भारत में, जैसा कि विश्व के अधिकांश हिस्सों में होता है, अब यह देखना आम बात हो गई है कि लोग अपने स्मार्टफोन को उठाकर किसी चीज़ या व्यक्ति के खिलाफ़ या उसके साथ खड़े होते हैं; यह डिजिटल अभिलेखागार में लिखने, भूगोल और संस्कृति के भीतर खुद को स्थापित करने, अपनी पहचान वाली सामाजिक दुनिया के साथ संबंधों को चिह्नित करने का एक सामान्य कार्य है. लेकिन ये चित्र हमारे फ़ोन और हार्ड ड्राइव पर सुरक्षित रहते हैं, तथापि वे प्लेटफ़ॉर्मों और सोशल वैब के माध्यम से खोजे जा सकते हैं, तथा उनके मेटाडेटा का पता लगाया जा सकता है और उन्हें ट्रैक किया जा सकता है.
सेल्फी स्वयं को दुनिया में अपनी जगह बनाने का एक तरीका है. यह उन अनेक डिजिटल कलाकृतियों में से एक है, जो न केवल शब्द के मूल समाजशास्त्रीय अर्थ में "रोज़मर्रा की जिंदगी" बन गई है, बल्कि शासन की निगरानी से लेकर नागरिकता संबंधी लाभ और अपनेपन तथा सांस्कृतिक समानता के निर्माण तक की संरचनात्मक शक्तियों का आधार भी बन गई है. सेल्फी लेने के आवेग में, देखे जाने की इच्छा, समय, स्थान और जनता से जुड़े रहने की इच्छा, समकालीन जीवन के ताने-बाने पर अपने पास उपलब्ध साधनों के साथ, स्वयं को अंकित करने की इच्छा होती है.
"सेल्फी संस्कृति" - जैसा कि कुछ लोग उपेक्षा से कह भी सकते हैं, उपयोगकर्ता द्वारा उत्पन्न ऑनलाइन सामग्री की अंतहीन धारा में अपनी छवि को कैद करने और सम्मिलित करने की इस इच्छा को - इंटरनेट के विद्वानों द्वारा एक ऐसी घटना के रूप में मान्यता दी गई है जो स्वयं को प्रस्तुत करने के एक लंबे इतिहास की याद दिलाती है. वस्तुतः इसे हमारे समय की सर्वोत्कृष्ट मीडिया घटना कहा गया है - उत्पाद और प्रक्रिया दोनों रूपों में. मीडियम पर बहुचर्चित निबंध में रेचल सिमे ने लिखा है कि सेल्फी लेने वाली महिला ने "कुछ ही क्लिक में यह घोषित कर दिया है कि वह उस क्षण में देखी जाने की हकदार है.
लेकिन 1.4 बिलियन की आबादी वाले भारत देश में सेल्फी का क्या मतलब हो सकता है, जहाँ अदृश्यता एक सामाजिक-सांस्कृतिक और राजनीतिक स्थिति है, और जहाँ देखा जाना, सुना जाना और स्वीकार किया जाना आबादी के बहुत छोटे प्रतिशत को ही सुलभ है? हम अक्सर इस बारे में बात करते हैं कि कैसे मुख्यधारा का मीडिया केवल अमीर, प्रसिद्ध और शक्तिशाली लोगों पर ध्यान केंद्रित करता है, और लिंग, जाति, वर्ग और क्षेत्र के आधार पर हाशिए पर पड़े लोगों के चेहरों और आवाज़ों को अनदेखा कर देता है - दृश्यमान "इंडिया" और अदृश्य "भारत", जिसमें वे लोग शामिल हैं जो आधुनिक लोकतंत्र में पूरी तरह से भाग नहीं ले पाए हैं.
