Penn Calendar Penn A-Z School of Arts and Sciences University of Pennsylvania

कश्मीर में संख्या की राजनीति: जनमत संग्रह से जनगणना तक (1991-2011)

Author Image
20/11/2023
विकास कुमार

जम्मू-कश्मीर में जनसंख्या संबंधी आँकड़ों का जुनून उतना ही पुराना है जितना कि राज्य के भारत में विलय और पाकिस्तान द्वारा इसके कुछ हिस्सों पर कब्ज़ा करने का विवाद. हाल ही में, 2019 में भारत के संविधान के अनुच्छेद 370 को निरस्त करने से यह आग फिर से भड़क गई, जिसने जम्मू-कश्मीर को स्वायत्तता प्रदान करने वाले प्रावधानों को छीन लिया. जहाँ एक ओर जनसंख्या के आँकड़े जम्मू-कश्मीर की राजनीति में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं, वहीं डेटा की गुणवत्ता भी विवादास्पद हो जाती है. संख्याओं की राजनीति जनगणना के आँकड़ों को आकार प्रदान करती है और उनसे आकार ग्रहण भी करती है, इस संदर्भ में विशेष रूप से 1991 और 2011 के बीच इसका बदलता स्वरूप भी विचारणीय है.

तत्कालीन जम्मू-कश्मीर भारत का एकमात्र राज्य था जो 1947 के बाद दो बार जनगणना से चूक गया, पहले 1951 में और फिर 1991 में राजनीतिक अस्थिरता के कारण. 2001 और 2011 में, जम्मू-कश्मीर में जनगणना की गई थी, लेकिन कश्मीर घाटी में आज़ादी के पक्षधर लोगों के हस्तक्षेप के कारण यह प्रक्रिया बाधित हो गई थी. उन्हें डर था कि नई दिल्ली संख्याओं में हेराफेरी करना चाहती है. भारत स्थित जम्मू-कश्मीर में तीन प्रशासनिक प्रभाग थे: जम्मू, कश्मीर और लद्दाख. जनगणना के अनुसार, कश्मीरी भाषी मुसलमान कश्मीर प्रभाग के साथ-साथ पूरे राज्य में भी बहुसंख्यक हैं.

​1990 के दशक की शुरुआत में, सशस्त्र विद्रोह के बीच सांप्रदायिक हमलों के कारण कश्मीर प्रभाग की लगभग पूरी हिंदू आबादी का पलायन हो गया था. कश्मीरी भाषी सुन्नी मुसलमान और उच्च जाति के डोगरी भाषी हिंदू, जो क्रमशः कश्मीर और जम्मू के प्रमुख समुदाय हैं, 1950 के दशक से राज्य विधानसभा में प्रतिनिधित्व और सार्वजनिक खर्च और नौकरियों में हिस्सेदारी से जुड़े मामले ज़ीरो सम गेम में बंद हैं.( हाल के दशकों में गुज्जर, बकरवाल और पहाड़ी समुदाय सार्वजनिक संसाधनों की होड़ में शामिल हो गए हैं.) इससे भी अधिक महत्वपूर्ण बात  तो यह है कि इन समुदायों की जम्मू-कश्मीर के राजनीतिक भविष्य को लेकर अलग-अलग प्राथमिकताएँ हैं. वे कुल आबादी की धार्मिक संरचना के बारे में चिंतित हैं क्योंकि यह व्यापक रूप से माना जाता है कि मुसलमानों और हिंदुओं की सापेक्ष जनसंख्या की हिस्सेदारी यह निर्धारित करेगी कि राज्य के भविष्य को कौन नियंत्रित करेगा. इसमें भारत के साथ राज्य की संबद्धता पर जनमत संग्रह का अप्रत्याशित परिदृश्य शामिल है, जैसा कि 1948 में संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद (UNSC) द्वारा अनुशंसित किया गया था जब भारत ने परिषद से संपर्क किया था और पाकिस्तान द्वारा समर्थित कबाइली हमलावरों ने इस इलाके पर हमला किया था.

यही कारण है कि प्रत्येक राजनीतिक कदम और प्रशासनिक नीति को कश्मीर घाटी के संख्यात्मक प्रभुत्व के निहितार्थ के लिए विश्लेषित किया जाता है, जो इसे - और विस्तार से इसकी मुस्लिम-बहुसंख्यक आबादी - को विधान सभा में बड़ी संख्या में सीटें देता है. परंतु, संख्या की राजनीति पिछले कुछ दशकों में बदल गई है, जिसे घाटी में मर्दमशुमारी (जनगणना) और रायशुमारी (जनमत संग्रह) के बीच तनाव से समझाया जा सकता है. हम इस बदलती राजनीति के तीन पुनरावृत्तियों की जाँच करेंगे.

