2 जुलाई, 2015 को नई दिल्ली में एक असाधारण इफ़्तार पार्टी हुई, जिसने मीडिया का ध्यान आकर्षित किया. भारत के राजनेता रमज़ान के मुबारक महीने के दौरान रोज़ा तोड़ने के लिए मुस्लिम भाइयों के लिए इफ़्तार पार्टियों का नियमित रूप में आयोजन करते रहे हैं, लेकिन 2014 में प्रधान मंत्री बनने के बाद नरेंद्र मोदी ने न तो इफ़्तार पार्टी का आयोजन किया और न ही किसी इफ़्तार पार्टी में भाग लिया. यह इफ़्तार पार्टी इसलिए अनूठी थी, क्योंकि इसका आयोजन सन् 2002 में स्थापित मुस्लिम राष्ट्रीय मंच ने किया था. कहा जाता है कि इसकी स्थापना राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के समर्थन से “भारत में हिंदू और मुस्लिम समुदायों के बीच बढ़ती दरार को कम करने के लिए” की गई थी. सऊदी अरब, मिस्र, ईरान, यमन, क़तार और मोरक्को सहित कई बड़े मुस्लिम देशों के राजदूतों के साथ-साथ राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के वरिष्ठ प्रचारक (पूर्णकालिक) और मुस्लिम राष्ट्रीय मंच के संरक्षक इंद्रेश कुमार ने भी इस इफ़्तार पार्टी में भाग लिया था. इस विचित्र पार्टी को कवर करने वाले मीडिया की चकाचौंध के बीच राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के संचार प्रमुख मनमोहन वैद्य ने घोषणा की थी कि मुस्लिम राष्ट्रीय मंच एक “स्वतंत्र संगठन” है और राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ से संबद्ध नहीं है. भारत के राजनैतिक हलकों में संघ परिवार (राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ और उससे संबद्ध संगठनों) के इस राष्ट्रवाद को लेकर गहन चर्चा होती रही है कि अगर संघ परिवार (राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ और उससे संबद्ध संगठनों) का इस ढंग से विस्तार होता रहा तो राष्ट्रवाद का स्वरूप कैसा होगा. भारतीय राजनीति के पंडितों की आम धारणा यही है कि संघ एक ऐसा एकाश्म संगठन है, जो एकनिष्ठ होकर राष्ट्रवाद के एजेंडे का अनुसरण कर रहा है. लेकिन राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ से संबद्ध संगठनों और संघ के बदलते सामाजिक स्वरूप का जिस तेज़ी से विस्तार हो रहा है उससे यह स्पष्ट हो गया है कि संघ परिवार अब एक ऐसा व्यापक संगठन बन गया है जिसके अंतर्गत कई प्रकार की विचारधाराओं का संगम है. इनमें से कुछ विचारधाराएँ मध्यमार्गी हैं, कुछ मध्य-दक्षिणी और कुछ विचारधाराएँ दूर-दूर तक दक्षिणपंथी हैं. मुस्लिम राष्ट्रीय मंच और राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के परस्पर संबंधों में विद्यमान संदिग्धता से पता चलता है कि राष्ट्रवाद के जिस स्वरूप को उन्हें प्रचारित करना चाहिए, उसमें अंतर्निहित ऐसा विवाद भी है, जो अभी तक पूरी तरह स्वीकार्य नहीं हो पाया है.
