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स्वास्थ्य का सुरक्षाकरण और लोकतंत्र का दमन: कोविड-19 संबंधी नीतिगत उपाय और राजनैतिक निहितार्थ

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30/08/2021
N. D. विवेक

24 मार्च, 2020 को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी द्वारा नये कोरोना वायरस के फैलाव को रोकने के लिए राष्ट्रीय लॉकडाउन की घोषणा करने के बाद दिल्ली पुलिस ने भारत के विवादित नागरिकता  संशोधन अधिनियम और राष्ट्रीय नागरिकता रजिस्टर के विरोध में नई दिल्ली के शाहीन बाग में  चार महीने से चलने वाले दादियों, नानियों, बच्चों, छात्रों और चिंतित नागरिकों के धरने को कुचल दिया. शाहीन बाग का धरना-विरोध पूरे देश में नागरिकता कानून के विरोध में चल रहे प्रदर्शनों का केंद्रबिंदु था. पुलिस द्वारा की गई दमनकारी कार्रवाई की सबसे अनूठी बात यही थी कि यह कार्रवाई प्रत्यक्ष रूप में कोविड-19 की महामारी की रोकथाम के नाम पर की गई थी. उस समय पूरे देश में मुश्किल से 524 लोग ही इस महामारी से संक्रमित हुए थे. इस मामले में सरकार ने विरोध के स्वर को दबाने के लिए महामारी को एक औचित्य के रूप में इस्तेमाल किया था. लॉकडाउन के दौरान विभिन्न राज्यों में पुलिस द्वारा जिस तरह की बर्बर कार्रवाई की गई, उसे ग्राफ़िक वीडियो के माध्यम से मीडिया ने उजागर किया. इन वीडियो में पुलिस द्वारा सुरक्षा नियमों का उल्लंघन करने वाले लोगों पर पुलिस की ज़्यादती दिखाई गई थी, जिसके कारण कम से कम 15 लोगों की मौत हो गई थी.  

वैसे देखा जाए तो भारत ही अकेला देश नहीं है, जहाँ विरोध करने वाले नागरिकों पर कड़ी कार्रवाई की गई. केन्या, दक्षिण अफ्रीका और फिलीपींस में भी ऐसे ही उपाय अपनाये गए थे.  . यहाँ सवाल यह है कि “विश्व के सबसे बड़े लोकतांत्रिक देश” भारत में सुरक्षा उपायों के नाम पर लोकतंत्रिक सिद्धांतों की अनदेखी की गई और इस पर आम तौर पर कोई सवाल भी नहीं उठाये गए. दूसरी लहर के दौरान सुरक्षा उपायों की आड़ में उन पत्रकारों को भी गिरफ़्तार कर लिया गया, जिन्होंने संक्रमित मामलों से संबंधित सरकारी आँकड़ों की विसंगतियों, छात्रों और अन्य कार्यकर्ताओं की गिरफ़्तारी के आँकड़ों और प्रमुख बुद्धिजीवियों को दी गई धमकियों को उजागर किया था. इससे यह स्पष्ट हो गया कि महामारी के कारण सरकार को लोकतांत्रिक प्रक्रियाओं को कुचलने का एक बना-बनाया बहाना मिल गया, जिसका बहुत विरोध भी नहीं हो पाया. आम तौर पर ऐसे उपायों को एक अपवाद के रूप में ही नागरिकों की भलाई के लिए अपनाया जाता है. 

सुरक्षाकरण (Securitization) की परिभाषा
सुरक्षाकरण एक ऐसी प्रक्रिया है, जिसके द्वारा किसी खास मुद्दे को अस्तित्व के खतरे के रूप में देखा जाता है और उसे सुरक्षा का मामला बना दिया जाता है, जिसके कारण सामान्य लोकतांत्रिक प्रक्रिया की अनदेखी करके सरकार को असाधारण नीतिगत कदम उठाने का अवसर मिल जाता है. सच तो यह है कि आम जनता सामान्य हालात में ऐसे उपायों को लागू करना ठीक नहीं समझती. सुरक्षाकरण की यह परिकल्पना बैरी बूज़नस, ओले वीवर और जाप द वाइल्ड ने अपनी महत्वपूर्ण कृति Security: A New Framework for Analysis (1998) में की थी. इसे अस्तित्व के खतरे के रूप में प्रस्तुत करके “राजनैतिक प्रक्रिया की सामान्य सीमाओं को लाँघकर ” इसका औचित्य सिद्ध किया जाता है.   

