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उत्पादन नहीं, खपतः भारतीय ऊर्जा नियोजन की पुनर्कल्पना

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12/09/2016
राधिका खोसला

ऊर्जा भारत की विकास योजनाओं का केंद्रबिंदु है. यही कारण है कि अधिकांश मामलों में कोयले, गैस, परमाणु और नवीकरणीय ऊर्जा आदि के उत्पादन और उपलब्धता में वृद्धि हुई है. ऊर्जा की वर्तमान योजनाओं के प्रमुख बिंदुओं में इस प्रवृत्ति की झलक मिलती हैः इसमें कोयले (2020 तक 1.5 बिलियन टन के घरेलू उत्पादन के लक्ष्य के साथ) पर विशेष ध्यान दिया गया है और नवीकरणीय ऊर्जा में वृद्धि हुई है (2022 तक 175 गीगावाट नवीकरणीय ऊर्जा के उत्पादन की आकांक्षा के साथ), परंतु सप्लाई के प्रति उन्मुख समाधान के ऊर्जा नियोजन की यह दृष्टि ऊर्जा की लंबे समय से चली आ रही और मौजूदा कमी के वर्णन के इर्द-गिर्द ही सीमित है. खास तौर पर यह मान लिया गया है कि ऊर्जा की ज़रूरतों में निरंतर वृद्धि होती रहेगी और इसके फलस्वरूप ऊर्जा के लिए उपलब्ध सभी विकल्पों की खोज की जा रही है, लेकिन इस प्रक्रिया में अक्सर न तो इस बात पर विचार किया जाता है कि ऐसी ऊर्जा का उपयोग कैसे किया जाएगा और न ही ऐसी ऊर्जा को जुटाने में लगने वाली लागत पर ही विचार किया जाता है.  

भारतीय ऊर्जा नियोजन के इतिहास में सप्लाई पर ज़ोर देने की व्यापक दृष्टि हमेशा ही बनी रही है, जिसका प्रमाण 11वीं और 12 वीं पंचवर्षीय योजनाओं में और अधिकांश राष्ट्रीय मॉडलिंग के अध्ययनों में मिल जाता है, लेकिन उसकी वैकल्पिक दृष्टि का एक ऐसा इतिहास भी है, जिसे अपेक्षाकृत कम मान्यता मिली है जिसमें न केवल इस बात पर विचार किया गया है कि ऊर्जा की सप्लाई कैसे की जाती रही है, बल्कि इस बात पर कि उसकी खपत कैसे हुई. अस्सी के दशक के मध्य में अमूल्य रेड्डी के कार्य में मूल रूप में एक ऐसे वर्णनात्मक विराम को बढ़ावा दिया गया था जिसके कारण परंपरागत “ऊर्जा स्रोतों” पर ज़ोर देने के बजाय “ऊर्जा सेवाओं” पर ज़ोर दिया जाने लगा. इस दृष्टि से ऊर्जा प्रणाली और इसकी सप्लाई और उपयोग संबंधी गतिविधियों का उद्देश्य है, ऊर्जा संबंधी सेवाएँ प्रदान करना, जैसे बिजली का प्रकाश, घर के अंदर आरामदेह तापक्रम बनाये रखना, रैफ्रिजरेशन, परिवहन आदि, ताकि विकास के परिणाम प्राप्त किये जा सकें. जहाँ एक ओर अंशतः रेड्डी के हस्तक्षेपों का कार्यान्वयन नहीं हो पाया, क्योंकि इसके लिए इस बात पर भी पुनर्विचार अपेक्षित था कि ऊर्जा नीति कैसे बनाई जाती है, वहीं अब विभिन्न सरकारी पहलें इस बात को लेकर हैं कि ऊर्जा संबंधी दक्षता कार्यक्रमों के अंतिम उपयोग के माध्यम से ऊर्जा की माँग को नये सिरे से केंद्रित किया जाए. भले ही पूरी तरह से इसकी अवधारणा स्पष्ट नहीं हो पाई है, फिर भी इन प्रयासों से आशा तो बँधती ही है, लेकिन ऐसे परिवर्तनों से, जिनसे कायाकल्प हो सके, ऊर्जा नियोजन की व्यापक अवधारणा आवश्यक है जिससे ऊर्जा की पूर्ति और माँग में परस्पर संबंध जुड़ सके.  

