प्रौद्योगिकी की नीति की दृष्टि से, 2023 में चंद्रयान -3 मिशन की सफलता - जिसके कारण भारत चंद्रमा पर रोवर उतारने वाला चौथा देश बन गया और चंद्रमा के दक्षिणी ध्रुव के पास ऐसा करने वाला पहला देश बन गया - एक तर्कसंगत सवाल पैदा होता है: अगर बड़े पैमाने पर सरकार द्वारा संचालित प्रयास भारत को एक वास्तविक अंतरिक्ष शक्ति बना सकते हैं, तो क्या उनमें से कुछ सबक लेकर भारत को सेमिकंडक्टर शक्ति बनने में मदद मिल सकती है?
अमेरिका और चीन के बीच भू-राजनीतिक प्रतिस्पर्धा के साथ-साथ भारी मात्रा में उन्नत चिप्स के लिए कमजोर प्रतीत होने वाले ताइवान पर अत्यधिक निर्भरता ने वैश्वीकरण का पोस्टर चाइल्ड होने के नाते सेमिकंडक्टर विनिर्माण क्षेत्र को दशकों के बाद पिछले कुछ वर्षों में गहन औद्योगिक नीतिगत प्रयासों का केंद्र बना दिया है. दुनिया भर के देशों ने स्थानीय स्तर पर चिप-निर्माण उद्योग स्थापित करने के उद्देश्य से शासन की ओर से प्रोत्साहन-राशि प्रदान की है और अनुकूल नीतिगत वातावरण बनाने का वायदा भी किया है. भारत ने भी चिप उत्पादन का एक प्रमुख हब बनने की उम्मीद में सेमिकॉन इंडिया प्रोग्राम के अंतर्गत 10 बिलियन डॉलर की प्रोत्साहन-राशि की घोषणा की है. जहाँ एक ओर भारत की चिप डिज़ाइन सेवा क्षेत्र में मज़बूत उपस्थिति है, लेकिन इसमें कोई व्यावसायिक चिप विनिर्माण सुविधाएँ उपलब्ध नहीं हैं. सेमिकॉन इंडिया प्रोग्राम से यह उम्मीद बँधती है कि इस सप्लाई चेन के सभी क्षेत्रों में भारत एक ताकत बन सकता है.
अंतरिक्ष कार्यक्रमों की तरह, इन प्रयासों में भी सफलता या विफलता काफ़ी हद तक शासन द्वारा चुने गए नीतिगत विकल्पों पर निर्भर करेगी, जो कि निवेश की गई धनराशि से कहीं अधिक महत्व रखती है. और, अंतरिक्ष कार्यक्रमों की तरह, वास्तव में घरेलू सेमिकंडक्टर उद्योग के निर्माण के लक्ष्य को प्राप्त करने से भारत उन देशों के एक छोटे, विशिष्ट क्लब में शामिल हो जाएगा, जिन्होंने चिप निर्माण में सफलता प्राप्त की है. वास्तव में, इसे दूर करने के प्रयासों को अक्सर "मूनशॉट्स" के रूप में जाना जाता है, जिससे चंद्रयान की तुलना स्पष्ट हो जाती है. तो, क्या भारत का सेमिकंडक्टर मिशन अंतरिक्ष कार्यक्रम की उल्लेखनीय सफलता से कोई सबक ले सकता है?
यह प्रश्न हमारी पुस्तक, When the Chips Are Down: A Deep Dive into a Global Crisis (Bloomsbury, 2023) के मूल प्रेरक तत्वों में से एक था. इस पुस्तक में, हमने घरेलू सेमिकंडक्टर उद्योग के निर्माण के लिए विभिन्न देशों द्वारा किये गए प्रयासों का सर्वेक्षण किया है. पुराने ज़माने की अंतरिक्ष और परमाणु संबंधी प्रौद्योगिकियाँ इसके अच्छे उदाहरण हैं और हम AI शोध और अत्याधुनिक सेमिकंडक्टर जैसी नये ज़माने की प्रौद्योगिकियों के बीच महत्वपूर्ण अंतर पाते हैं. इस प्रकार हम यह निष्कर्ष निकालते हैं कि नीतिगत दृष्टिकोण को एक डोमेन से दूसरे डोमेन में स्थानांतरित करना न तो वांछनीय है और न ही प्रभावी है.