जब मैंने जून,2016 में राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के एक अग्रणी विचारक का इंटरव्यू लिया था तो उन्होंने यह स्वीकार किया था कि आम लोगों में मुस्लिम राष्ट्रीय मंच की बढ़ती भूमिका के बारे में संघ परिवार में मतभेद पैदा हो गए हैं. सन् 2002 में मुस्लिम राष्ट्रीय मंच के निर्माण में राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के तत्कालीन प्रमुख के. एस. सुदर्शन की प्रमुख भूमिका रही थी और राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के वर्तमान प्रमुख मोहन भागवत सहित आरएसएस के वरिष्ठ नेता मुस्लिम राष्ट्रीय मंच की गतिविधियों में नियमित रूप से भाग लेते रहे हैं. इसके बावजूद भी राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के सामने यह असमंजस रहा है कि वे किस हद तक मुस्लिम राष्ट्रीय मंच का समर्थन करें. वे अपने उन बहुसंख्यक हिंदू भाइयों को भी नाराज़ नहीं करना चाहते जो भारतीय मुसलमानों और इस्लाम के प्रति नकारात्मक सोच रखते हैं. नवंबर, 2016 में मैंने राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के एक क्षेत्रीय कार्यकर्ता का इंटरव्यू लिया था तो उन्होंने कहा था कि जिस तरह से मुस्लिम राष्ट्रीय मंच के कार्यकर्ता “मुसलमानों का भारतीयकरण” करना चाहते हैं, यह उसी तरह से है जैसे वे “कुत्ते की पूँछ सीधा करने का प्रयास कर रहे हों.” उन्होंने बताया था कि भारत में इस्लाम के 1400 वर्षों के इतिहास से यह स्पष्ट हो जाता है कि धर्म के प्रति उनकी निष्ठा राष्ट्रीय निष्ठा से ऊपर ही रही है. हाँ, यह सच है कि संघ के अंदर ही एक गुट मुस्लिम राष्ट्रीय मंच द्वारा “मुसलमानों के भारतीयकरण” के प्रयास को घर वापसी (अर्थात् मुसलमानों को फिर से अपने मूल हिंदू धर्म में वापस लाने) के बृहत्तर लक्ष्य से जोड़कर देखता है. इन विचारों में हिंदू विचारक विनायक सावरकर के विचारों की गूँज सुनाई पड़ती है. राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के अनेक स्वयंसेवक आज भी उन्हें ही अपना आदर्श मानते हैं. सन् 1949 में सावरकर ने कहा था जो भी समुदाय भारत को अपनी पितृभूमि या पवित्र भूमि मानते हैं, वे सभी हिंदू हैं. निश्चय ही इस परिभाषा में ईसाई और मुसलमान नहीं आते, लेकिन अब राजनीति में भाजपा के बढ़ते वर्चस्व के कारण और संघ की बढ़ती भूमिका के कारण राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ की सोच में भी बदलाव आने लगा है. संघ के वरिष्ठ नेता यह मानने लगे हैं कि भारत के अल्पसंख्यकों के एक बड़े वर्ग को अपने साथ लेना बहुत आवश्यक है. मुस्लिम राष्ट्रीय मंच के राष्ट्रीय संयोजक और राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के पूर्व प्रचारक विराग पचपोरे ने स्पष्ट किया है कि भारतीय मुसलमानों को राष्ट्रीय मुख्यधारा में लाने के लिए मुस्लिम राष्ट्रीय मंच एक ‘मध्यम मार्ग’ है. यह विचारधारा कांग्रेस की तथाकथित ‘मुस्लिम तुष्टीकरण’ की नीति से ठीक विपरीत है. इसी दौरान, राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के वरिष्ठ नेता इंद्रेश कुमार ने माना है कि भारतीय मुसलमानों को, खास तौर पर कश्मीर में आतंकवाद के रास्ते पर जाने से रोकने के लिए मुस्लिम राष्ट्रीय मंच एक माध्यम है. फ़िलहाल तो राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के लिए इस असमंजस से निकलने का यही एक उपाय है कि वह मुस्लिम राष्ट्रीय मंच को समर्थन प्रदान करे और साथ ही इससे एक दूरी भी बनाये रखे ताकि इस संगठन की स्वायत्तता को बरकरार रखा जा सके.
मुस्लिम राष्ट्रीय मंच को लेकर राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ की रणनीतिक संदिग्धता से यह पता चलता है कि संघ परिवार में मुस्लिम राष्ट्रीय मंच को लेकर गहरा विवाद इसी बात को लेकर है कि संघ अपनी विस्तृत भूमिका में राष्ट्रवाद के किस संस्करण का समर्थन और प्रचार करे. क्या यह क्षेत्रीय राष्ट्रवाद होगा, जिसके अंतर्गत सभी धर्मों के भारतीय समाहित हो सकते हैं या फिर यह जातीय राष्ट्रवाद होगा जिसमें भारत के केवल बहुसंख्यक हिंदुओं का ही इस पर विशेषाधिकार होगा? हाल ही के वर्षों में, खास तौर पर राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ की सदस्यता की बदली हुई सामाजिक संरचना को देखते हुए और अपने संबद्ध संगठनों का विस्तार करने के लिए राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ ने सभी भारतीयों को सांस्कृतिक हिंदू के रूप में मान्यता देने का समर्थन किया है. क्षेत्रीय राष्ट्रवाद अर्थात् भारतमाता की संकल्पना राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के निर्माण से भी पहले की है. सन् 1882 में बंकिम चंद्र चट्टोपाध्याय ने अपने उपन्यास आनंदमठ में (तत्कालीन अखंड) भारत की परिकल्पना भारतमाता के रूप में की थी. राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के दिल्ली के मुख्यालय में भारतमाता को सर्वाधिक प्रमुख स्थान