पिछले सप्ताह लोकसभा की अध्यक्ष सुमित्रा महाजन ने भारत में जाति-आधारित आरक्षण की व्यापक व्यवस्था पर पुनर्विचार करने की आवश्यकता पर टिप्पणी की थी. सुप्रसिद्ध कानूनविद और समाज सुधारक डॉ. बी.आर.अम्बेडकर को उद्धृत करते हुए उन्होंने कहा था, ‘अम्बेडकर जी ने कहा था कि दस साल के लिए आरक्षण दें और दस साल के बाद पुनर्विचार करें. उन्हें तब तक उस स्तर पर ले आएँ, लेकिन हमने कुछ नहीं किया.” उन्होंने यह भी टिप्पणी की कि भारत के सबसे अधिक हाशिये पर आये समुदायों के लिए सकारात्मक कार्रवाई के पचास साल के बाद भी भारत में जाति-आधारित असमानता और भेदभाव आज भी जारी है. "मेरे कहने का आशय यही है कि हमें यह पता लगाना चाहिए कि हम डॉ. अम्बेडकर के सपनों का समाज अब तक क्यों नहीं बना पाए हैं."
आज़ादी के बाद से ही भारत ने कानूनन तय किया हुआ है कि कुछ पद — चुने हुए पद, सरकारी पद और विश्वविद्यालय की सीटें — सामाजिक और आर्थिक दृष्टि से पिछड़ी हुई जातियों के लिए अलग रख दी जाएँ (आरक्षित कर दी जाएँ). यद्यपि आरंभ में ये नीतियाँ ऐतिहासिक अन्याय को दूर करने और हाशिये पर डाले गये समुदायों को काफ़ी हद तक समृद्ध बनाने के लिए अस्थायी उपायों के रूप में शुरू की गई थीं, लेकिन भारत की राजनीति में ये उपाय स्थायी-से हो गए हैं और अगर कोई इनमें रद्दोबदल करने या इन्हें सीमित करने की कोशिश करता भी है तो उसे “दलित-विरोधी” घोषित कर दिया जाता है. साथ ही इतने लंबे समय तक आरक्षण प्रणाली चलते रहने के कारण समाज के कई तबकों में इसके विरुद्ध भारी आक्रोश भी पैदा होने लगा है. हाल ही में गुजरात के पाटीदार समुदाय ने इसी बात पर राज्यव्यापी आंदोलन छेड़ दिया था कि या तो मौजूदा आरक्षण को सीमित किया जाए या फिर उनके समुदाय को भी पिछ़ड़े वर्ग की सूची में शामिल किया जाए.
आरक्षणनीतियों के बारे में सार्वजनिक मंचों पर वाद-विवाद जारी रहने के कारण, विचारक यह माँग करने लगे हैं कि शिक्षा, रोज़गार और चुने गये पदों पर इसके प्रभाव की समीक्षा की जानी चाहिए. सन् 1992 में जब से 73 वें और 74 वें संशोधन पारित हुए हैं, उन तमाम राजनीतिक आरक्षणों को लेकर , जहाँ पद चुनाव के लिए उस जाति वर्ग का जनादेश है, जो सीटों पर चुनाव लड़ने में सक्षम हैं, विद्वत्तापूर्ण वाद-विवाद शुरू हो गया. अब तक विचारकों के बीच यह वाद-विवाद बहुत हद तक इस बात पर ही केंद्रित रहा है कि जातिगत अल्पसंख्यकों को इन पदों पर लाने से, नीतियों या वितरक परिणामों को निचली जाति के पक्ष में सीधे बदला जा सकता है या नहीं.
कोटे के कारण जातिगत अल्पसंख्यक अपने समुदायों को और अधिक वितरण कर पाते है कि नहीं, यह इस जटिल समस्या का केवल एक ही पहलू है. कल्याणकारी परिणामों पर पड़ने वाले राजनीतिक आरक्षणों के प्रभाव को पूरी तरह से समझने के लिए हमें इस बात का भी मूल्यांकन करना होगा कि ऊँची जाति के लोग रणनीतिक रूप में आरक्षण नीतियों के प्रति किस प्रकार की प्रतिक्रिया व्यक्त करते हैं. रोज़गार और शिक्षा के क्षेत्रों में आरक्षण को लेकर हुई व्यापक प्रतिक्रिया को देखते हुए यह सोचना भी तर्कहीन नहीं होगा कि राजनीति में भी इस प्रकार की प्रवृत्ति मौजूद है.
