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संस्थागत रस्साकशी : कार्यपालिका के जीवंत होने के दौर में चुनाव आयोग

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16/07/2018
सूज़न ऑस्टरमैन व अमित आहुजा

विकासशील देशों में संस्थाओं के विद्वत्तापूर्ण और लोकप्रिय लेखों में दो ही बातें मुख्यतः हावी रहती हैं, संस्थागत वर्चस्व और पतन, तो भी भारतीय चुनाव आयोग (EC) सत्यनिष्ठा की भावना से काम करता है और सक्षम होकर उसने अपने अधिकारों का विस्तार भी कर लिया है. भारतीय चुनाव आयोग की इस आश्चर्यजनक सफलता का अर्थ क्या है ?

आज़ादी के बाद से लेकर अब तक भारतीय चुनाव आयोग 16 राष्ट्रीय और 350+ विधानसभाओं के चुनाव करवा चुका है. भारतीय चुनाव आयोग व्यापक रूप में भारत की सबसे अधिक प्रतिष्ठित और विश्वसनीय सार्वजनिक संस्थाओं में से एक है. इसके पास अपार शक्तियाँ हैं और यह अब तक विश्व के सबसे अधिक लंबे समय तक चलने वाले कुछ चुनावों का आयोजन कर चुका है, लेकिन भारतीय चुनाव आयोग हमेशा से ही इतना प्रमुख और सक्षम नहीं रहा है. सन् 1950 में इसकी स्थापना हुई और तब से इसके प्रोफ़ाइल में काफ़ी अंतर आ गया है.

हमें यह समझने का प्रयास करना होगा कि सामान्यतः एक सार्वजनिक संस्था और खास तौर पर चुनाव आयोग किस प्रकार से इतनी शक्ति अर्जित कर लेता है, क्योंकि ये संस्थाएँ बहुत हद तक उन्हें सौंपी गई अपनी उन तमाम अपेक्षाओं पर तभी खरा उतर सकती हैं, जब वे सुशासन की भावना से काम करती हैं. एक ऐसे विविधता से भरे समाज में इन अपेक्षाओं को कम करके नहीं आँका जा सकता, जहाँ की राजनीति बहुत विवादग्रस्त हो. भारत की लोकतांत्रिक प्रणाली और राज्य दोनों ही यह सुनिश्चित करते हैं कि नियमित रूप में स्वतंत्र और निष्पक्ष चुनावों के द्वारा उनकी वैधानिकता सुरक्षित रहे और इसके संचालन के पूरे दायित्व का निर्वाह चुनाव आयोग द्वारा किया जाए.

नौकरशाही पर राजनैतिक नियंत्रण की सीमाओं को तो हम अच्छी तरह समझते हैं, लेकिन संस्थागत शक्तियों के विस्तार को हम भली-भाँति समझ नहीं पाते और “इन संस्थाओं के व्यवहार को आकार देने वाले आंतरिक और बाहरी प्रोत्साहनों की सैद्धांतिक व्याख्या अधूरी रह जाती है.” देवेश कपूर, भानु मेहता, डेविड गिलमार्टिन, ऐलिस्टेयर मैकमिलन, ऑरनिट शानी, रॉबर्ट मूग, ईश्वरन श्रीधरन और मिलन वैष्णव की कृति के हाल ही में प्रकाश में आने से पहले चुनाव आयोग के बारे में भी यही धारणी थी.