सरकारी प्रतिक्रियाएँ और स्वास्थ्य का “सुरक्षाकरण”
भारत के सभी राज्यों में स्वास्थ्य का सुरक्षाकरण केंद्र सरकार के प्रशासनिक दिशा-निर्देशों के अनुरूप ही रहा है. कोविड-19 के फैलाव की दर को कम करने के उद्देश्य से दिशा-निर्देशों का उल्लंघन करने वाले लोगों पर अनेक प्रकार के जुर्माने लगाने के अलावा अन्य प्रतिबंधात्मक और दंडात्मक उपाय भी राज्य सरकारों द्वारा लागू किये गए थे. ऑक्सफ़ोर्ड विश्वविद्यालय के कोविड-19 संबंधी रिस्पॉन्स ट्रैकर ने भारत के लॉकडाउन को सबसे अधिक कड़ाई करने वाले देशों के इंडेक्स में शामिल किया था. राज्यों द्वारा दिये गए खुले आँकड़ों के प्रावधान के साथ-साथ प्रैस और मीडिया लोकतंत्र के केंद्रीय स्तंभ हैं. प्रशासनिक दिशा-निर्देशों को लोगों तक पहुँचाने में इनकी भूमिका खास तौर पर स्वास्थ्य संकट के समय बहुत ही महत्वपूर्ण और आवश्यक होती है.

मानवाधिकारों की पैरवी करने वाले नई दिल्ली स्थित अधिकार एवं जोखिम विश्लेषण समूह (Rights & Risks Analysis Group) द्वारा “भारतः कोविड-19 के लॉकडाउन के दौरान मीडिया पर दमनकारी कार्रवाई (India: Media’s Crackdown During COVID-19 Lockdown)” नाम से तैयार की गई हृदय विदारक रिपोर्ट में लॉकडाउन के दौरान और उसके बाद की अवधि में पुलिस की बर्बरतापूर्ण कार्रवाई की गंभीर आलोचना की गई है. 55 पत्रकारों को अपने विचार प्रकट करने और अभिव्यक्ति की आज़ादी का उपयोग करने के लिए कानूनी नोटिस दिये गए, उनकी गिरफ़्तारी की गई और कोविड-19 की रिपोर्टिंग के लिए उनका दमन किया गया. 

विभिन्न राज्यों ने सभी गैर-अनिवार्य वस्तुओं को सार्वजनिक रूप में लाने-ले जाने से रोकने के लिए साम्राज्यवादी युग का कानून संक्रामक महामारी अधिनियम (Epidemic Diseases Act (EDA) 1897) लागू कर दिया. EDA के अंतर्गत राज्य के सभी अधिकारियों को पूरा संरक्षण दिया गया है. इसकी धारा 4 में उल्लेख किया गया है, “ इस अधिनियम के अंतर्गत सद्भावना से की गई किसी भी कार्रवाई के लिए किसी भी व्यक्ति पर किसी प्रकार की कानूनी कार्रवाई नहीं की जा सकेगी.”  अगस्त, 2020 के आरंभ में झारखंड सरकार ने झारखंड संक्रामक रोग अध्यादेश 2020 लागू कर दिया था. इस अध्यादेश में सुरक्षा नियमों का उल्लंघन करने पर दो वर्ष तक का कारावास का दंड और 100,000 रुपये तक का जुर्माना लगाने का प्रावधान था. एक ऐसे देश में जहाँ 83 प्रतिशत श्रमिक अनौपचारिक क्षेत्र में हैं, इस प्रकार के दंडात्मक उपायों से वे सभी लोग प्रभावित होते हैं, क्योंकि उनके पास किसी प्रकार का सामाजिक और आर्थिक सुरक्षा कवच मौजूद नहीं है.