प्रदान किया गया है. राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ ने हिंदुत्व की परिभाषा सांस्कृतिक संदर्भ में भी की है. इस विचार को मोहन भागवत ने अक्तूबर, 2017 में स्पष्ट रूप में व्यक्त करते हुए कहा था कि “ ‘हिंदू’ शब्द में भारतमाता की वे सभी संतानें आ जाती हैं जिनके पूर्वज भारतीय रहे हैं और जिनका आचरण भारतीय संस्कृति के अनुरूप है.” सन् 2016 में विजयादशमी के अवसर पर दिए गए अपने भाषण में उन्होंने कहा था कि हिंदू संस्कृति “सभी प्रकार की विविधताओं को स्वीकार करती है और उनका सम्मान भी करती है.” उनका यह वक्तव्य भारतीय संघ की मूल संकल्पना के अनुरूप था. गोरक्षकों की हिंसा के संदर्भ में भाजपा और राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के कुछ नेताओं ने इस बात पर सवाल उठाया था कि क्या सरकार को लोगों की खानपान संबंधी आदतों में दखल देना चाहिए. राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के वरिष्ठ नेतृत्व के नज़दीकी माने जाने वाले केंद्रीय सड़क परिवहन व राजमार्ग मंत्री नितिन गडकरी ने 28 सितंबर, 2015 को एक बछड़े को चुराकर उसके तथाकथित वध करने वाले एक मुसलमान मोहम्मद इखलाक़ की भीड़ द्वारा निर्मम हत्या की खबर पर टिप्पणी करते हुए कहा था कि “मैं व्यक्तिगत तौर पर मानता हूँ कि लोगों के खानपान की आदतों के बारे में सरकार को किसी भी तरह से दखल नहीं देना चाहिए.” राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के एक वरिष्ठ नेता और संचार प्रमुख मनमोहन वैद्य ने प्रैस द्वारा गोमांस भक्षण के संबंध में राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ की नीति के बारे में पूछे गए सवाल के जवाब में कहा था कि “हम [राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ वाले] समाज को यह उपदेश नहीं देते कि उन्हें क्या खाना चाहिए.” दिसंबर 2015 में अरुणाचल प्रदेश के पूर्वोत्तर राज्य के दौरे के समय भी उन्होंने इसी बात को दोहराया था. इस राज्य में गोमांस खाने पर कोई रोक नहीं है और राज्य के लगभग 3,000 राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के सदस्य गोमांस खाते हैं.
संघ परिवार के तेज़-तर्रार सदस्य, मुख्यतः विश्व हिंदू परिषद और उसके संबद्ध संगठन बजरंग दल के लोग धार्मिक राष्ट्रवाद के मुखर प्रचारक हैं. विश्व हिंदू परिषद की स्थापना राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के तत्कालीन प्रमुख एम.एस. गोवलकर ने हिंदू धर्मावलंबियों के साथ मिलकर काम करने और हिंदू धर्म से जुड़े प्रतिष्ठानों को व्यवस्थित करने के लिए की थी. गोवलकर चाहते थे कि सरकार हिंदू धर्म के आदर्शों को सार्वजनिक नीति के रूप में स्वीकार करे. परंपरागत तौर पर हिंदू धर्म का स्वरूप ही ऐसा है कि वह धर्मांतरण को स्वीकार नहीं करता, लेकिन दिसंबर, 2014 में राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के नेतृत्व में विश्व हिंदू परिषद से संबद्ध धर्म जागरण समिति ने पश्चिमी उत्तर प्रदेश में मुसलमानों का हिंदू धर्म में धर्मांतरण करने के लिए एक बेहद उत्तेजक और बहु-प्रचारित अभियान चलाया था. इसकी प्रतिक्रिया में सांप्रदायिक दंगे भड़क उठे थे.
विश्व हिंदू परिषद के नेतृत्व में गोमांस पर राष्ट्रीय स्तर पर प्रतिबंध लगाने की माँग की गई. भारत के संविधान में पशुपालन को राज्यों के क्षेत्राधिकार में रखा गया है. भारत के छत्तीस राज्यों और संघशासित क्षेत्रों में से उनत्तीस में गोवध पर प्रतिबंध है. इनमें से अधिकांश प्रतिबंध स्वतंत्रता के तुरंत बाद कांग्रेसी सरकारों ने लगाए थे. गोवध पर राष्ट्रव्यापी रोक का अर्थ होगा कि केरल, पश्चिम बंगाल और उतर-पूर्व के उन राज्यों पर भी गोमांस भक्षण पर रोक लगेगी, जहाँ काफ़ी महत्वपूर्ण अल्पसंख्यक आबादी रहती है और जहाँ गोमांस भक्षण जैसी सांस्कृतिक वर्जना भी नहीं है. जब प्रधानमंत्री मोदी ने गोरक्षा के नाम पर ‘असामाजिक तत्वों’ द्वारा की जाने वाली हिंसा की भर्त्सना की थी तो उसके एक दिन के बाद ही विश्व हिंदू परिषद के तेज़-तर्रार नेता प्रवीण तोगड़िया ने घोषणा कर दी थी कि गोरक्षक तो “धर्मयोद्धा” हैं और संकल्प किया था कि विश्व हिंदू परिषद, युवाओं को “धर्मयोद्धा” बनाने के लिए प्रशिक्षित करेगा और उन्हें अस्त्र-शस्त्र से सुसज्जित करेगा. विश्व हिंदू परिषद ने इस तर्क को भी खारिज कर दिया था कि सच्चे हिंदू राम की जिस जन्मभूमि को भगवान् राम की जन्मस्थली मानते हैं, वह कोई विवादित स्थल है. विश्व हिंदू परिषद की यह मान्यता है कि भगवान् राम का जन्मस्थान हिंदुओं के लिए आस्था का प्रश्न है और सरकार को चाहिए कि वह विवादित स्थल पर मुसलमानों को कोई मस्जिद न बनाने दे. उन्होंने भाजपा और राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के कुछ नेताओं की इस बात को भी खारिज कर दिया था कि राम जन्मभूमि के विवाद को कानूनी प्रक्रिया द्वारा या दोनों धर्मों के धर्मावलंबियों द्वारा बातचीत से सुलझाया जा सकता है.