मैंने अपने आलेख में, जो अभी प्रकाशन के लिए संशोधनाधीन है, इस प्रश्न की छानबीन की है कि “सामान्य वर्ग” के प्रत्याशियों को जब यह लगता है कि जातिगत कोटे के कारण उन्हें अपने पद से हाथ धोना पड़ सकता है तो उनकी क्या प्रतिक्रिया होती है. मेरी धारणा है कि ऐसे कोटों का अनभिप्रेत प्रभाव यह है कि वे समय-सीमाओं जैसे काम करते हैं. प्रत्याशियों को पुनर्निर्वाचन से रोकने के कारण, आरक्षणों का विकृत प्रभाव यह होता है कि चुनावी विश्वसनीयता कम हो जाती है और प्रत्याशी अपने पद की अंतिम अवधि में अपने चुनाव-क्षेत्रों में कम उत्तरदायी हो जाते हैं. और शायद इससे भी अधिक बुरा हो सकता है. मुझे तो लगता है कि ये प्रत्याशी अनुसूचित जाति और जनजाति के उन तमाम लोगों की भी अनसुनी करना शुरू कर देंगे, जिन्हें लाभान्वित करने के लिए आरक्षण दिया जाता है.
इन तर्कों का अनुभवसिद्ध मूल्यांकन करने के लिए, मैं उन संवैधानिक संशोधनों का लाभ उठाना चाहूँगी, जिनसे पंचायती राज में आरक्षण को कानूनी रूप दिया गया था; क्योंकि शासन के इस स्तर पर प्रत्येक चुनावी चक्र में गाँवों के आर-पार आरक्षण का आवर्तन (रोटेट) होना चाहिए, मैं उन प्रत्याशियों, जिन पर अगले चुनाव में जाति-आधारित आरक्षण का प्रभाव पड़ेगा, के व्यवहार की तुलना उन प्रत्याशियों के व्यवहार से करना चाहूँगी, जिन पर अगले चुनाव में जाति-आधारित आरक्षण का प्रभाव नहीं पड़ेगा. हालाँकि आगे चलकर एक ही चुनावी चक्र में सभी पदों पर किसी न किसी रूप में आरक्षण का प्रभाव तो पड़ेगा ही, लेकिन आवर्ती आरक्षण का प्रभाव केवल पदों के सबसैट पर ही पड़ेगा, जिसके कारण मुझे उन प्रत्याशियों के बीच की प्रतिक्रिया का अंतर समझने का अवसर मिलेगा जो इस नई नीति के तत्काल प्रभाव का सामना करते हैं या नहीं करते हैं. मेरा प्रश्न हैः जो लोग पुनर्निर्वाचन के पात्र हैं उनकी तुलना में वे लोग जिनके आरक्षण के कारण निकाले जाने की आशंका है, क्या उनके संसाधनों का वितरण अलग ढंग से होता है?
पंचायत-स्तर पर कर्नाटक के खर्च से संबंधित डेटा के आधार पर मैंने पाया है कि जो प्रत्याशी जाति-आधारित आरक्षण के कारण अपनी कार्यावधि सीमित हो जाने की आशंका रखते हैं, वे उन प्रत्याशियों की तुलना में, जो दुबारा से चुनाव लड़ने के पात्र होते हैं, अल्पसंख्यक मतदाताओं पर बहुत ही कम खर्च करते हैं. इसके अतिरिक्त, कोटे के माध्यम से पद पाने वाले निचली जाति के प्रत्याशी जो लाभ पाते हैं, वे इस खर्च की कमी की भरपाई नहीं कर पाते हैं. खास तौर पर मुझे उस लक्षित खर्च में भी भारी कमी दिखाई पड़ी जो अनुसूचित जाति और जनजाति को असंगत रूप में लाभान्वित करता है. इसके उदाहरण हैं, अम्बेडकर और इंदिरा आवास योजना. साथ ही मुझे ऐसा भी कोई प्रमाण नहीं मिला कि ऐसे खर्च में कमी की गई हो जिससे बड़ी आबादी लाभान्वित होती हो — इससे यही संकेत मिलता है कि ऊँची जाति के लोग अभी-भी अपने प्रत्याशियों पर सेवाएँ पाने के लिए सामाजिक दबाव डालने की स्थिति में हैं.
सचमुच इन परिणामों को आरक्षण के खिलाफ़ तर्क के रूप में मानने की भी गलती नहीं करनी चाहिए. सबसे पहली बात तो यह है कि इस शोधकार्य में सामाजिक भेदभाव, अंतर्वर्गीय संबंधों या अन्य गैर वितरक मुद्दों पर आरक्षण के प्रभाव की चर्चा नहीं की गई है. इसके बजाय इस शोधकार्य में कोटे के एक विशिष्ट नतीजे पर चर्चा की गई है - जिनमें आरक्षण का पूर्वानुमान लगाया जा सकता है, वहाँ विकृत रूप में अल्पसंख्यकों के उत्तरदायी प्रत्याशियों की प्रोत्साहन राशि कम हो जाती है.
