में डालता है और मौजूदा लैंगिक असमानताओं को बढ़ाता है, बल्कि यह किसी देश की दीर्घकालिक आर्थिक सुरक्षा को भी खतरे में डालता है. 2014 के एक अध्ययन में पाया गया कि जिन समाजों में महिलाओं के सामाजिक-आर्थिक हालात ठीक नहीं हैं,वहाँ प्राकृतिक आपदाएँ पुरुषों की तुलना में प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष रूप से आपदा के बाद की घटनाओं के माध्यम से महिलाओं को अधिक मारती हैं. उदाहरण के लिए 2004 में हिंद महासागर में आए सुनामी से मरने वाले लोगों में लगभग 70 प्रतिशत महिलाएँ थीं. कोई भी ऐसी नीति जिसमें समावेशिता पर विचार नहीं किया जाता , दीर्घकालीन अवधि में विफल रहती है.

आदर्श रूप से, क्षेत्रीय और वैश्विक प्रक्रियाओं की जानकारी हाइपरलोकल सामाजिक-आर्थिक वास्तविकताओं से मिल जानी चाहिए. जलवायु संबंधी कार्रवाई व्यापक नहीं हो सकती है और इसे विशिष्ट आवश्यकताओं के अनुरूप बनाया जाना चाहिए, साथ ही इसे लचीलेपन के इतिहास वाली स्वदेशी और स्थानीय प्रथाओं से भी सीखना चाहिए.

इस प्रकार हिंद-प्रशांत क्षेत्र में बहुपक्षवाद में समावेशिता को बढ़ावा देना एक महत्वपूर्ण आधार बन जाता है, जिसमें संदर्भ-विशिष्ट दृष्टिकोण होते हैं जो प्रकृति में सहयोगी होते हैं और स्थानीय और क्षेत्रीय दृष्टिकोणों का ध्यान रखते हैं.

उदाहरण के तौर पर, ऑस्ट्रेलिया के विदेशी मामले एवं व्यापार विभाग की विकास नीति दुनिया भर के साझेदार देशों में निवेश करते हुए 80 प्रतिशत लैंगिक समानता के लिए प्रतिबद्ध होती है और यह सुनिश्चित करने के लिए भी प्रतिबद्ध होती है कि सभी परियोजनाओं में से कम से कम आधी परियोजनाओं का उद्देश्य जलवायु परिवर्तन होगा. इस तरह के प्रयास महिलाओं की ज़रूरतों के साथ-साथ जलवायु वित्तपोषण के अंतर को पाटने की दिशा में सुई को आगे बढ़ा सकते हैं. यह एक महत्वपूर्ण उद्देश्य है, क्योंकि दुनिया भर की कुल फंडिंग का केवल 0.01 प्रतिशत ही उन परियोजनाओं का समर्थन करता है जो जलवायु परिवर्तन और महिलाओं के अधिकारों दोनों को ही संबोधित करते हैं. सहयोगपरक दृष्टिकोण का एक प्रमुख उदाहरण जलवायु परिवर्तन के लिए लिंग प्रतिक्रिया विकल्प के लिए ऑस्ट्रेलिया का समर्थन है, ऐक्शनएड ऑस्ट्रेलिया, मोनाश विश्वविद्यालय और हुइरोउ आयोग के साथ, एक महिला के नेतृत्व में ज़मीनी स्तर पर चलने वाला सामाजिक आंदोलन ग्रामीण और स्वदेशी समुदायों का समर्थन करता है.

साझेदारी
हिंद-प्रशांत के जटिल भू-राजनीतिक इलाके को नेविगेट करने में, लिंग और समावेशिता के लेंस को लागू करते समय "अनुदेशात्मक" रुख के बजाय "साझेदारी" पर केंद्रित एक प्रतिमान अनिवार्य हो जाता है. हिंद-प्रशांत से संबंधित जलवायु का बहुपक्षवाद स्थानीय जोखिमों और सुरक्षा से अच्छी तरह परिचित स्थानीय हितधारकों के साथ सहकारी साझेदारी बनाकर मूल्यवान् अंतर्दृष्टि प्राप्त कर सकता है. लिंग के लेंस को शामिल करने या हाशिए पर रहने वाले समुदायों के दृष्टिकोण को शामिल करने के लिए बड़े बदलावों की आवश्यकता नहीं है, बल्कि यह सिलोस को तोड़ने और मौजूदा पहलों को एक साथ बढ़ाने का मामला है. यह संरेखण सुनिश्चित करता है जो अंततः आर्थिक रूप से फायदेमंद होगा, और इसके परिणामस्वरूप सुरक्षा का मजबूत लचीलापन प्रदान करता है.