तीन ऐसे कारण हैं जिनसे यह स्पष्ट हो जाता है कि भारत की ऊर्जा को अधिक उत्पादक बनाने के लिए न केवल इस बात पर विचार करना आवश्यक है कि ऊर्जा की सप्लाई कैसे की जाए, बल्कि इस बात पर भी साफ़ तौर पर विचार करना आवश्यक होगा कि इसका इस्तेमाल और वितरण कैसे किया जाए. पहला कारण तो यह है कि भारतीय अर्थव्यवस्था संक्रमण के विभिन्न दौरों से गुज़र रही है, जिनसे न केवल ऊर्जा की भावी आवश्यकताओं के संकेत मिलते हैं कि यह आवश्यकता निश्चय ही बेहद अधिक होगी बल्कि यह भी पता चलता है कि इसमें अनिश्चितता भी बनी रहेगी और संभावना इस बात की भी है कि ये ज़रूरतें लचीली बनी रहेंगी. जनसांख्यिकी की दृष्टि से उम्मीद की जाती है कि भारत में अगले दो दशकों तक हर साल 10 मिलियन लोगों को रोज़गार मिलने की संभावना है, जिसके परिणाम ऊर्जा के उपयोग के क्षेत्र में, विशेषकर विनिर्माण के क्षेत्र में दिखाई देंगे. साथ ही साथ, शहरीकरण के कारण भी लगभग 200 मिलियन लोग शहरी इलाकों में आएँगे और उनकी जीवन शैली में सुधार लाने के लिए अधिक संसाधनों की माँग बढ़ जाएगी. इससे बुनियादी ढाँचे में तो संक्रमण होगा ही, लेकिन अनुमानों से पता चलता है कि 2030 में विद्यमान भारत के दो-तिहाई भवनों का निर्माण होना बाकी रहेगा. ऊर्जा की दृष्टि से इन संक्रमणों से खपत के पैटर्न में आकस्मिक “ल़ॉक इन” का असली खतरा मंडराने लगेगा, क्योंकि अधिकांश विकास तो अभी होना बाकी होगा. यदि ऊर्जा के कार्य-परिणामों ( अर्थात् बेकार इमारतें और साधन-सामग्री ) में गिरावट के साथ ऐंड-यूज़ टैक्नोलॉजी या ऊर्जा की अधिक माँग करने वाले (अर्थात् निजी परिवहन के ज़रिये) शहर – यही आगामी बुनियादी ढाँचों और जीवन शैली के मापदंड बन जाते हैं तो पथ-निर्भर परिणामों की झड़ी लग जाएगी, जिसके कारण अगले कई दशकों तक खपत को कम करना बहुत कठिन हो जाएगा.

दूसरा कारण यह है कि माँग को ऊर्जा नियोजन का केंद्रबिंदु मान लेने से न केवल ऊर्जा की सप्लाई का प्रबंधन आसान हो जाता है, बल्कि इससे अपेक्षित सप्लाई की मात्रा में कमी पर भारी प्रभाव पड़ता है और उसके फलस्वरूप कार्बन के निष्कासित उत्सर्जन पर भी असर पड़ता है. वस्तुतः पूर्व योजना आयोग के एक अनुमान के अनुसार भवन, परिवहन और उद्योग जैसे क्षेत्रों के कारण उत्सर्जन की तीव्रता में 2020 तक 2005 के स्तर से 23-25 प्रतिशत तक भारी कमी हो सकती है.  इसके अलावा, सप्लाई के नियोजन को विवेक-सम्मत बनाए रखने के लिए माँग को समझना बहुत आवश्यक है.  सन् 2030 तक कुल क्षमता के अपने अंश को गैर-जीवाश्म ईंधन पर आधारित बिजली में 40 प्रतिशत तक बढ़ाने के लिए भारत के अंतर्राष्ट्रीय जलवायु के वचन को ही उदाहरण के रूप में लें. इस लक्ष्य को पूरा करने के लिए यह आवश्यक है कि भारत जीवाश्म और गैर-जीवाश्म -आधारित ऊर्जा स्रोतों को नियोजित करे, लेकिन किसी भी योजना में सप्लाई की मात्रा ग्रिड के आकार पर या 2030 तक की कुल क्षमता पर निर्भर होगी, जो अंततः भावी माँग का ही एक फ़ंक्शन है.   हमने अभी तक न तो भारत के भावी ग्रिड के आकार का कठोर पूर्वानुमान लगाया है और न ही 650-1000 के बीच कहीं किसी प्रक्षेपण रेंज का अध्ययन ही किया है जिससे हमें किसी भी छोर पर सप्लाई की आवश्यकताओं के भिन्न-भिन्न सैट का पता लग सके. माँग के गलत अनुमानों से ऊर्जा की सुरक्षा में जोखिम भी पैदा हो सकता है या परिसंपत्तियाँ कहीं फँस भी सकती हैं और दोनों ही बातें चिंताजनक हैं.