संघ परिवार में आर्थिक गतिविधियों के संबंध में सरकार की उचित भूमिका को लेकर और चुनावी राजनीति में राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ को किस हद तक भाग लेना चाहिए, इस बारे में भी मतभेद हैं, लेकिन ये मतभेद इतने गहरे नहीं हैं, जितने कि राष्ट्रवाद को लेकर हैं. संघ परिवार के तेज़-तर्रार नेताओं की यह धारणा है कि “1,200 वर्षों की गुलामी” ने भारतीय संस्कृति को भ्रष्ट कर दिया है. वे चाहते हैं कि भाजपा ने राजनैतिक क्षेत्र में जो वर्चस्व स्थापित किया है, उसकी मदद से देश को पश्चिमी और इस्लामिक प्रभाव से मुक्त करने का प्रयास किया जाए. इसका जीता-जागता उदाहरण वह वाद-विवाद है जो मुगल बादशाह शाहजहाँ द्वारा निर्मित ताजमहल के मूल स्थल को लेकर हाल ही में शुरू हुआ था. संघ के तेज़-तर्रार नेता चाहते हैं कि सरकार सार्वजनिक नीति में हिंदुओं की भावनाओं का सम्मान करे और उसे प्रमुखता प्रदान करे. संघ परिवार के विस्तार के कारण उसकी सामाजिक संरचना की अवधारणा भी बदलने लगी है. यह विस्तार, विशेषकर भाजपा के हाल ही के सदस्यता-अभियान के कारण और छात्र संगठनों और मज़दूर यूनियन जैसे उसके संबद्ध संगठनों के कारण भी हुआ है. संघ में आने वाले अधिकांश लोग शहरी मध्यम वर्ग से हैं और वे विश्व हिंदू परिषद की इस धारणा को नहीं मानते कि भारत मात्र हिंदू राष्ट्र है. नये-नये समृद्ध सामाजिक घरानों से आए राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के इन स्वयंसेवकों को इस बात की आशंका है कि कट्टर धार्मिक राष्ट्रवाद के कारण भारत का सामाजिक ताना-बाना बिगड़ सकता है और इससे न केवल भारत के आर्थिक विकास में अवरोध उत्पन्न होगा, बल्कि भारत की वैश्विक छवि भी धूमिल होगी. संघ परिवार के विस्तार के इच्छुक राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के नेता चाहते हैं कि उनका संगठन आधुनिक और समावेशी बने. यही कारण है कि वे विशेषतः कॉलेजों के छात्रों जैसे गैर-परंपरागत क्षेत्रों में संघ परिवार का विस्तार करना चाहते हैं. सबको अपनी सोच के दायरे में लाने के बजाय राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के नेता इस बात से ही संतुष्ट हैं कि संघ परिवार के छत्र के नीचे विभिन्न प्रकार की विचारधाराएँ सह-अस्तित्व की भावना के साथ रहें, लेकिन विडंबना यह है कि विचारधाराओं के स्तर पर स्पष्ट रूप में इतनी विविधताओं और बढ़ती गुटबाज़ी के कारण आज संघ परिवार स्वाधीनता के बाद की कांग्रेस पार्टी की तरह ही लगने लगा है.
गौतम मेहता जॉन्स हॉपकिन्स स्कूल ऑफ़ ऐडवांस्ड इंटरनेशनल स्टडीज़ से हाल ही में स्नातक हुए हैं और संघ परिवार पर एक पुस्तक लिखने में मदद कर रहे हैं.
हिंदीअनुवादःविजयकुमारमल्होत्रा, पूर्वनिदेशक(राजभाषा), रेलमंत्रालय, भारतसरकार<malhotravk@gmail.com> / मोबाइल: 91+9910029919