भारत में कृषि क्षेत्र में महिलाओं का योगदान बहुत महत्वपूर्ण रहा है। ग्रामीण परिवर्तन की मौजूदा स्थिति के कारण ही कृषि क्षेत्र में महिलाओं की भूमिका उजागर हो पाई है। सामान्यतः, इस विषय पर चर्चा बहुत ही स्वभाविक प्रवृत्तियों पर ही केंद्रित रहती है; जैसे, स्व-नियोजित रूप में कृषि-क्षेत्र में काम करने वाली महिलाओं का अनुपात, सहायता-राशि का भुगतान न होना या श्रमिकों को मज़दूरी न मिलना। जो मुद्दा उपेक्षित रह जाता है, वह भी महिलाओं की भूमिकाओं में महत्वपूर्ण और दिलचस्प बदलाव है: आज अधिक से अधिक महिलाएँ कृषि-क्षेत्र में प्रबंधक के रूप में निर्णायक भूमिका निभा रही हैं। कृषि प्रबंधन में महिलाओं को आगे बढ़ाने के प्रमुख कारणों में से एक है, पुरुष का बेहतर जीवन की तलाश में ग्रामीण से शहरी इलाकों में प्रवास कर जाना। लेकिन पीछे रह जाने वाली ग्रामीण परिवारों की महिलाओं का क्या होता है?
आजीविका विविधीकरण के लिए प्रवासन एक महत्वपूर्ण रणनीति है, विशेषत: ग्रामीण परिवारों के लिए। भारत में स्थायी नहीं, बल्कि अल्पकालिक प्रवासन मुख्य कारण है श्रमिकों के स्थानांतरण का। अध्ययन से पता चलता है कि महिलाओं की तुलना में पुरुषों का प्रवासन अधिक होता है। प्रवासी के मूल समुदाय में पीछे रह गए घरों में कुछ श्रम समायोजन होना स्वाभाविक है । समायोजन कैसा हो, यह उस परिवार के आकार और संरचना (संयुक्त या एकल परिवार), सामाजिक मान्यताएँ तथा पुरुषों और महिलाओं की ज़िम्मेदारियाँ की अपेक्षाओ पर निर्भर करेगा। स्वाभाविक है कि इन सब बातों का प्रभाव पुरुषों और महिलाओं पर अलग-अलग होता है।
इस बारे में और अध्ययन करने हेतु, अपने सहयोगी एस.चंद्रशेखर (इंदिरा गाँधी विकास अनुसंधान संस्थान) और सोहम साहू (गॉटिंगेन विश्वविद्यालय) के साथ मिलकर राष्ट्रीय प्रतिदर्श सर्वेक्षण संगठन (NSSO) द्वारा किये गये भूमि व पशुधन से संबंधित सर्वेक्षण के आँकड़ों का विश्लेषण किया। यह सर्वेक्षण ग्रामीण भारत में जनवरी-दिसंबर, 2013 की अवधि के लिए किया गया था और इसमें दो दौरों के दौरान 35,000 परिवारों को शामिल किया गया था।
भारत में पहली बार राष्ट्रीय प्रतिदर्श सर्वेक्षण संगठन (NSSO) के सर्वेक्षण में अल्पकालिक प्रवासियों से संबंधित सूचनाएँ एकत्र की गईं। इसमें परिवार के उन सदस्यों को भी शामिल किया गया जो परिवार द्वारा जोती गई भूमि का संचालन करते हो। वही सदस्य मुख्य या सहायक संचालक हो सकता था, जो घरेलू जोत के संचालन में क्रमशः बड़े या छोटे निर्णय लेने में सक्षम हो।
आँकड़ों पर आधारित अनुमान से पता चलता है कि सन् 2013 में 15-65 के आयु-वर्ग की 1.18 करोड़ महिलाएँ और 8.5 करोड़ पुरुष मुख्य संचालक थे। हमारे नतीज़ों से यह भी पता चलता है कि महिलाओं को मुख्य या सहायक संचालक का काम सौंपे जाने की कम ही संभावना होती है। रोचक तथ्य यह है कि अल्पकालिक प्रवासियों के मामले में महिलाओं के संचालक बनने की संभावनाएँ अधिक होती है। इससे यह भी निष्कर्ष निकलता है कि पुरुषों की अनुपस्थिति में (हालाँकि सर्वेक्षण से हमें प्रवासियों के लिंग के बारे में जानकारी नहीं मिलती, लेकिन दस्तावेज़ों से संकेत मिलता है कि प्रवासी अधिकांशतः पुरुष ही होते थे) महिलाएँ ही कृषि संबंधित निर्णय ले रही हैं।
इसके अलावा, हम यह भी देखते हैं कि उच्च शिक्षा स्तर पर अधिकांशतः पुरुषों के कृषि क्षेत्र से बाहर जाने की अधिक संभावना रहती है। संभवतः वे खेती से परे आकर्षक रोजगार के विकल्प के तलाश मे रहते हैं, लेकिन जैसे-जैसे उनकी ज़मीन का मात्रा बढ़ती है, पुरुषों के संचालक बनने की संभावना अधिक होती जाती है और जबकि संचालिका के रूप में महिलाओं की भागीदारी पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता।