भारत में अप्रैल, 2021 से “दूसरी लहर” आने पर लगभग सभी राज्य सरकारों ने दंड प्रक्रिया संहिता      (Criminal Procedure Code) की धारा 144 के अंतर्गत कर्फ्यू लागू कर दिया था. अलग-अलग समय का कर्फ्यू होने के कारण अनिवार्य सेवाओं के लाने-ले जाने के समय से संबंधित निर्देश बहुत भ्रामक और विपरीत भी होते थे. एक राज्य से दूसरे राज्य में टैस्टिंग और ट्रेसिंग ऐप्स के दलदल के माध्यम से आवागमन के लिए भी अनुमति लेना आवश्यक था. इसमें केंद्र सरकार की आरोग्य सेतु स्मार्ट फ़ोन ऐप और अलग-अलग राज्यों, ज़िलों और नगर पालिका प्राधिकरणों द्वारा विकसित ऐप भी शामिल थी. विभिन्न राज्यों के बीच व्यक्तिगत स्तर पर लोगों के आवागमन पर भी रोक लगी हुई थी. लोगों को मजबूरन निरंतर बदलते हुए दिशा-निर्देशों का उल्लंघन करना पड़ता था. पुलिस से कोविड-19 का विशेष ई-पास भी लेना पड़ता था.

सरकारों को सार्वजनिक स्तर पर लोगों की धारणाओं को सँभालने की बहुत चिंता लगी रहती थी.    दूसरी लहर के समय केंद्र सरकार और राज्य सरकारों ने, खास तौर पर उत्तर प्रदेश सरकार ने स्वास्थ्य सेवाएँ और दवाएँ प्राप्त करने के लिए सोशल मीडिया का उपयोग करने से लोगों को रोकने के लिए दंडात्मक आदेश और कानूनी चेतावनी भी दी थी. उनकी ऐसी कार्रवाई से लोगों में डर फैल गया और राज्य सरकार की छवि भी धूमिल हुई.

टैक्नो-पोलिसिंग का उपयोग
विभिन्न राज्यों की सरकारों ने कोविड-19 के हालात के प्रबंधन के लिए डिजिटल टैक्नोलॉजी के उपयोग के साथ-साथ निगरानी के उपाय भी लागू किये. मौजूदा कानूनी ढाँचे के अंतर्गत स्थानीय सामाजिक एवं आर्थिक वास्तविकताओं की जाँच किये बिना इन्हें लागू करना गैर-कानूनी है.    इनमें से ही एक ट्रैकिंग एवं ट्रेसिंग डिजिटल ऐप है, इलैक्ट्रॉनिक्स एवं सूचना प्रौद्योगिकी मंत्रालय के अंतर्गत कार्यरत राष्ट्रीय सूचना विज्ञान केंद्र द्वारा विकसित आरोग्य सेतु स्मार्ट ऐप. विभिन्न राज्यों ने अपने राज्यों में उपयोग के लिए अपनी भाषाओं में भी ऐप विकसित किये. कम से कम 62 ऐप बिल्कुल ही अज्ञात IT फ़र्मों ने विकसित किये हैं. इनका लोकार्पण केंद्र और राज्य सरकारों के सरकारी निकायों द्वारा, सरकार द्वारा संचालित स्वास्थ्य एजेंसियों द्वारा और नगर पालिका के अधिकारियों और पुलिस अधिकारियों द्वारा किया गया. इनमें से किसी भी ऐप में स्पष्ट निर्देश नहीं हैं कि लोगों की निजता और ऐप के माध्यम से एकत्र की गई सूचनाओं का कैसे उपयोग किया जाएगा. “समुदाय-संचालित ट्रेसिंग ऐप” के रूप में विज्ञापित आरोग्य सेतु में आसपास रहने वाले किसी उपयोगकर्ता के संपर्क में आने वाले कोविड-19 के संक्रमित रोगी के जोखिम का पता लगाने के लिए उसके लिंग, आयु और व्यक्तिगत पते की जानकारी एकत्र की जाती है. उसके बाद इस डेटा को समन्वित हॉटस्पॉट विश्लेषण प्रणाली (Integrated Hotspot Analysis System) नामक मंच पर विश्लेषित किया जाता है, जिसका नियंत्रण केंद्र सरकार के पास होता है और केंद्र सरकार इसे अनाम प्रारूपों में राज्य सरकारों और जिला अधिकारियों के साथ साझा करती है. चूँकि मोबाइल नंबर कॉन्टेक्ट ट्रेसिंग के लिए अधिकारियों के साथ साझा किये जाते हैं इसलिए उनकी निजता को मेंटेन नहीं किया जा सकता और उसे पुलिस, खुफ़िया एजेंसियों या व्यावसायिक कार्यों के लिए निजी व्यक्तियों के साथ भी साझा किया जा सकता है.  