1991 की जनगणना
1991 की जनगणना शेष भारत के साथ जम्मू-कश्मीर में भी निर्धारित की गई थी, लेकिन अंततः इसकी शुरुआत की तारीख से बमुश्किल एक सप्ताह पहले रद्द कर दी गई क्योंकि "इस इलाके के हालात " गणना के अनुकूल नहीं थे. हालाँकि, उल्लेखनीय बात यह है कि 1990-91 में उग्रवाद घाटी तक ही सीमित था, जबकि लद्दाख और जम्मू के अधिकांश जिले हिंसा से मुक्त थे.जनगणना और चुनाव पंजाब में दोनों ही हुए, जबकि पूरे जम्मू-कश्मीर राज्य में जनगणना और चुनाव नहीं हुए.जहाँ एक ओर जनगणना की गतिविधियों को विद्रोहियों द्वारा ठप्प करने की धमकी दी जा रही थी और श्रीनगर में जनगणना कार्यालय को जला दिया गया था, लेकिन यह स्पष्ट नहीं हो पाया कि क्या जनगणना को विशेष रूप से लक्षित किया गया था क्योंकि 1990 के दशक की शुरुआत में पूरी सरकारी मशीनरी पर हमला हुआ था. 1991 में जनगणना रद्द करने का प्राथमिक कारण विद्रोह की तीव्रता के बजाय सामान्य प्रशासन के भीतर अव्यवस्था थी (जनगणना 2000-01 में भी की गई थी, जो उग्रवाद का सबसे हिंसक वर्ष था).

सशस्त्र विद्रोह ने 1990 के दशक की शुरुआत में चुनाव और जनगणना को बाधित किया और देश के भीतर और बाहर दोनों जगह केंद्र सरकार को "शर्मिंदा" किया. इसलिए, 1990 के दशक के उत्तरार्ध में, नई दिल्ली ने जनगणना को फिर से शुरू करने और देश का एक सामूहिक खाका तैयार करने के लिए दृढ़ संकल्प किया था जिसमें मुस्लिम-बहुल जम्मू-कश्मीर भी शामिल था. एक धर्मनिरपेक्ष आधुनिक लोकतंत्र के रूप में भारत की छवि को बहाल करने के लिए जनगणना और चुनाव जैसी गतिविधियों को फिर से शुरू करना आवश्यक माना गया. परंतु, तब तक उग्रवाद और सरकार की जवाबी कार्रवाई ने न केवल सार्वजनिक वस्तुओं (आँकड़ों को मिलाकर) की सप्लाई करने वाले सामान्य प्रशासन को कमजोर कर दिया था, बल्कि क्षेत्रीय और सांप्रदायिक ध्रुवीकरण को भी गहरा कर दिया था, जिससे सार्वजनिक वस्तुओं के प्रावधान पर आम सहमति बनाना मुश्किल हो गया था. इन परिस्थितियों में जनगणना कराने पर सरकार के ज़ोर देने का मतलब था कि गुणवत्ता की तुलना में आँकड़ों की उपलब्धता को प्राथमिकता दी गई थी.

2001 की जनगणना
यह एक बड़ा परिप्रेक्ष्य है जिसमें हिज़बुल मुजाहिद्दीन (HM) जैसे विद्रोही और सशस्त्र उग्रवादी संगठनों ने 2000 में जनगणना के बहिष्कार का आह्वान किया और अधिकारियों को इस गतिविधि में भाग लेने के खिलाफ़ चेतावनी दी. कम से कम एक सरकारी कर्मचारी संघ के नेता ने अपने सदस्यों से उनकी सुरक्षा के हालात सुधरने तक जनगणना की ड्यूटी को छोड़ने के लिए कहा. ध्यान दें कि 1 अक्तूबर, 2000 जम्मू-कश्मीर की 2001 की जनगणना के लिए संदर्भ तिथि थी. लेकिन, इस संदर्भ तिथि को बहिष्कार के आह्वान के कारण सभी जिलों में अलग-अलग क्षेत्रों में स्थगित कर दिया गया था, जिससे पूरी घाटी और जम्मू के डोडा जिले में जनगणना गंभीर रूप से बाधित हो गई थी. समसामयिक टिप्पणी के कारण इस बहिष्कार को अलगाववादी विद्रोह की एक और घटना के रूप में सूचीबद्ध कर लिया गया.

