अप्रैल के मध्य में नई दिल्ली में आयोजित वार्षिक एच.वाई.शारदा प्रसाद स्मारक व्याख्यानमाला के अंतर्गत इतिहासकार रामचंद्र गुहा ने एक व्याख्यान दिया था, जिसका विषय था, “ऐतिहासिक जीवनी की कला और शिल्प”. गुहा ने अपने व्याख्यान में विस्तार से इस प्रकार के लेखन के मूल्य को रेखांकित करते हुए अच्छी जीवनी की विशेषताओं पर भी प्रकाश डाला था. साथ ही उन्होंने एक सवाल भी उठाया था, जो उनके लेखन में भी उभरकर सामने आता है. खास तौर पर ‘द लिबरल ऐंड अदर एस्सेज़’के अंतिम अध्याय में आपने इसका उल्लेख किया है. क्या कारण है कि भारत में अनेक विचित्र प्रकार की जटिलताओं से भरपूर महान् व्यक्तित्वों को होते हुए भी ऐतिहासिक जीवनियों की कमी रही है? आखिर क्यों यात्रा साहित्य, संस्मरण, निबंध, जीवनियों, पत्रकारिता और लोकप्रिय ऐतिहासिक रचनाओं के रूप में विशाल वर्णनात्मक कथेतर साहित्य, शैक्षणिक कथेतर साहित्य से काफ़ी भिन्न है – केवल अब जाकर भारत में अस्थायी तौर पर अपने स्वरूप में इसकी शुरुआत होने लगी है?
एक अभ्यास के रूप में इसकी कल्पना सिद्धांतों के माध्यम से करना दिलचस्प रहेगा, क्योंकि तभी इसे एक विलक्षण तत्व के रूप में समझा जा सकेगा, भले ही कुछ सिद्धांत दूसरे सिद्धांतों की तुलना में बहुत कमज़ोर लगते हों. उदाहरण के तौर पर भारतीय मानसिकता को अपने-आप में ही देखा जा सकता है. यह मानसिकता अपने आपमें व्यापक और शायद जटिल भी है. अक्सर कहा जाता है कि भारतीय अपने इतिहास की ज़्यादा परवाह नहीं करते. यह बात विश्वविद्यालयों में स्थित उनके इतिहास के विभागों, उनके स्मारकों और उनके पुरातत्व विभागों की उपेक्षा से भी प्रकट होती है. नई दिल्ली स्थित सैंट स्टीफ़न कॉलेज के अंग्रेज़ी विभाग के पूर्व अध्यक्ष श्री एम.एम. भल्ला ने सन् 1963 में प्रसारित अपनी रेडियो वार्ता में कहा था, “ हमारी इतिहास-विरोधी चेतना ने हमारे दृष्टिकोण को धुँधला कर दिया है, वास्तविक जीवन के प्रति उपेक्षा का भाव पैदा कर दिया है, जिसके कारण समाज में व्यक्ति के स्थान को लेकर एक प्रकार की अनिश्चितता और शंका का भाव पैदा हो गया है और तथ्यों के प्रति एक प्रकार की उदासीनता हमारे मस्तिष्क में घर कर गई है.” हालाँकि यह स्पष्टीकरण बहुत व्यापक और निश्चित-सा लगता है, लेकिन इससे यही संकेत मिलता है कि ऐतिहासिक चेतना का संभावित रूप एक ही है.