हम इन तमाम समकालीन कार्यों को निष्पन्न करते हैं और ऐसे तंत्रों को निर्धारित करने के उपाय की खोज करने के लिए ऐतिहासिक प्रक्रिया अपनाते हैं जिनके कारण चुनाव आयोग अपने शासनादेश को व्यापक बनाने के लिए उसकी व्याख्या करने में और अपनी शक्तियों और हैसियत को बढ़ाने में कामयाब हो जाता है. साथ ही आचार संहिता को कार्यान्वित करने के साथ-साथ अपने इस विस्तार के आकलन के लिए चुनाव की अवधि का उपयोग करता है. नब्बे के दशक से आचार संहिता लागू की गई और तदनुसार राष्ट्रीय चुनावों और विधान सभा के चुनावों की अवधियों में भी भारी वृद्धि होती गई. चुनाव आयोग के चुनावी आँकड़ों के विश्लेषण के अलावा हमने छह मुख्य चुनाव आयुक्तों, चुनाव आयोग के आठ अधिकारियों, साठ से अधिक दलीय कार्यकर्ताओं और नेताओं तथा उत्तर प्रदेश, बिहार, महाराष्ट्र और तमिलनाडु के सैकड़ों मतदाताओं का इंटरव्यू लिया. 
इन आँकड़ों से पता चलता है कि एक संघीय लोकतंत्र में शासनादेश का विस्तार कम से कम तीन शर्तों पर निर्भर करता है. पहली शर्त तो यह है कि संस्थागत बाधाओं को, खास तौर पर कार्यपालिका की बाधाओं को दूर करना पड़ता है. यह स्थिति उस समय सामने आई जब कांग्रेस पार्टी का वर्चस्व कम हो रहा था और 1989 और 2014 के बीच गठबंधन सरकारें अस्तित्व में आ रही थीं. दूसरी शर्त यह है कि राज्य स्तर के कार्यकर्ताओं को यह माँग करनी होगी कि उन्हें एक ऐसा मध्यस्थ चाहिए जो सक्षम होने के साथ-साथ निष्पक्ष भी हो. इस तरह की माँग राज्य स्तर की पार्टियों ने नब्बे और सन् दो हज़ार के दशक में पार्टी प्रणाली के विखंडन और पार्टी के फैलाव के चरण के दौरान की थी. तीसरी शर्त यह थी कि उद्यमी नौकरशाहों को राजनैतिक अवसर का लाभ उठाना चाहिए, जैसा कि टी.एन. शेषन  ने नब्बे के दशक के आरंभ में किया था, जब उन्होंने मुख्य चुनाव आयुक्त के पद को उच्चतम न्यायालय के न्यायाधीश के समकक्ष बना दिया था और चुनाव पर्यवेक्षकों और मतदाता पहचान पत्रों की शुरुआत कर दी थी और कार्यपालिका के निर्देशों का पालन करने से इंकार कर दिया था. संघीय नौकरशाही के इन पहलुओं से ऐसे हालात में राज्य स्तर की माँगों को अच्छी तरह से पूरा किया जा सकता है और उनकी शक्तियों में इजाफ़ा भी किया जा सकता है. खास तौर पर मूलभूत क्षमता के ज़रिये समय के साथ-साथ विश्वसनीयता घटने के कारण जब राजनैतिक अनिश्चितता के दौर में मुख्य अभिकर्ताओं द्वारा उसके बाद समान आचरण किया जाता है तो ये संस्थाएँ रणनीतिक तौर पर अपनी शक्ति और हैसियत बढ़ाने के लिए बढ़ी हुई पूँजी का उपयोग कर सकती हैं. 

लेकिन कार्यपालिका के जीवंत होने पर क्या होता है ?

2014 में संसदीय चुनावों में नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) द्वारा संसद में बहुमत पाने पर तीस साल के अंतराल के बाद एक मज़बूत कार्यपालिका का फिर से उदय हुआ. हमारे शोध से पता चलता है कि मज़बूत कार्यपालिका एक बार फिर से दृढ़ता से जीवंत होकर अपने को प्रमाणित करती है और फिर से वही अधिकार पाने की कोशिश करती है, जो पिछले कुछ वर्षों में चुनाव आयोग ने उससे छीन लिये थे. फिर भी मज़बूत कार्यपालिका को चाहिए कि वह चुनाव आयोग की विश्वसनीयता को बरकरार रखने के लिए चुनाव आयोग के संस्थागत अधिकारों को खुली चुनौती देने से बचे.