दूसरी बात यह है कि इस शोधकार्य से यह पता चलता है कि हमें इस बात पर अधिक ध्यान देने की ज़रूरत है कि आरक्षण को कैसे लागू किया जाए. खास तौर पर मेरे नतीज़े यह बताते हैं कि जो प्रत्याशी अपने आगामी आरक्षण की स्थिति को लेकर आश्वस्त नहीं हैं, वे निचली जाति के अपने खर्चों में कमी नहीं करते. इसे प्रमाणित करने के लिए मेरे अध्ययन में आरक्षण से संबंधित उन तमाम अनुक्रमिक कार्यों की दोनों ही सामान्य प्रक्रियाओं का लाभ उठाया गया है, जिनका पूर्वानुमान लगाया जा सकता है और जिनके लिए यदा-कदा ऐसी लॉटरियों का इस्तेमाल किया गया है जिनके कारण प्रत्याशी अपने भविष्य को अनिश्चित मानने लगते हैं. उसके बाद मैं यह भी स्पष्ट करती हूँ कि जहाँ एक ओर अनुक्रमिक रूप में निर्दिष्ट प्रत्याशी व्यवस्थित रूप में उन इलाकों में खर्च में कमी कर देते हैं, जहाँ निचली जाति के लोग लाभान्वित होते हैं, वहीं दूसरी ओर लॉटरी द्वारा निर्दिष्ट प्रत्याशी इन समुदायों को लक्षित सहायता-राशि देना जारी रखते हैं. तीसरी बात यह है कि यद्यपि आरक्षण के वितरण संबंधी सीधे परिणामों के आधार पर वास्तविक कार्य मिला-जुला ही होता है, फिर भी सैद्धांतिक तौर पर इस बात पर विचार करने के ठोस कारण हैं कि कोटे के माध्यम से जातिगत अल्पसंख्यकों को सशक्त किया जाना चाहिए ताकि वे पदों पर रहते हुए अधिक प्रभावशाली भूमिका का निर्वाह कर सकें. निर्णय लेने वाले निकायों के भीतर निचली जाति के अंश को सीधे बढ़ाकर अन्य समुदायों की तुलना में उनकी सौदेबाजी की क्षमता को बढ़ाया जा सकता है. आरक्षणके कारण इन समुदायों के लोगों की पहुँच सरकारी नकदी के अंतरण, सब्सिडी जैसे सार्वजनिक लाभ के कामों में भी हो सकेगी, जिसके फलस्वरूप उनके आर्थिक और सामाजिक कल्याण की स्थिति में सुधार हो सकेगा.
मैं चाहूँगी कि नीति-निर्माता और विधायक मेरे शोध-परिणामों के आधार पर उन उपायों पर सावधानी से पुनर्विचार करें जिनकी मदद से आरक्षण के स्वरूप को अधिक प्रभावी बनाया जा सके. हालाँकि ये नीतियाँ राजनीति, रोज़गार और शिक्षा के क्षेत्र में व्याप्त असमानता को मिटाने के लिए अत्यंत लोकप्रिय और प्रभावी साधन तो बनी ही रहेंगी, मेरे शोध-पत्र से यह भी स्पष्ट हो जाता है कि कोटा न केवल पदधारकों के कल्याणकारी कार्यों को प्रभावित करता है, बल्कि उन लोगों के व्यवहार में भी बदलाव ला सकता है, जो अब उन पदों पर आसीन नहीं हैं. इस प्रकार के सोच-विचार से हम आरक्षण से मिलने वाले अधिकाधिक कल्याणकारी लाभों को ज़रूरतमंद समुदायों तक पहुँचा सकेंगे और कदाचित् “डॉ. अम्बेडकर के सपनों के समाज” के आसपास भी पहुँच सकेंगे.
रम्या पार्थसारथी स्टैनफ़ोर्ड विश्वविद्यालय के राजनीति विज्ञान विभाग में डॉक्टरेट की प्रत्याशी हैं और विश्व बैंक के उस विकास अनुसंधान विभाग में एक भाग के रूप में सामाजिक वेधशाला में अनुसंधान भागीदार हैं, जिसका उद्देश्य गरीबी-विरोधी परियोजनाओं की अनुकूलक क्षमता में सुधार लाना है.
हिंदीअनुवादःविजयकुमारमल्होत्रा, पूर्वनिदेशक(राजभाषा), रेलमंत्रालय, भारतसरकार<malhotravk@gmail.com> / मोबाइल: 91+9910029919