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जुनून की राजनीति: लोकतंत्र, विकास और भारत के 2019 के आम चुनाव

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11/03/2024
इंद्रजीत रॉय

अप्रैल-मई 2024 में होने वाले भारत के आम चुनावों में, सत्तारूढ़ भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) अपने 2019 के प्रदर्शन को, बेहतर न सही तो दोहराने की उम्मीद ज़रूर कर रही है. उन चुनावों में, उनकी पार्टी और उसके सहयोगियों ने 45 प्रतिशत वोट शेयर हासिल किया था और 543 सदस्यीय लोकसभा में 300 से अधिक सीटें जीती थीं. कुछ पर्यवेक्षकों ने इतनी भारी जीत की आशा की थी, जिसके लिए प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी के करिश्माई व्यक्तित्व, भाजपा के बेहतर पार्टी संगठन और वित्तीय बंदोबस्त के उच्च स्तर और हिंदुत्व, राष्ट्रवाद और सामाजिक कल्याण के कुशल मिश्रण जैसे कारकों को जिम्मेदार ठहराया गया था. जनवरी 2024 में अयोध्या में राम मंदिर के उद्घाटन से उत्पन्न उत्साह के आधार पर, भाजपा 2024 के चुनावों में 400 सीटों का आँकड़ा पार करने का लक्ष्य लेकर चल रही है.  

जैसे-जैसे चुनाव नजदीक आते हैं, हम विश्लेषकों से उन्हीं सवालों पर विचार करने की उम्मीद कर सकते हैं: लोग इस तरह से मतदान क्यों करते हैं? वे कौन-से तत्व हैं जो भारत और अन्य स्थानों पर मतदाताओं को कुछ पार्टियों के लिए भारी मतदान करने और दूसरों की उपेक्षा करने के लिए प्रेरित करते हैं? क्या मतदाता सचमुच तर्कसंगत होते हैं या मात्र भावनात्मक जीव? एक ओर विरोध की राजनीति, सामाजिक आंदोलनों और दंगों के संदर्भ में भावनाओं की भूमिका पर हमारी जानकारी और विद्वत्ता बढ़ रही है, वहीं हम इस गलत धारणा के भी शिकार होते हैं कि चुनावी राजनीति के लिए भावनाओं का कोई महत्व नहीं होता.

भारतीय मतदाताओं को समझने के विद्वत्तापूर्ण प्रयासों के कारण अक्सर इन मुद्दों पर उनकी प्रतिक्रिया का आकलन करने पर ध्यान केंद्रित किया जाता है, जैसे अर्थव्यवस्था, बेरोजगारी, कल्याणकारी योजनाएँ - या जाति, वर्ग और धर्म के चश्मे से उनकी पहचान की राजनीति की जाँच करना. उदाहरण के लिए, प्रतिष्ठित लोकनीति राष्ट्रीय चुनाव अध्ययन के अंतर्गत भारत में राजनीतिक गतिविधियों के बारे में मतदाताओं की जानकारी, जागरूकता और धारणाओं का व्यापक रूप से दस्तावेजीकरण किया जाता है, जो चुनावी राजनीति से उत्पन्न भावनाओं और जुनून पर पर्याप्त ध्यान दिए बिना उनके राजनीतिक व्यवहार को प्रभावित कर सकता है..

चुनावी राजनीति में भावनाओं की उपेक्षा ने सामाजिक वैज्ञानिकों को भारत के लोकतंत्र के प्रमुख स्तंभ: चुनावों में भावनाओं के महत्व को नजरअंदाज करने के लिए प्रेरित किया है. इस बीच, चुनावों का तेजी से वैज्ञानिक विश्लेषण भावनाओं के अध्ययन को एकीकृत करने के लिए और अधिक कारगर हो सकता है. जुनून का अध्ययन नियमित चुनावी राजनीति पर विद्वत्ता में कहाँ फिट बैठता है?

हाल ही में स्वयं द्वारा संपादित पुस्तक “जुनून की राजनीति: लोकतंत्र, विकास और भारत के 2019 के आम चुनाव” में लेखकों और मैंने उन भावनाओं को उजागर किया है जो तीन साल से भी कम समय पहले उच्च मुद्रा नोटों के विमुद्रीकरण जैसी विनाशकारी आर्थिक नीतियों के परिणामस्वरूप लोगों द्वारा झेली गई स्पष्ट आर्थिक कठिनाइयों के बावजूद उस वर्ष के चुनावों में मोदी और उनकी पार्टी को मिले ज़बर्दस्त समर्थन पर आधारित थीं.