सस्ते स्मार्टफोन और डेटा के तेजी से प्रसार (एक अनुमान के अनुसार एक बिलियन से अधिक ऑनलाइन उपयोगकर्ताओं) ने इंटरनेट के एक कोने पर दावा करने और खुद को एक ऐसे स्थान पर पहुँचाने के साधनों तक पहुँच प्रदान की है, जहाँ दृश्यता एक स्पष्ट संभावना बन जाती है. लेकिन जैसा कि अनेक परिवर्तनशील समाजों में होता है, भारत के संदर्भ में दृश्यता की इच्छा और प्रयास एक जोखिमपूर्ण कार्य हो सकता है, विशेष रूप से मौजूदा राजनीतिक क्षण में, जब पहचान की कुछ अभिव्यक्तियाँ काफी जोखिम में पड़ सकती हैं.
व्यक्तिगत अभिव्यक्ति के रूप में सेल्फी, आम लोगों से अलग होने का मार्ग प्रदान करती है, साथ ही कनेक्शन भी दर्शाती है. सोशल मीडिया स्पेस, हालाँकि काफ़ी हद तक लोकप्रिय और भुगतान वाले को तरजीह देने वाले एल्गोरिदम (algorithms) द्वारा संचालित है, लेकिन इसने लोगों (व्यक्तियों और समुदायों दोनों) को अपने लिए स्थान बनाने की अनुमति दी है, जहाँ वे स्वयं और स्व-संगठित समूहों के लिए दृश्यमान बन जाते हैं. यह वह स्पेस है जहाँ सेल्फी को स्वाभाविक रूप से स्पेस मिल जाता है. ग्रामीण भारत के लोक आर्काइव (Archive) की ओर से FACES जैसी पहल भारत के स्वरूप के बारे में लोकप्रिय कल्पना को व्यापक बनाने का प्रयास करती है, लेकिन व्यक्तिगत सेल्फी लेने की क्रिया अलग है, हालाँकि यह ऐसी ही नागरिक परियोजनाओं से संबंधित है. यह स्वायत्तता और एजेंसी की भावना से प्रेरित है जो आत्म-प्रतिनिधित्व पर नियंत्रण प्रदान करती है.
एक परियोजना के भाग के रूप में, जिसमें यह जाँच की गई कि अन्य बातों के अलावा, स्व-चित्रण के माध्यम से डिजिटल आत्म-अभिव्यक्ति किस प्रकार व्यक्तिपरकता, अंतरंगता, स्थानिकता और शक्ति की धारणाओं को पुनः रूपांतरित करती है, मेरे सहकर्मियों और मैंने भारतीय उपमहाद्वीप में सेल्फी के उभरने के विभिन्न संदर्भों का अध्ययन किया - वे जो व्यक्तिगत रूप से प्रेरित हैं और साथ ही सामाजिक-सांस्कृतिक और राजनीतिक प्रणालियों और संरचनाओं की प्रतिक्रिया में निर्मित हैं. सेल्फी भले ही स्वयं की रचनात्मक अभिव्यक्ति को प्रस्तुत करने और प्रयोग करने का एक साधन हो, लेकिन एनालॉग फोटोग्राफ़ के विपरीत, डिजिटल और ऑनलाइन छवि एक डेटा बिंदु है जो बायोमेट्रिक नियंत्रण और डेटा माइनिंग के लिए अतिसंवेदनशील है. धीरे-धीरे यह एक परिवर्तनशील वस्तु बन गई है, जिसे बिना सहमति के अलग किया जा सकता है, जोड़ा जा सकता है, डेटाबेस में संग्रहीत किया जा सकता है तथा अन्य प्रकार की इलेक्ट्रॉनिक सूचनाओं के साथ जोड़ा जा सकता है. मानव भूगोल की विदुषी अयोना दत्ता उन निगरानी संबंधी संभावनाओं की ओर संकेत करती हैं, जो सेल्फी की अंधाधुंध अपलोडिंग से उत्पन्न होती हैं. हम जितना अधिक ऑनलाइन स्पेस का दावा करते हैं, उतना ही अधिक हम स्वयं को देखे जाने की अनुमति देते हैं, और हम देखे जाने के प्रति उतने ही अधिक असुरक्षित होते हैं.