भारत में महिलाओ की श्रम शक्ति की भागीदारी में लगातार गिरावट एक बहुत गंभीर समस्या है। कई अध्ययनों में इस तथ्य की छान-बीन की गई है और अनेक प्रकार के निष्कर्ष सामने आए हैं कि आखिर महिलाएँ श्रम-बाज़ार से बाहर क्यों होती जा रही हैं? इस संबंध में कई स्पष्टीकरण सामने आए हैं : लड़कियाँ अधिक पढ़ने लगी हैं; परिवार की आमदनी बढ़ने से महिलाओं के लिए अतिरिक्त आमदनी के लिए घर से निकलने की ज़रूरत अब नहीं रही; सामाजिक मान्यताओं के अनुसार महिलाओं से यह अपेक्षा की जाती है कि वे अपना अधिक से अधिक समय बच्चों की देखभाल और अन्य घरेलू कामों में लगाएँ। अन्य लोग यह मानते हैं कि भारत के अनूठे संरचनात्मक ढाँचे में कृषि-आधारित अर्थव्यवस्था, सेवा-आधारित अर्थव्यवस्था में बदलती जा रही है। सुदृढ़ विनिर्माण-क्षेत्र के अभाव में आर्थिक वृद्धि तो हो रही है,लेकिन उसके अनुरूप पर्याप्त मात्रा में रोज़गार के अवसर नहीं बढ़ रहे हैं। हालाँकि इसका असर सभी व्यक्तियों पर पड़ता है, लेकिन महिलाओं के रोज़गार के अवसरों पर इसका असर पुरुषों की तुलना में अधिक ही पड़ता है।
परंतु ग्रामीण इलाकों में महिलाओं के रोज़गार पर कम ही ध्यान दिया जाता है। हमारे नतीज़ों से पता चलता है कि अल्पकालिक प्रवासियों से संबंधित एक करोड़ परिवारों में भूमि के संचालन से संबंधित निर्णयों में महिलाओं की भागीदारी बढ़ने की अधिक संभावना रहती है। दुर्भाग्यवश, इन महिला किसानों के अनुरूप राष्ट्रीय कृषि-नीतियाँ नहीं बनाई गई हैं। भारत में हमारे नीति-निर्माता अभी-भी इसी धारणा से ग्रस्त हैं, “किसान का मतलब है पुरुष किसान”। आम तौर पर महिलाओं को किसान के रूप में मान्यता ही नहीं दी जाती। यह धारणा उत्पादन को बढ़ाने में बाधा उत्पन्न करती है। विस्तार सेवाओं में भी पुरुष किसानों को ही अधिक तरजीह दी जाती है। यह मानकर कि महिलाएँ खेतों के प्रबंधन में भाग नहीं लेतीं, महिलाओं की उपेक्षा की जाती है।
खेतों के प्रबंधन की ज़िम्मेदारी सँभालने वाली महिलाओं पर काम का बोझ भी अधिक रहता है, क्योंकि अतिरिक्त ज़िम्मेदारी लेने पर भी उनके घरेलू कामों में कोई कमी नहीं आती। इस अतिरिक्त ज़िम्मेदारी के कारण उन्हें आराम का समय नहीं मिलता, जिसके कारण उनकी सेहत पर भी असर पड़ता है। लेकिन इस विषय में सही निष्कर्ष तभी निकाला जा सकता है जब और आँकड़े इकट्ठे किये जाएँ और उनका विश्लेषण किया जाए। हमें पुरुषों और महिलाओं के कार्य-समय के बारे में जानना होगा और उनके द्वारा किये गये काम के समय के आँकड़े जुटाने होंगे। प्रवास से संबंधित ऐसे आँकड़े मिलने पर ही हम इस बात को बेहतर समझ पाएँगे कि प्रवासियों के मूल स्थान से बाहर जाने पर घर पर ही रहने वाली महिलाएँ किस प्रकार से प्रबंधन करती हैं।
कृषि के प्रति महिलाओं की भूमिका से संबंधित नज़रिये में भी बदलाव आना चाहिए और भौतिक व वित्तीय संसाधनों पर उनकी पहुँच भी बढ़नी चाहिए जिससे कि वे अपना काम बखूबी कर सकें। ग्रामीण इलाकों में रोज़गार के विकल्पों की कमी के कारण भविष्य में पुरुषों के अल्पकालिक प्रवासन में वृद्धि होने की अधिक संभावना है। इसलिए नीति-निर्माताओं की यह ज़िम्मेदारी है कि वे भौतिक व वित्तीय संसाधनों पर खेती-बाड़ी से जुड़ी महिलाओं की पहुँच को अधिकाधिक बढ़ाएँ ताकि इन महिलाओं के लिए अनुकूल वातावरण बनाया जा सके।
हेमास्वामिनाथनभारतीयप्रबंधसंस्थान, बैंगलोरकेसार्वजनिकनीतिकेंद्रमेंसहप्रोफ़ेसरहैं।
हिंदी अनुवादः विजय कुमार मल्होत्रा, पूर्व निदेशक (राजभाषा), रेल मंत्रालय, भारत सरकार <malhotravk@gmail.com> / मोबाइल : 91+9910029919.