गुहा ने स्वयं एक प्रबल परिकल्पना हमारे सामने रखी हैः भारत में पिछली सदी में एक ज़बर्दस्त मार्क्सवादी बौद्धिक परंपरा ने व्यक्ति की उपेक्षा करके एक ऐसे समाज की रचना की है, जिसकी अपनी कोई पहचान नहीं है. इस परिकल्पना में मैं एक ऐसा विचारबिंदु जोड़ना चाहूँगा, जो के. आर. रामानुजन के एक मौलिक निबंध “क्या भारतीय चिंतन जैसी कोई परंपरा है ?” से लिया गया है. खास तौर पर इसके साहित्यिक पाठ में रामानुजम ने संदर्भ मुक्त नहीं, बल्कि संदर्भ-सापेक्ष विचार की चर्चा की है. किसी भी व्यक्ति को पूरी तरह से उसके परिवेश के पहलुओं से ही परिभाषित किया जा सकता है. “ गाँव की जिस मिट्टी से लोगों के लिए फसलें उगती हैं, उससे ही उनका चरित्र भी प्रभावित होता है....घर की अपनी मानसिकता और चरित्र होता है....वे उनके अंदर रहने वाले निवासियों के भाग्य और मानसिकता को बदल सकते हैं.” कुछ लोगों के लिए समय कुछ घंटों के लिए शुभ हो सकता है और कुछ लोगों के लिए नहीं. यही वास्तव में जाति की परिकल्पना है. यहाँ तक कि मानव भावनाओं को भी नवरस के रूप में सूत्रबद्ध किया गया है. अगर आप किसी व्यक्ति के परिवेश के इन संदर्भों को अच्छी तरह से समझ सकते हैं तो आप उसे परिभाषित भी कर सकते हैं. ऐसी परंपरा में व्यक्ति क्षीण होता चला जाता है.
भारत के जनसांख्यिकीविद एक और संभावित सिद्धांत हमारे सामने रखते हैं: घनी आबादी वाले और विविधता से भरे देश के बारे में और उसके आम निवासियों की विवशताओं के बारे में बताना कठिन है. एक व्यक्तिविशेष के बारे में लिखते समय उससे जुड़ी चिंताएँ भी सामने आ जाती हैं, लेकिन उसकी कहानी किसी समाज का प्रतिनिधित्व नहीं कर सकती, उसकी अपील व्यापक नहीं हो सकती. इससे बेहतर तो यही है न कि इतिहास को अलग-अलग और व्यापक कालखंडों में ही लिखा जाए? नीरद चौधुरी ने इस दुविधा को The Autobiography of an Unknown Indian में संक्षेप में इस तरह से प्रस्तुत किया है. “ यह अनकहा दुराव पूरी पुस्तक में ही व्याप्त है. यह एक ऐसा दुराव है जो प्रत्येक सामान्यीकरण में अनेक अपवादों की तरह है. भारत जैसे विशाल और भारी आबादी वाले देश में अगर कोई व्यक्ति अपवाद है तो यह अपवाद भी लाखों में हो सकता है. इनकी तादाद अधिक होते हुए भी और उन्हें स्वतंत्र रूप में लेने के बावजूद भी जब लाखों-करोड़ों लोगों में उनका औसत निकाला जाता है तो उनकी संख्या भी नगण्य ही दिखाई पड़ती है.”
यहाँ उनकी लेखन शैली बेहद अंतरंग और व्यक्तिगत है. इसमें व्यक्ति को, उसके अनुभवों को और उसके परिवेश के साथ उसके संबंध को महत्व दिया गया है और उसके चरित्र के विकास को दिखाया गया है. वस्तुतः यही उपन्यास का काम भी है. इसलिए संक्षेप में यही कहा जा सकता है कि उपन्यास का विकास-क्रम वर्णनात्मक कथेतर साहित्य के विकास के लिए आवश्यक लक्षण है. निश्चय ही पश्चिम में उपन्यास का स्वरूप पुराना है. यदि हम पैट्रोनियस के Satyricon और ऐपूलियस के The Golden Ass, जो विवादास्पद रूप में उपन्यास हैं और दो हज़ार साल पुराने हैं, को छोड़ भी दें तो भी सन् 1470 में प्रकाशित थॉमस मैलोरी के Morte d’Arthur या 1561 में प्रकाशित विलियम बाल्डविन के Beware the Cat या 1605 में प्रकाशित Don Quixote को ले सकते हैं.