अंतरिक्ष और परमाणु प्रौद्योगिकी को सेमिकंडक्टर प्रौद्योगिकी से तीन विशेषताएँ अलग करती हैं. पहली विशेषता तो यह है कि अंतरिक्ष और परमाणु कार्यक्रमों की तुलना में इसका आउटपुट बहुत छोटा है. कंपनियाँ आम तौर पर केवल एक खरीदार – संप्रभुता संपन्न सरकार - के लिए उत्पाद तैयार करना चाहती हैं. इसके विपरीत अगर इसकी तुलना सेमिकंडक्टर विनिर्माण से की जाए तो हम पाएँगे कि यह सुविधा किसी सरकार की छोटी माँग को पूरा करके जीवित नहीं रह सकती. चिप के निर्माण के लिए भारी मात्रा में अग्रिम पूँजी लागत की जरूरत होती है. यह बड़ी मात्रा वाली कई चिप डिजाइन फ़र्मों को अपनी विनिर्माण सेवाओं को एक साथ अनुबंधित करके ही वित्तीय स्थिरता प्राप्त करने की उम्मीद कर सकती है.
दूसरा, चूँकि अंतरिक्ष और परमाणु कार्यक्रमों की तुलना में सेमिकंडक्टर क्षेत्र में उत्पादन की मात्रा कम होती है, इसके लिए आवश्यक पूँजी का निवेश करना शासन के लिए आसान होता है. उदाहरण के लिए तीनों चंद्रायन मिशनों का कुल बजट ₹1977 करोड़ था. इसके विपरीत, अमेरिकी कंपनी माइक्रोन टैक्नोलॉजी, गुजरात में जो सिंगल चिप पैकेजिंग प्लांट स्थापित करने की योजना बना रही है, उसकी लागत लगभग ₹16000 करोड़ होने की उम्मीद है.
तीसरा, अंतरिक्ष और परमाणु डोमेन में सप्लाई चेन छोटी है और इसे काफ़ी हद तक स्वदेशी बनाया जा सकता है. भारत के अंतरिक्ष कार्यक्रम को अमेरिका और सोवियत संघ से प्रारंभिक प्रौद्योगिकी हस्तांतरण से लाभ हुआ. उसके बाद, कुछ प्रतिभाशाली वैज्ञानिकों ने स्वदेशीकरण और प्रौद्योगिकी उन्नयन की प्रक्रिया शुरू कर दी. इसी तरह, पाकिस्तान ने भी चीन से प्रौद्योगिकी हस्तांतरण के माध्यम से अपना परमाणु कार्यक्रम शुरू कर दिया और वहाँ के वैज्ञानिकों ने उस प्रौद्योगिकी को उन्नत करना शुरू कर दिया. प्रारंभिक प्रौद्योगिकी हस्तांतरण के बाद लगातार सरकारी मदद मिलने से, सरकार द्वारा संचालित ऐसे कार्यक्रम सफल हो सकते हैं. ऐसा मार्ग सेमिकंडक्टर की सप्लाई चेन के लिए उपयुक्त नहीं है, जो तुलनात्मक-लाभ-आधारित विशेषज्ञता दृष्टिकोण का अनुसरण करता हो. विभिन्न भौगोलिक क्षेत्रों की कंपनियाँ सप्लाई चेन के विशिष्ट खंडों में विशेषज्ञ हैं. यूएस सेमिकंडक्टर इंडस्ट्री एसोसिएशन का अनुमान है कि छह प्रमुख क्षेत्रों (अमेरिका, दक्षिण कोरिया, जापान, चीन, ताइवान और यूरोप) में से प्रत्येक सेमिकंडक्टर उद्योग द्वारा जोड़े गए कुल मूल्य में 8 प्रतिशत या उससे अधिक का योगदान देता है. यहाँ तक कि होमी भाभा या विक्रम साराभाई जैसे प्रतिभाशाली वैज्ञानिक जिन्हें अक्सर भारत के परमाणु और अंतरिक्ष कार्यक्रमों की सफलता का श्रेय दिया जाता है, की क्षमता और दूरदर्शिता की सेमिकंडक्टर प्रतिभा, मध्यवर्ती इनपुट, प्रतिभा और पूँजी के लिए विदेशी कंपनियों पर निर्भरता को कम नहीं करेंगे.