सेल्फी को एक ऐसी चीज़ के रूप में सामान्य मान लेना जिसे हम करते हैं, तथा जिसे हम साझा करते हैं, इसे परिवर्तनशीलता, स्वामित्व और स्थिरता के संदर्भ में एक विशेष रूप से फिसलन भरी वस्तु बना देता है. भले ही हम अपने सोशल मीडिया खातों पर गोपनीयता नियंत्रण स्थापित कर सकते हैं और अपनी छवियों को सावधानीपूर्वक चयनित समुदायों के बीच चुनिंदा रूप से साझा कर सकते हैं, लेकिन हम राजनीति में अपनी उपस्थिति दर्ज कराने के लिए स्वयं की छवि का उपयोग करने की सुविधा भी खरीदते हैं. उदाहरण के लिए, हाल ही में लॉन्च किया गया डिजी-यात्रा ऐप - जिसे भारत सरकार द्वारा बढ़ावा दिया गया है, हालाँकि इसके संचालन के तत्व अभी भी अस्पष्ट हैं - सेल्फी अपलोड करके और बायोमेट्रिक पहचान दस्तावेज, आधार के साथ इसे प्रमाणित करके हवाई अड्डे की सुरक्षा से गुजरने का एक शॉर्टकट प्रदान करता है, और व्यस्त यात्री लंबी सुरक्षा कतारों से बचने की सुविधा के लिए डेटा लीक की चिंताओं को बाईपास करता है. सुविधा की दृष्टि से, विशेष रूप से ऐसे देश में जहाँ प्रणालीगत दक्षता एक नवीनता है, यह कोई आश्चर्य की बात नहीं है कि लोग सहज बनाने के लिए सेल्फी जैसी सामान्य चीज का भी कारोबार करने लगेंगे. भारत सरकार द्वारा हाल ही में पारित व्यक्तिगत डेटा संरक्षण अधिनियम द्वारा प्रदान की गई सुरक्षा की ढिलाई के कारण निजी नागरिकों के लिए इन छवियों के उपयोग के संबंध में सीमाएँ निर्धारित करना कठिन हो गया है.
हमारी डिजिटल उपस्थिति की तरह सेल्फी भी व्यक्तिगत और राजनीतिक, सार्वजनिक और निजी के बीच स्थित है. जिस संदर्भ में इसे बनाया जाता है, उसके आधार पर यह कई भूमिकाएँ निभा सकता है. गेब्रियल दत्तात्रेयन बताते हैं कि कैसे हाशिये के युवा पुरुष जो दिल्ली के सार्वजनिक पार्कों और स्मारकों के आस-पास अपनी तस्वीरें खींचते हैं, वे ऐसा स्पेस बनाने, पहचान बनाने और पौरुष के प्रदर्शन के लिए ऐसा करते हैं. लेकिन फिर सेल्फी नियंत्रण और कार्य/समय अनुशासन लागू करने का एक साधन भी हो सकता है, मार्टिन वेब और उनके सह-लेखकों ने नोट किया, जब हाउसकीपिंग सेवाएँ प्रदान करने वाले एक गिग वर्कर को प्लेटफॉर्म पर पहचान के लिए दस्ताने और मास्क पहने हुए अपनी तस्वीर अपलोड करनी होती है.