जुनून भरी राजनीति में भावनाओं पर ध्यान केंद्रित करके हम मतदाताओं को उनकी तार्किकता से भटकाने का प्रयास नहीं करते. भावनाएँ तर्करहित नहीं होतीं. परिभाषा के अनुसार, हम केवल उन घटनाओं या स्थितियों का ही मूल्यांकन करते हैं जो हानिकारक या लाभकारी होती हैं. तंत्रिका विज्ञानियों (Neuroscientists) ने यह सिद्ध किया है कि भावनाएँ तार्किकता का समर्थन करती हैं और इसे महत्व और लक्ष्य भी प्रदान करती हैं. इसके अलावा, भावनाएँ आंतरिक रूप से समाज से जुड़ी होती हैं, क्योंकि वे आर्थिक, सांस्कृतिक और राजनीतिक प्रक्रियाओं में अंतर्निहित हैं.

अन्य विद्वानों ने दक्षिण एशिया में भावनाओं का अध्ययन करना शुरू कर दिया है और साथ ही सोचने लगे हैं कि वे क्या मायने रखती हैं. इतिहासकार मार्ग्रिट पेरनौ मानती हैं कि भावनाएँ तीन अलग-अलग स्तरों पर मायने रखती हैं. सबसे पहले, वे मनुष्यों के अपने आसपास की दुनिया को अनुभव करने के तरीके को प्रभावित करती हैं. दूसरा, वे उस प्रक्रिया को आकार देती हैं जिसके माध्यम से व्यक्ति (और सामाजिक समूह) अपने अनुभवों को अर्थ प्रदान करते हैं और दुनिया को समझते हैं. तीसरा, भावनाएँ दुनिया की व्याख्या को अभिनय में बदलने की प्रेरणा प्रदान करती हैं. भावनाओं की यह समझ भावनात्मक और तर्कसंगत विश्लेषण और जुनून और कारण के बीच द्वंद्व पैदा करने के प्रति हमें सावधान करती है. वास्तव में, जिस तरह तर्कसंगत हितों की खोज कभी भी भावनात्मक रूप से तटस्थ नहीं होती है, उसी तरह जुनून भी अक्सर अपने खुद के तर्क में निहित होते हैं. दक्षिण एशिया में भावनाओं की राजनीति पर अपनी अंतर्दृष्टिपूर्ण टिप्पणी में, मानवविज्ञानी एमेली ब्लॉम और स्टेफ़नी तवा लामा-रेवाल ने भावनाओं के प्रतिनिधित्व, इसे अनुभव करने के तरीकों और इसकी अभिव्यक्ति के बीच के अंतर को रेखांकित किया है. भावनाओं का प्रतिनिधित्व यह दर्शाता है कि दूसरे लोग आम आदमी लोगों की भावनाओं का प्रतिनिधित्व कैसे करते हैं. भावनाओं की अभिव्यक्ति मौखिक और गैर-मौखिक मार्करों पर आधारित होती है, जिसमें उत्तरदाता कैसा महसूस करते हैं इसकी आत्म-रिपोर्टिंग भी शामिल होती है. भावनाओं का अनुभव उन भावनाओं से संबंधित है जो लोग वास्तव में महसूस करते हैं.

भारत के विद्वानों ने अपना ध्यान देश में भावनाओं की राजनीति की ओर लगाया है, क्योंकि इतिहासकार और मानवविज्ञानी हमें समृद्ध और व्यापक दृष्टिकोण प्रदान करते हैं. भारतीय राजनीति का परिदृश्य ऐसे क्षणों से भरा पड़ा है जब जुनून, भावनाएँ और उद्वेग पूरे आवेग पर थे. जुनून अब भारत के विभाजन और सांप्रदायिक हिंसा जैसी विनाशकारी घटनाओं पर केंद्रित हो गया है, जिसने लोकतंत्र के रूप में भारत के रिकॉर्ड को विकृत कर दिया है, गोरक्षा अभियान जैसे जन आंदोलन, सकारात्मक कार्रवाई के कार्यान्वयन के खिलाफ आंदोलन और महिलाओं, बच्चों और दलित समाज पर होने वाले अत्याचारों के खिलाफ सामूहिक विरोध होने लगा है. वास्तव में, ऐसी आकर्षक गतिविधियों का अधिकांश भाग सामाजिक आंदोलनों, समुदाय-निर्माण और सामूहिक कार्रवाई पर केंद्रित रहता है, जिसमें विरोध प्रदर्शन, दंगे और आक्रोश प्रदर्शन, आहत होने और हिंसक प्रदर्शन शामिल हैं. हमारे पास गर्व, अपमान और राष्ट्रवाद के संदर्भ में भावनाओं के कुछ उत्कृष्ट अध्ययन मौजूद हैं.