अंततः सप्लाई पर आधारित परंपरागत सोच भारतीय ऊर्जा का निदान करने में पूरी तरह से सक्षम नहीं रही है. बिजली के उत्पादन में वृद्धि के बावजूद इस क्षेत्र में संरचना संबंधी बहुत सी कमियाँ व्याप्त हैं और वित्तीय हानि भी हो रही है और नीति संबंधी लक्ष्यों में भी बदलाव होते रहते हैं. ऊर्जा की पहुँच की कमी ही सबसे महत्वपूर्ण मुद्दा रहा हैः 400 मिलियन लोगों के पास (2011 की जनगणना के अनुसार) बिजली नहीं पहुँची है और जहाँ सप्लाई है भी, वहाँ भी ईंधन की गुणवत्ता को लेकर गंभीर चुनौतियाँ हैं. बिजली की कमी ने तो पूरी व्यवस्था को ही चौपट किया कर दिया है और साथ ही डीज़ल के जनरेटरों ने प्रदूषण को और भी बढ़ा दिया है. बहुत ही व्यवस्थित रूप में कोयला-आधारित ताप बिजलीघरों के संयंत्रों का उपयोग अक्सर बिजली की सर्वाधिक खपत के समय के दौरान बिजली की माँग को पूरा करने के लिए किया जाता है. इसके कारण न केवल आर्थिक और अन्य संसाधनों की बर्बादी होती है, बल्कि पर्यावरण को भी भारी नुक्सान पहुँचता है. सप्लाई के संकट की नज़र से इन जटिलताओं से निपटने के बजाय ऐसी नीतियाँ बनाई जानी चाहिए ताकि इन्हें माँग की दृष्टि से भी समझा जा सके. तभी यह स्पष्ट हो सकेगा कि वास्तव में सप्लाई की कितनी आवश्यकता किसको और कब है, ताकि इसका प्रबंधन अधिक प्रभावी ढंग से किया जा सके.

भारत के लिए ऊर्जा नियोजन की अपनी उस मौजूदा परिकल्पना को चुनौती देने के पर्याप्त कारण हैं, जिसका मुख्य आधार कमी की अधूरी गाथा है और जिसका संबंध अधिक सप्लाई और उससे संबंधित समाधान से ही है. इसके बजाय एक ऐसी वैकल्पिक अवधारणा पर विचार होना चाहिए जिसमें सप्लाई की आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए इनपुट के रूप में खपत के मार्गों को समझने के प्रयासों पर ज़ोर दिया गया हो. इस अवधारणा से सही रूप में ऊर्जा सुरक्षा और सामाजिक-पर्यावरण संबंधी लाभ जैसे ऊर्जा संबंधी रणनीति के अधिक व्यापक अंतिम उद्देश्यों को प्राप्त किया जा सकेगा. यह परिवर्तन न तो सुगम होगा और न ही अपने-आप होगा. इसका खास कारण यही है कि माँग संबंधी समाधान अक्सर सामाजिक संस्थाओं और परिपाटियों से जुड़े होते हैं और स्पष्टतः नियामक स्थिति में आ सकते हैं.  फिर भी वैकल्पिक व्यवस्थाओं के लिए प्रयास नये मार्गों और संस्थागत अवसरों की तलाश में पहला कदम होगा, जिससे अंततः स्थायी विकास के लक्ष्यों को प्राप्त किया जा सकेगा.

राधिका खोसला नई दिल्ली स्थित नीति अनुसंधान केंद्र में फ़ैलो हैं.

 

हिंदी अनुवादः डॉ. विजय कुमार मल्होत्रा, पूर्व निदेशक (राजभाषा), रेल मंत्रालय, भारत सरकार <malhotravk@gmail.com> / मोबाइल : 91+9910029919