अक्सर इसका एक उदाहरण उद्धृत किया जाता है बेयरफुट कॉलेज का "सोलर मामा प्रोजेक्ट - जो सरकारों, सिविल सोसायटी और निजी क्षेत्र के साथ साझेदारी में स्थापित किया गया है और जो सौर पैनल की स्थापना में बड़े पैमाने पर ग्रामीण और गैर-साक्षर महिलाओं को उनके समुदाय की ज़रूरतों के अनुरूप प्रशिक्षित करता है और उन्हें सक्षम व सशक्त बनाता है. 2019-20 से लेकर अब तक बेयरफुट कॉलेज ने 291 महिलाओं को प्रशिक्षित किया है, जो दुनिया भर के 626 समुदायों में 45,591 घरों में स्वच्छ ऊर्जा का समाधान लाएँगे. यह इन महिलाओं के लिए आमदनी का अवसर भी है, जो उनकी आर्थिक सुरक्षा और सामुदायिक लचीलेपन के निर्माण में योगदान देता है; बेयरफुट कॉलेज के तहत एक अन्य कार्यक्रम के माध्यम से, 1,500 बच्चों को शैक्षिक प्रणाली में लाया गया, जिन्हें अन्यथा अध्ययन करने का अवसर नहीं मिलता.

इसी तरह, भारत ने अंतर्राष्ट्रीय सौर गठबंधन (ISA) और आपदा प्रतिरोधी बुनियादी ढाँचे के लिए निर्मित गठबंधन (CDRI) के माध्यम से वैश्विक जलवायु संबंधी प्रयासों में सहयोग करने और समावेशिता को शामिल करने की माँग की है, जो हिंद-प्रशांत और वैश्विक दक्षिण के देशों के लिए अपनी चिंताओं को मुखर करने के लिए मंच के रूप में काम करते हैं, लोगों तक ऊर्जा पहुँचाने के लिए समन्वय का काम करते हैं, आपदा राहत प्रदान करते हैं और प्राप्त भी करते हैं और साथ ही लचीलापन बढ़ाते हैं. इन्हें ISA और CDRI के अन्य सदस्यों के सहयोग से बनाई गई एक लिंग कार्य योजना को शामिल करके मजबूत किया जा सकता है, जो नीति नियोजन के दौरान लिंग को एक विचार के रूप में लेगी, महिलाओं पर नीतियों के विभेदित प्रभाव को पहचानेगी और निर्णय लेने में महिलाओं को हितधारकों के रूप में शामिल करेगी. 2023 में जी20 के मेजबान के रूप में अपने हालिया कार्यकाल के हिस्से के रूप में, भारत ने एक आपदा न्यूनीकरण कार्य समूह के गठन का नेतृत्व किया, जो पहले से मौजूद सेंडाई फ्रेमवर्क के सिद्धांतों से सीख ले सकता है जो महिलाओं के सामने आने वाली कमजोरियों और आपदा जोखिम में कमी लाने में उनकी व्यापक भूमिका को पहचानता है.

जलवायु परिवर्तन की चुनौतियाँ आम हैं, लेकिन इसकी अभिव्यक्तियाँ अलग-अलग प्रकार की हैं. हिंद-प्रशांत की नीतियों में जलवायु कार्रवाई को समावेशी और न्यायसंगत तरीके से एकीकृत करने के लिए एक समग्र दृष्टिकोण की आवश्यकता है जो पर्यावरण, आर्थिक और सामाजिक आयामों के अंतःसंबधों पर विचार करता है. बढ़ते नारीवाद संबंधी विदेश नीति पर विचार- विमर्श के साथ-साथ हिंद-प्रशांत के खिलाड़ियों की लैंगिक नीतियों पर हमारे शोध से संकेत मिलता है कि यह संभव है.यह इन रणनीतियों को उनके जलवायु लक्ष्यों से जोड़ने का मामला बन जाता है. जलवायु  की नीतियाँ अलग-थलग नहीं रहनी चाहिए, बल्कि उन्हें क्षेत्र की जटिलता को प्रतिबिंबित करते हुए व्यापक नीतिगत  ढाँचे में जोड़ा जाना चाहिए.

अंबिका विश्वनाथ मुंबई  (भारत) में स्थित कुबेरनेइन इनिशिएटिव की संस्थापक निदेशक हैं और भूराजनीतिक सलाहकार हैं. वह शासन और विदेश नीति के क्षेत्र में अनुभवी हैं और साथ ही साथ भू-राजनीतिक विश्लेषक और जल सुरक्षा विशेषज्ञ हैं, और लिंग और भारतीय विदेश नीति पर कुबेरनेइन की प्रमुख परियोजना का नेतृत्व करती हैं.

अदिति मुकुंद कुबेरनेइन इनिशिएटिव में एक प्रोग्राम एसोसिएट हैं और वहाँ वह लिंग और नारीवादी विदेश नीति से संबंधित कार्यों और परियोजनाओं का नेतृत्व कर रही हैं.  वह वीमेन इन इंटरनेशनल रिलेशंस नेटवर्क भी चलाती हैं, जो भारत और वैश्विक दक्षिण पर ध्यान केंद्रित करते हुए अंतर्राष्ट्रीय सुरक्षा, विदेश नीति और शांति निर्माण और संघर्षों के समाधान में महिलाओं की आवाज़ को मुखर करना चाहती हैं.

 

हिंदी अनुवादः डॉ. विजय कुमार मल्होत्रा, पूर्व निदेशक (हिंदी), रेल मंत्रालय, भारत सरकार

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