फिर भी, चुनावी राजनीति में भावनाओं के सीधे सवाल पर पर्याप्त काम नहीं किया गया है, जिसमें यह भी शामिल है कि वे नियमित लोकतांत्रिक परंपराओं पर कैसे लागू होती हैं. भारत की प्रमुख पार्टी के रूप में अपने उत्कर्ष के दिनों में, कांग्रेस पार्टी को ऐसी भावुक राजनीति से काफी फायदा हुआ होगा. भारतीय गणतंत्र बनने के बाद 1951-52 में आयोजित पहले आम चुनाव में भारत के पहले प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू के नेतृत्व में कांग्रेस पार्टी ने 45 प्रतिशत वोट हासिल किये थे और 489 संसदीय सीटों में से 364 सीटें जीती थीं. दूसरे आम चुनाव में कांग्रेस पार्टी के वोट शेयर में और भी सुधार हुआ और यह शेयर बढ़कर 47 प्रतिशत हो गया और सीटों का शेयर बढ़कर 371 हो गया. सन् 1971 में इंदिरा गाँधी ने 43 प्रतिशत वोट शेयर हासिल करके 543 में से 352 सीटें जीत ली थीं. यह वोट शेयर सन् 1919 में मोदी द्वारा जीते गए वोट शेयर से कम था. इन तीनों मामलों में मतदाताओं के जुनून के कारण ही कांग्रेस पार्टी भारी बहुमत से विजयी हुई थी. अफसोस की बात है कि हम मतदाताओं की उन भावनाओं के बारे में बहुत कम जानते हैं जिसके कारण कांग्रेस पार्टी को इतना भारी बहुमत मिला था.

इस पुस्तक का उद्देश्य यह समझने में योगदान देना है कि कैसे चुनाव के रूप में राजनीति के नियमित पहलुओं में जुनून व्याप्त हो जाता है. पुस्तक में वर्णित जुनूनी राजनीति उन जुनूनों से अलग है जो विरोध प्रदर्शन, दंगों और सामाजिक आंदोलनों जैसे विशाल आयोजनों के दौरान उत्पन्न होते हैं. इसके बजाय, इसका उद्देश्य चुनावों के दौरान, पहले और बाद में दिखाई देने वाले जुनून का स्पष्ट रूप से विश्लेषण करना है, साथ ही 2019 के आम चुनावों की समझ बनाने के लिए उन्हें सही संदर्भ प्रदान करना है. एकल अनुभवजन्य मामले पर यह पुस्तक राजनीति में जुनून के अध्ययन पर एक सैद्धांतिक योगदान को आगे बढ़ाती है - वह भावना तर्क के साथ जुड़ी हुई है, जिसका योगदान झूठे द्वंद्व को अस्थिर करने में होता है जो अक्सर भावनात्मक और तर्कसंगत के बीच पैदा हो जाती है.

राजनीति में भावनाओं से जुड़ने के यह प्रयास, जैसा कि हमारे पुस्तक में है, भारत के 2009 के आम चुनावों के शानदार नृवंशविज्ञान की मानवविज्ञानी मुकुलिका बनर्जी द्वारा नवप्रवर्तित मार्गों पर आधारित है. उनकी यह पुस्तक चुनावों से जुड़े “सामान्य भारतीयों’ के अनुभवों और उनके लिए चुनाव का क्या मतलब है, पर केंद्रित है. उस पुस्तक में चर्चा किये गए "मतदान के अभिव्यंजक कार्य" जैसे मुद्दों और राजनेताओं के प्रति उनकी भावनाओं और उद्वेगों से उबरे हैं जो पत्रकारों, शिक्षाविदों और कार्यकर्ताओं को मोदी या हिंदू राष्ट्रवाद की तुलना में बहुत कम दिलचस्प लग सकते हैं भारत में चुनावी लोकतंत्र को रेखांकित करने वाली जुनूनी राजनीति को बेहतर ढंग से समझने के लिए, हमें राजनीतिक वैज्ञानिकों, अर्थशास्त्रियों, समाजशास्त्रियों और मानवविज्ञानियों के बीच हमारी लोकतांत्रिक प्रथाओं के इस महत्वपूर्ण, लेकिन कम समझे गए तत्व की जाँच करने और उस पर और अधिक बातचीत की आवश्यकता है.

इंद्रजीत रॉय यॉर्क विश्वविद्यालय में राजनीति और अंतर्राष्ट्रीय संबंध विभाग में वैश्विक विकास राजनीति के प्रोफेसर हैं, और कैम्ब्रिज कम्पेनियन टु इंडियन पॉलिटिक्स ऐंड सोसायटी (आगामी, कैम्ब्रिज युनिवर्सिटी प्रेस, 2024) के सह-संपादक हैं. उन्होंने Passionate Politics: Democracy, Development and India’s 2019 General Elections (Manchester University Press, 2023) का संपादन किया, जो 2019 के आम चुनावों की पूर्व संध्या पर किये गए संवाद के लिए उनके द्वारा संपादित "इंडिया टुमॉरो" पॉडकास्ट पर आधारित थी.  उनकी सबसे हालिया किताब Audacious Hope: An Archive of How Democracy is Being Saved in India का पिछले महीने जयपुर लिटरेचर फेस्टिवल में लोकार्पण किया गया था और अब यह ऑर्डर के लिए उपलब्ध है.

हिंदी अनुवादः डॉ. विजय कुमार मल्होत्रा, पूर्व निदेशक (हिंदी), रेल मंत्रालय, भारत सरकार

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