भारत के निजी डेटा संरक्षण और निजता कानून को अभी तक लागू नहीं किया जा सका है. यही कारण है कि आरोग्य सेतु ऐप को कई स्तरों पर भारी आलोचना का शिकार होना पड़ा है. इनमें ऐप-निर्माताओं (यह मानकर कि इस ऐप को सरकारी-निजी पहल के जरिये उन स्वयंसेवकों की मदद से विकसित किया गया है, जिनकी मान्यता को सार्वजनिक कर दिया गया है) की जवाबदेही, हवाई/रेल यात्रा के दौरान अनिवार्य तौर पर ऐप इंस्टॉल करना और महामारी के दुष्प्रभाव को कम करने के लिए भारी प्रभाव के बिना ही लगने वाली भारी लागत भी शामिल है. 

इसके साथ ही बहुत से निजता से संबंधित मामले और स्वास्थ्य संबंधी देखभाल की नैतिक चुनौतियाँ भी सामने आ जाती हैं. सुरक्षाकरण की आड़ में उचित सुरक्षा उपायों और निगरानी के बिना सरकार द्वारा बड़े पैमाने पर लोगों का स्वास्थ्य संबंधी डेटा एकत्र करने का काम लोकतंत्र की सामान्य प्रक्रिया का हिस्सा ही बन सकता है. 

लोगों के आवागमन पर नज़र रखने के लिए ड्रोन, CCTV फ़ूटेज, चेहरे को पहचानने वाले सॉफ़्टवेयर जैसे उपलब्ध अन्य उपकरणों की मदद से संगरोध के नियमों की अवहेलना करने वाले लोगों पर पुलिस नज़र रख सकती है. यह दुःखद बात है कि स्वास्थ्य संबंधी आपात् स्थिति के कारण सरकार पारदर्शिता के न्यूनतम स्तर या कानूनी सुरक्षा उपायों को अपनाये बिना ही इन उपायों और टैक्नोलॉजिकल उपकरणों का उपयोग करने की अपनी शक्ति का दुरुपयोग कर रही है.

भारत में कोविड-19 की दूसरी लहर के परिणामस्वरूप ऑक्सीजन और जीवन रक्षक दवाओं की कमी के कारण और व्यापक सार्वजनिक स्वास्थ्य नीति के अभाव में पूरे देश की मानो साँसें ही उखड़ गई थीं. यह स्पष्ट है कि भारत में आई कोविड-19 की पहली लहर के दौरान, जब केंद्र और राज्य सरकारों को स्वास्थ्य संबंधी देखभाल के संसाधन जुटाने का अवसर मिला था, वे स्वास्थ्य के सुरक्षाकरण और लोकतंत्र का गला घोंटने में लगे थे. ऐतिहासिक रूप में सार्वजनिक स्वास्थ्य क्षेत्र में निधि और स्टाफ़ की कमी और प्राथमिकता न होने के कारण जब भी महामारी की बात आती है तो हमेशा हावी रहने वाली केंद्र सरकार और भारत के नेताओं की पसंद से संरचनात्मक और दीर्घकालीन प्रभाव का पता चलता है: कड़े उपायों को सामान्य बनाते समय अनगिनत नागरिकों की ज़िंदगी को खतरे में डाल दिया जाता है, जिसके कारण लोकतांत्रिक मूल्यों का क्षरण होने लगता है.

N. D. विवेक हैदराबाद स्थित महिंद्रा विश्वविद्यालय के विधि स्कूल में सहायक प्रोफ़ेसर हैं. यहाँ वह राजनीति और सार्वजनिक नीति का अध्यापन करते हैं.

 

हिंदी अनुवादः डॉ. विजय कुमार मल्होत्रा, पूर्व निदेशक (राजभाषा), रेल मंत्रालय, भारत सरकार <malhotravk@gmail.com> / मोबाइल : 91+9910029919