हिज़बुल मुजाहिद्दीन (HM) के बहिष्कार को कई अलग-अलग नज़रियों से देखा जा सकता है. सबसे पहले तो इसे नई दिल्ली की संप्रभुता के दावे को सामान्य बनाने वाली गतिविधियों को स्वीकार करने से इनकार के तौर देखा जा सकता है. दूसरा, यह जनसांख्यिकीय परिवर्तन के बारे में घाटी में सांप्रदायिक चिंता को दर्शाता है जिससे जम्मू-कश्मीर के मुस्लिम बहुसंख्यक स्वरूप को बदला जा  सकता है. हालाँकि ये लंबे समय से चली आ रही व्यापक चिंताएँ बहिष्कार के औचित्य का कारण बन सकती हैं, लेकिन वे उन कारकों को अस्पष्ट छोड़ देते हैं जिन्होंने बहिष्कार को जन्म दिया और इसे लागू किया. यहीं तीसरा नज़रिया सामने आता है. आज़ादी के समर्थक समूहों और केंद्र सरकार के बीच हाल ही के संबंधों की छाया में आज़ादी-समर्थक समूहों और राजनीतिक दलों के बीच की होड़ 2001 की जनगणना के राजनीतिकरण को बेहतर ढंग से समझने में मदद कर सकती है. हिज़बुल मुजाहिद्दीन (HM) और केंद्र सरकार के एक वर्ग के बीच सीधे जुड़ाव की संभावना ने हुर्रियत कॉन्फ्रेंस को परेशान कर दिया, जो कश्मीर को भारत से अलग करने के लिए अभियान चलाने वाले राजनीतिक और धार्मिक संगठनों का एक भूमिगत गठबंधन है और जो घाटी का सच्चा प्रतिनिधि होने का दावा करता है.

हिज़बुल मुजाहिद्दीन (HM) और हुर्रियत के बीच गंभीर मतभेद उभरने लगे. हिज़बुल मुजाहिद्दीन (HM) ने हुर्रियत को युद्धविराम की पहल पर हमला करने के बजाय "मुसलमानों के खिलाफ रची जा रही साजिशों" पर ध्यान केंद्रित करने की सलाह दी. जम्मू-कश्मीर की जनसांख्यिकी को बदलने के लिए जनगणना का संभावित उपयोग उन साजिशों में से एक था जिसे हिज़बुल मुजाहिद्दीन (HM) ने उजागर किया था. हालाँकि दोनों पक्षों में जल्द ही समझौता हो गया, लेकिन जनगणना का राजनीतिकरण और संप्रदायीकरण अपरिवर्तनीय सिद्ध हुआ.

लगभग इसी समय, सत्तारूढ़ नेशनल कॉन्फ्रेंस 2002 के विधानसभा चुनावों से पहले सत्ता विरोधी लहर से जूझ रही थी. सत्तारूढ़ नेशनल कॉन्फ्रेंस पाँचवें वेतन आयोग की सिफारिशों के कार्यान्वयन से उत्पन्न दोहरे दबावों के बीच अपने राजनीतिक वर्चस्व की रक्षा के लिए संघर्ष कर रही थी, आयोग की सिफारिशों के कारण राज्य के वित्तीय हालात भी बिगड़ गये थे और विकास संबधी पहलों के लिए राजकोषीय स्थान भी कम हो गया था और आज़ादी-समर्थक समूहों के लिए नई दिल्ली तक उनकी पहुँच के साथ-साथ राज्य सरकार की पक्षपातपूर्ण स्वायत्तता रिपोर्ट अस्वीकार कर दी गई थी.  सैफ़-उद्दीन सोज़ एक ऐसे राजनेता हैं, जिन्हें कुछ साल पहले व्हिप का उल्लंघन करने के लिए नेशनल कॉन्फ्रेंस से निकाल दिया गया था और अब उन्होंने खुद को कश्मीर की प्रामाणिक आवाज़ के रूप में पेश करने के लिए जनगणना की निष्पक्षता पर सवाल उठाना शुरू कर दिया है. जनसांख्यिकीय परिवर्तन के कथित खतरे को विस्तार से बताने के लिए हिज़बुल मुजाहिद्दीन (HM) के बहिष्कार के आह्वान के बाद सोज़ ने दो प्रैस बयान जारी किए.

इसलिए, हाल ही की शांति प्रक्रिया से उत्पन्न राजनीतिक अनिश्चितता के बीच, मुख्यधारा के राजनीतिक दलों और आज़ादी-समर्थक खेमे के विभिन्न अभिनेताओं ने राज्य की जनसांख्यिकीय संरचना के लिए कथित खतरे से भड़की सांप्रदायिक भावनाओं का फायदा उठाकर अपने समर्थन आधार को सुरक्षित करने की कोशिश की.