इस बात में कोई हैरानी नहीं होनी चाहिए कि कार्यपालिका ने चुनाव आयोग के अधिकारों को कम करने की युक्ति अपनाते हुए अंदर ही अंदर कमज़ोर चुनाव आयुक्तों की नियुक्ति करनी शुरू कर दी. हाल ही के उदाहरण से यह स्पष्ट हो जाता है. गुजरात के मुख्यमंत्री के रूप में मोदी के कार्यकाल में कार्यरत पूर्व प्रधान सचिव ए. के. ज्योति को मुख्य चुनाव आयुक्त बना दिया गया और उनके नेतृत्व में चुनाव आयुक्त ने गुजरात विधान सभा के चुनाव स्थगित कर दिए. यह निर्णय चुनाव आयोग की अपनी परंपराओं के भी विरुद्ध था. यही कारण है कि विरोधी दलों ने आरोप लगाया कि चुनाव आयोग का यह निर्णय आचार संहिता के कार्यान्वयन को टालने के इरादे से किया गया था ताकि भाजपा के नेतृत्व में गुजरात सरकार नये कार्यक्रमों की घोषणा कर सके जिससे प्रभावित होकर मतदाता भाजपा के पक्ष में वोट देने के लिए प्रेरित हों. एक दूसरे प्रसंग में मुख्य चुनाव आयुक्त ज्योति ने भाजपा की प्रतिद्वंद्वी आम आदमी पार्टी के बीस विधायकों को दिल्ली विधान सभा से अयोग्य घोषित कर दिया. चूँकि यह कार्रवाई करने से पहले समय उचित प्रक्रिया का पालन नहीं किया गया, इसलिए मुख्य चुनाव आयुक्त ज्योति की इस कार्रवाई की खूब आलोचना हुई. इन दोनों घटनाओं के भारी दुष्परिणाम हुए. दिल्ली और गुजरात में चुनाव आयुक्त की कार्रवाई से चुनाव आयुक्त की निष्पक्षता की छवि धूमिल हो गई. इस छवि के क्रमिक निर्माण में चुनाव आयोग को कई दशक लगे थे.

लेकिन अस्सी के दशक के लुटेरे कार्यपालकों की तुलना में आज के चुनाव आयुक्त इतने असहाय नहीं हैं. आज के उद्यमी चुनाव आयुक्त अपने अधिकारों के संरक्षण के लिए चुनाव आयुक्त की बढ़ी हुई प्रतिष्ठा का लाभ उठा सकते हैं और कार्यपालकों के सामने तनकर खड़े हो सकते हैं. अपने अधिकारों की रक्षा के लिए चुनाव आयुक्त भारत के राष्ट्रीय दलों और अनेक क्षेत्रीय राजनैतिक दलों में से किसी को भी प्रतिष्ठित निर्णायक संस्था के रूप में बुलाने की माँग कर सकते हैं.    लेकिन केवल राजनैतिक दल पर निर्भर रहने के कारण इससे इस संस्था के राजनीतिकरण का खतरा बढ़ जाता है. और अंततः अगर चुनाव आयुक्त और खास तौर पर मुख्य चुनाव आयुक्त उनको नियुक्त करने वाली कार्यपालिका से चुनाव आयोग की अपनी संस्थागत स्वायत्तता की रक्षा करने के लिए इच्छुक नहीं हैं तो भी चुनाव आयुक्त अपने अधिकारों और प्रतिष्ठा को बनाये रखने के लिए संघर्ष करते रहेंगे. अगर कार्यपालिका कुछ हद कर इस युद्ध में जीत जाती है तो हमें लगता है कि चुनाव की अवधि में कमी आ सकती है और आचार संहिता के कार्यान्वयन में कुछ कमज़ोरी आ सकती है.

चुनाव आयोग अपने-आप में ही एक विश्वसनीय निर्णायक संस्था है. इसकी विश्वसनीयता केवल भारत तक सीमित नहीं है, भारत के पड़ोसी और विकासशील देशों के वे देश भी इसे विश्वसनीय मानते हैं, जहाँ उनकी निर्णायक संस्थाओं द्वारा चुनाव परिणामों में पक्षपात करने के कारण अक्सर लोकतंत्र की जड़ें कमज़ोर हो गई हैं, लेकिन चुनाव आयोग अजेय नहीं है. अमेरिका के हाल ही के ताज़ा अनुभवों को देखते हुए निर्णायक संस्थाओं की निष्पक्षता को और लोकतांत्रिक प्रक्रिया की विश्वसनीयता को लंबे समय से चले आ रहे लोकतंत्रों में भी पूरी तरह से निष्पक्ष नहीं माना जा सकता. उन्हें बाहर से और भीतर से भी खोखला किया जा सकता है.

सूज़न ऑस्टरमैन नोत्र दाम विवि के कियॉ स्कूल ऑफ़ ग्लोबल अफ़ेयर्स में सहायक प्रोफ़ेसर हैं.

अमित आहुजा सांता बार्बरा में स्थित कैलिफ़ोर्निया विवि के राजनीति विज्ञान विभाग में सह प्रोफ़ेसर हैं.

 

हिंदीअनुवादःविजयकुमारमल्होत्रा, पूर्वनिदेशक(राजभाषा), रेलमंत्रालय, भारतसरकार<malhotravk@gmail.com> / मोबाइल: 91+9910029919