हमें इस तर्क के लिए अनुभवजन्य प्रमाण इस तथ्य में मिलता है कि सशक्त शासन द्वारा संचालित अंतरिक्ष और परमाणु कार्यक्रमों वाले कई सेमिकंडक्टरों में उतनी सफलता हासिल नहीं कर सके. चीन के मामले पर विचार करें. सन् 1945 में, माओत्से तुंग ने ज़िली गेंगशेंग के निम्नलिखित नारे को बहुत लोकप्रिय बना दिया था- "अपने स्वयं के प्रयासों के माध्यम से उत्थान." सन् 1956 में, सरकार के विज्ञान और प्रौद्योगिकी प्रयासों को एक रोडमैप प्रदान करने के लिए एक ऐतिहासिक बारह-वर्षीय योजना की घोषणा की गई थी. इस योजना के अंतर्गत सर्वोच्च प्राथमिकता के रूप में चिह्नित बारह प्रौद्योगिकियों में सेमिकंडक्टर भी शामिल थे. विश्वविद्यालयों ने सेमिकंडक्टर कार्यक्रम शुरू किए और सरकारी कारखानों और अनुसंधान प्रयोगशालाओं ने इस क्षेत्र में काम करना शुरू कर दिया. सन् 1965 तक चीन ने ताइवान और दक्षिण कोरिया से पहले अपनी पहली चिप विकसित कर ली थी. परंतु, कुछ शुरुआती सफलताओं के बाद, मुख्य रूप से सरकार द्वारा संचालित यह प्रयास अन्य देशों से पीछे रह गया. ये कंपनियाँ बाज़ार वित्त और प्रतिस्पर्धा द्वारा लाये जाने वाले अनुशासन के बिना लड़खड़ाने लगीं. ये कंपनियाँ निरंतर उन्नयन और पूँजी निवेश की माँगों को पूरा नहीं कर सकीं. शीत युद्ध के चरम के दौरान अमेरिकी सेमिकंडक्टर उद्योग से अलग होने के कारण तकनीकी उन्नयन की गति भी धीमी पड़ गई. फिर भी, चीन ने जो भी प्रगति की वह सांस्कृतिक क्रांति के दौरान थम गई. जब अस्सी के दशक में उद्योग को पुनर्जीवित करने का प्रयास किया गया था, तो चीन का सेमिकंडक्टर उद्योग पिछड़ा हुआ था - अधिकांश कंपनियाँ उत्पादन लक्ष्य तक पहुँचने में विफल रहीं, और प्रौद्योगिकी कई साल पीछे चली गई थी. हालात में बदलाव आना तब शुरू हुआ, जब नब्बे के दशक में चीनी सेमिकंडक्टर उद्योग में प्रत्यक्ष विदेशी निवेश (FDI) आना शुरू हुआ.
सोवियत संघ का उदाहरण भी इससे मिलता-जुलता ही है. अपने अंतरिक्ष कार्यक्रम के लिए स्टार सिटी की तरह, सोवियत संघ को भी उम्मीद थी कि एक नया शहर, ज़ेलेनोग्राड, एक वैज्ञानिक स्वर्ग बन जाएगा जो सेमिकंडक्टर निर्माण में सर्वश्रेष्ठ होगा. यह सोवियत “सिलिकॉन वैली” कहलाएगा. सोवियत संघ ने अमेरिका से चिप्स की तस्करी करके "कॉपी इट" मॉडल का अनुसरण किया और इसकी इंजीनियरिंग को रिवर्स करते हुए स्थानीय स्तर पर उनका निर्माण करने की कोशिश की. चूँकि शीत युद्ध के दौरान सोवियत संघ वैश्विक सेमिकंडक्टर ईकोसिस्टम से कट गया था, इसलिए इन कंपनियों ने लगातार बढ़ते वैश्विक चिप बाज़ार का अनुसरण करने के बजाय सोवियत सेना को चिप्स की आपूर्ति करने पर ध्यान केंद्रित किया. अंततः ये परियोजनाएँ पीछे रह गईं. आज भी रूस में एक भी व्यावसायिक स्तर पर सेमिकंडक्टर निर्माता नहीं है.