2011 की जनगणना
2011 की जनगणना तक का लंबा दौर 1980 और 1990 के दशक की याद दिलाने वाले जनसांख्यिकीय विवादों से भरा हुआ था. लेकिन, इस बार आज़ादी-समर्थक समूहों ने कश्मीर के जनसांख्यिकीय प्रभुत्व को कम करने और राज्य की विधायिका और विकास निधि में हिस्सेदारी को कम करने के प्रयासों को रोकने के लिए जनगणना (और चुनाव) में भाग लेने का आह्वान किया. इसे आकस्मिक घटनाक्रम के तौर पर नहीं देखा जाना चाहिए. सबसे पहले, 2001 की जनगणना के दौरान भी, कश्मीर के भीतर कुछ समुदाय इस जनगणना की प्रक्रिया के समर्थक थे. गुज्जर और बकरवाल जनजातियाँ, जो जम्मू-कश्मीर का तीसरा सबसे बड़ा जनसंख्या समूह हैं और जिनकी कश्मीर में महत्वपूर्ण उपस्थिति है, ने "अपनी गणना में असाधारण रुचि दिखाई" क्योंकि वे राज्य के विकास के लिए जनगणना को आवश्यक मानते थे. लेकिन, उन्होंने अन्य बातों के अलावा, तथ्य-सिद्ध पद्धति (de facto method) के तहत समुदाय के खानाबदोश हिस्से की कम गिनती के बारे में चिंताओं को दूर करने के लिए कदम उठाने की माँग की (जिसमें व्यक्तियों की गिनती की जाती है जहाँ वे गणना की अवधि के दौरान सामान्य रूप से रहते हैं).

दूसरा, यहाँ तक कि 2001 की जनगणना पर हिज़बुल मुजाहिद्दीन (HM) के हमलों को सांख्यिकीय तथ्य-सिद्ध पद्धति (de facto method) के तहत भारत के राज्य की वैधता के बारे में इसकी पुरानी और व्यापक चिंताओं के अलावा (प्रवासियों की कम गिनती के बारे में चिंताएँ) और विकास संबंधी (यदि कश्मीर बहुमत खो देता है तो "मुसलमानों के लिए विकास के रास्ते में रुकावट का डर) शर्तों के आधार पर तैयार किया गया था.

तीसरा, भारत की राजनीतिक रूप से अशांत जातीय-भौगोलिक परिधि में सार्वजनिक हिस्से का एक बड़ा हिस्सा सुरक्षित करने के लिए जनगणना के हिंसक विरोध से लेकर इसमें हेराफेरी तक एक अधिक सामान्य बदलाव दिखाई पड़ता है.

ये हालात 2001 में नागालैंड और मणिपुर जैसे राज्यों में भी देखे गए थे. इस परिधि में ऐसे बदलाव को 1990 के दशक की शुरुआत में दोहरे विकास के परिप्रेक्ष्य में देखा जा सकता है. एक ओर, शीत युद्ध की समाप्ति के बाद, राष्ट्रवादी विद्रोह पुनर्वितरण को लेकर उप-राष्ट्रवादी संघर्षों में बदल गए. दूसरी ओर, अर्थव्यवस्था के उदारीकरण के बाद विकास के मामले में राज्य के पीछे हटने से आर्थिक रूप से स्थिर परिधि में सार्वजनिक संसाधनों पर कब्जा करने की ज़रूरत बढ़ गई, जहाँ सार्वजनिक संस्थानों की निष्पक्षता में भरोसा पहले ही कम है. इसलिए, परिधि का डेटा संबंधी घाटा उसके लोकतंत्र और विकास के घाटे के साथ जुड़ा हुआ है. इसलिए, 1991-2011 के दौरान जनगणना के आसपास बदलती राजनीति को मुख्यधारा के राजनीतिक अभिनेताओं और आज़ादी-समर्थक समूहों के बीच होड़ का कारण माना जा सकता है, जो बदले में, अर्थव्यवस्था के उदारीकरण द्वारा परिभाषित बड़े राजनीतिक-आर्थिक संदर्भ में सामने आया और शीत युद्ध की समाप्ति के कारण खेल के नियमों में नये बदलाव आ गए. जनगणना के आँकड़ों और सार्वजनिक नीति की गुणवत्ता पर इन गैर-जनसांख्यिकीय गतिविधियों के प्रभाव की एक अलग ही कहानी है.

विकास कुमार अजीम प्रेमजी विश्वविद्यालय, बेंगलुरु में अर्थशास्त्र पढ़ाते हैं और Numbers as Political Allies: The Census in Jammu and Kashmir (Cambridge University Press, 2023).

 

हिंदी अनुवादः डॉ. विजय कुमार मल्होत्रा, पूर्व निदेशक (हिंदी), रेल मंत्रालय, भारत सरकार

Hindi translation: Dr. Vijay K Malhotra, Director (Hindi), Ministry of Railways, Govt. of India

<malhotravk@gmail.com> / Mobile : 91+991002991/WhatsApp:+91 83680 68365