फिर भी, सेल्फी, एक प्रक्रिया और उत्पाद के रूप में, प्रेरक और मुक्तिदायक है, जो हमें बहुआयामी और विविध होने की अनुमति देती है, स्वयं को हमारे शहर या राष्ट्र के मानचित्र पर रखने की अनुमति देती है, तथा स्वयं को उन वस्तुओं और स्थानों के बीच चित्रित करने की अनुमति देती है जो हमारे लिए उतना ही बोलते हैं जितना कि हमारा शरीर. पारिवारिक व्हाट्सएप ग्रुपों पर साझा की गई पूजा की सेल्फी सांस्कृतिक पहचान का दावा करती है, भले ही भलमनसाहत के संकेत के लिए उसकी आलोचना की जा सकती है, ठीक उसी तरह जैसे “गणतंत्र दिवस पर संविधान पढ़ना” इंस्टाग्राम रील कुछ उदार राजनीति का दावा करती है. यह भारत के नागरिक जीवन के मौजूदा क्षण में विशेष रूप से महत्वपूर्ण है, जहाँ नागरिकता और विरासत के दावों पर तीखी बहस होती है. अभिषेक रे और नेहा गुप्ता का तर्क है कि कुछ सेल्फी एक प्रकार के सौंदर्यबोध का निर्माण करती हैं और उसका प्रदर्शन भी करती हैं क्योंकि वे स्वयं को “इंस्टावर्थी” के रूप में मजबूती से स्थापित करती हैं. और यहाँ, सेल्फी भी पूँजीवाद के उस तंत्र में शामिल है जो वैब के अधिकांश भाग को संचालित करती है, विशेष रूप से तब जब इसे ऐसे तरीके से टैग किया जाता है जो कारोबारी समर्थन, क्यूरेटोरियल प्रभाव और राजनीतिक विमर्श को बढ़ावा देती हो.
2023 के अंत में, कथित तौर पर सरकार के आदेश पर, देश भर में रेलवे स्टेशनों और संघीय भवनों (सार्वजनिक विश्वविद्यालयों सहित) के बाहर प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी की आदमकद छवियों के साथ कई “3 डी सेल्फी सेल्फी पॉइंट” स्थापित किए गए थे. विभिन्न राष्ट्रीय उपलब्धियों को दर्शाती विभिन्न पृष्ठभूमियों के साथ प्रधानमंत्री के बड़े-बड़े कट-आउट्स ने राहगीरों को रुककर फोटो खींचने के लिए आमंत्रित किया, जिससे सेल्फी लेने के प्रति व्यापक आकर्षण पैदा हुआ. अप्रैल 2024 में, हैदराबाद में एक केबल ब्रिज पर सेल्फी के लिए पोज़ दे रहे दो लोगों को एक तेज़ रफ्तार कार ने टक्कर मार दी थी, जिसके बाद सेल्फी के प्रति जुनून के नुक्सानों पर चर्चा शुरू हो गई थी.
इस प्रकार, सेल्फी हमें न केवल व्यक्तिगत स्व की झलक प्रदान करती है, बल्कि अपनी जानबूझकर या आकस्मिक स्थिति के माध्यम से, हमें सांस्कृतिक, नागरिक, सामाजिक और राजनीतिक जीवन के क्षणों को उजागर करने की अनुमति भी प्रदान करती है. मोबाइल से चलने वाली सेल्फी एक प्रकार का बयान और एक उत्तेजना भर है. यह हाशिए पर पड़े युवा भारतीय व्यक्ति को एक मॉल की चमकदार रोशनी के सामने पोज़ देकर खुद के सृजन का एक अवसर प्रदान करती है, एक ऐसी पृष्ठभूमि जो उसे बाहर रखने वाली हर चीज़ का प्रतीक है. यह एक रूढ़िवादी परिवार की किशोरी को वह फ्रेम देती है जिसके भीतर वह खुद को ग्लैमरस और वर्जित भावना के साथ चित्रित कर सकती है. और जब घुमंतू कार्यकर्ता देश के नेता की छवि के साथ खुद को रखने के लिए अपना फोन ऊपर उठाता है, तो उसे हल्कापन महसूस होता है और विशेष नागरिकता का एहसास होता है - या ऐसी ही उम्मीद होती है.
उषा रमन हैदराबाद विश्वविद्यालय के सरोजिनी नायडू कला एवं संचार विद्यालय में संचार विभाग की प्रोफेसर एवं प्रमुख हैं.
हिंदी अनुवादः डॉ. विजय कुमार मल्होत्रा, पूर्व निदेशक (राजभाषा), रेल मंत्रालय, भारत सरकार <malhotravk@gmail.com> / मोबाइल : 91+9910029919.