भारत का मामला भी बहुत अलग नहीं है. भारत की दो सरकारी क्षेत्र की कंपनियाँ, भारत इलेक्ट्रॉनिक्स लिमिटेड (BEL) और सेमीकंडक्टर कॉम्पलैक्स लिमिटेड (SCL) पश्चिमी चिप बनाने वाली सक्षम कंपनियों के साथ प्रौद्योगिकी हस्तांतरण समझौते पर हस्ताक्षर करने में सक्षम थीं. हालाँकि उन्हें शुरुआती सफलताएँ तो मिलीं, लेकिन अस्सी के दशक तक वे भी पीछे रह गईं.
सोवियत संघ, चीन और भारत के ये शुरुआती अनुभव सेमिकंडक्टर निर्माण की सफलता के लिए आवश्यक सरकारी नीतियों में निहित दृष्टि को स्पष्ट करते हैं. पहली बात तो यह है कि सरकार द्वारा संचालित चिप कंपनियों के पास अत्यधिक प्रतिस्पर्धी डोमेन में प्रतिस्पर्धा करने के लिए कोई प्रोत्साहन नहीं था, जो निरंतर पूंजी निवेश और प्रौद्योगिकी उन्नयन की अपेक्षा करता था. उनकी शुरुआत तो अच्छी रही लेकिन बहुत लंबे समय तक वे रेस में बने नहीं रह पाए. यहाँ तक कि उनके सरकारी क्षेत्र के ग्राहकों ने भी उनका साथ छोड़ दिया और वे आयात के माध्यम से सस्ती दरों पर उपलब्ध बेहतर टैक्नोलॉजी लेने लगे. दूसरी बात यह है कि इन कंपनियों को आंतरिक प्रतिस्पर्धा का अवसर भी नहीं मिला. प्रतिस्पर्धा कंपनियों को बेहतर की माँग करने के लिए विवश कर देती है. इसके बिना, इन कंपनियों के पास सरकारी विभागों से परे नए ग्राहकों की खोज का भी कोई मतलब नहीं था. BEL and SCL चिप्स बनाने की दौड़ में बने रहे. लेकिन सरकार के दृष्टिकोण से इस प्रतिस्पर्धा का कोई मतलब नहीं था. दो कंपनियों द्वारा एक ही तरह का कार्य करने से संसाधनों की बर्बादी होती है. SCL का काम चिप बनाने और BEL का काम उन्हें असेम्बल करने तक सीमित कर दिया गया. दूसरी ओर, ताइवान में, सरकारी नेतृत्व वाली ERSO कई निजी कंपनियों के माध्यम से उत्पादन कर सकती है और प्रतिस्पर्धा को सफलतापूर्वक बढ़ावा दे सकती है. हालाँकि हो सकता है कि भारत के इस दृष्टिकोण से सरकार का बहुमूल्य धन बच गया हो, लेकिन इसने एक ऐसी संरचना को कायम रखा जो मौलिक रूप से नवाचार के विपरीत थी.
तीसरा, आयात प्रतिस्थापन से जुड़ा घरेलू व्यापार और कारोबारी नीतियाँ महंगी साबित हुईं, जैसा कि सोवियत संघ के मामले में हुआ था. प्रमुख आर्थिक नीतिगत विमर्श का मकसद विदेशी मुद्रा और डॉलर को देश छोड़ने से बचाना था. इसका मतलब सख्त आयात नियंत्रण और भारी टैरिफ़ था. इन शुल्कों का भुगतान करने के बाद भी, उपकरण सरकारी मंजूरी के इंतजार में बंदरगाहों पर अटके रहे. इसका संचयी प्रभाव यह हुआ कि BEL और SCL के उत्पाद अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर प्रतिस्पर्धा नहीं कर सके. आत्मनिर्भरता के नाम पर सरकार को चिप्स निर्यात करने में न तो दिलचस्पी थी और न ही भरोसा.
इन अनुभवों से पता चलता है कि अंतरिक्ष डोमेन की नीतिगत रेसिपी को सेमिकंडक्टरों के संदर्भ में दोहराया नहीं जा सकता है. फिर भी, अंतरिक्ष और परमाणु क्षेत्रों में सफलता मनोवैज्ञानिक प्रेरणा का एक विशाल स्रोत बनी हुई है. यह हमें स्मरण दिलाता है कि सही नीतिगत तत्वों के साथ, भारत प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में भारी छलाँग लगा सकता है.