लेकिन भारत में भी उपन्यास की विधा नयी नहीं है. हालाँकि कुछ विद्वान् हसन शाह की कृति The Nautch Girl (1790 में यह फ़ारसी में प्रकाशित हुई थी ) को पहला भारतीय उपन्यास मानते हैं, तो भी हम बाणभट्ट की कादंबरी को और दंडी के दशकुमारचरित को भी इस विधा के उदाहरणों के रूप में सामने रख सकते हैं. ये दोनों ही संस्कृत की कृतियाँ सातवीं सदी में रची गई थीं. उपन्यास से मिलती-जुलती कृति शिलातिकरम नामक महाकाव्य एक पायल की कहानी भी 5वीं या छठी सदी में रची गई थी. इसका आकार महाकाव्य जैसा ही है और इसमें लंबे गीतों और काव्य की भरमार है. इससे यह स्पष्ट है कि मानव जीवन की गाथाओं के उपन्यासनुमा वर्णनात्मक शिल्प का प्रचलन हमारे यहाँ सदियों से रहा है, फिर भी इसकी प्रेरणा से कथेतर साहित्य की समानांतर शैली विकसित नहीं हुई.
हम अनुमान तो लगा ही सकते हैं कि अन्य धाराओं के साथ-साथ कथेतर साहित्य की समृद्ध परंपरा के अभाव की सबसे अधिक व्यापक व्याख्या तो संस्थागत ही हो सकती है. सभी तरह के गंभीर और महत्वाकांक्षी लेखन को पनपने में समय लगता है और मौलिक कथेतर साहित्य को रचने के लिए कितने ही महीनों या बरसों का अनुसंधान और लेखन आवश्यक होता है. विश्वविद्यालय जैसी संस्थाएँ, शोध-पत्रिकाएँ और पत्रिकाएँ आदि सरकारी अनुदान के माध्यम से प्राप्त भारी संसाधनों की मदद से ही चलती हैं. इन पत्रिकाओं में और प्रकाशकों तथा विचार-मंचों द्वारा प्रकाशित अन्य पत्र- पत्रिकाओं में भी कथेतर साहित्य की आलोचना और मूल्यांकन होता रहता है. बीसवीं सदी में भारत में इस प्रकार की संस्थाएँ कमज़ोर होने लगी थीं या उनमें विकृतियाँ आने लगी थीं या फिर उनके संसाधनों में कमी आने लगी थी या फिर उनका अस्तित्व ही न के बराबर रह गया था. यह मात्र संयोग नहीं है कि पिछले दो दशकों में इन स्थितियों में बदलाव आने लगा है, भले ही यह बदलाव बहुत बड़ा नहीं है, लेकिन कथेतर साहित्य में अच्छा-खासा विकास होने लगा है.
यह प्रसन्नता की बात है. वर्णनात्मक कथेतर साहित्य का मुख्य कार्य है कि हमें अपने ही समाज या लोकतांत्रिक समाज की कहानी सुनाई जाए. यह इसकी बहुत बड़ी भूमिका है. हमारे नागरिक अपनी दुनिया के बारे में जितना अधिक जानेंगे, उतने ही अपने पसंद के विकल्प उनके पास होंगे. इस तरह की कृतियों की रचना बहुत ज़रूरी है, भले ही उसमें कितनी-ही चुनौतियाँ क्यों न हों. लेखक तेजू कोल ने भारतीय फ़ोटोग्राफ़र रघुबीर सिंह की प्रशंसा करते हुए इन चुनौतियों और उनकी उपलब्धियों की चर्चा की है. कोल लिखते हैं, “ कला हमेशा से ही जटिल रही है, लेकिन तब यह और भी जटिल हो जाती है, जब इसके माध्यम से दूसरे लोगों की कथा सुनानी हो. और जब इसके माध्यम से उन लोगों की कथा बयान करनी हो जो हमारे इतिहास में गुँथे हुए हों और हम उनके इतिहास में. ऐसे हालात में यह जटिलता और भी भयानक हो जाती है. जो हमें दिखाई देते हैं, हम उनकी ही कहानी बयान करने का प्रयास कर रहे होते हैं. यही उनके प्रति सम्मान है और तभी हम अपनी वास्तविकता की जटिल भावना को स्वीकार कर पाते हैं.”
सामंत सुब्रमणियन द नैशनल के भारत के संवाददाता हैं और स्प्रिंग 2016 ‘कैसी’ के विजिटिंग फ़ैलो हैं.
हिंदी अनुवादः विजय कुमार मल्होत्रा, पूर्व निदेशक (राजभाषा), रेल मंत्रालय, भारत सरकार <malhotravk@gmail.com> / मोबाइल : 91+9910029919