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उम्रदराज़ भारतः जाँच के घेरे में और निधियों की कमी

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23/09/2013
अपूर्वा जाधव

पिछले सप्ताह एक बहुत ही महत्वपूर्ण पेंशन निधि विनियामक व विकास प्राधिकरण विधेयक (पेंशन बिल) प्रैस में बिना किसी शोर-शराबे के राज्यसभा में पारित हो गया. कमज़ोर होते रुपये के समाचार की छाया में यह विधेयक, जिसे बनने में लगभग दस साल लग गये, बीमा क्षेत्र में 26 प्रतिशत विदेशी प्रत्यक्ष निवेश का मार्ग प्रशस्त करेगा और देश की लगभग न के बराबर औपचारिक पेंशन प्रणाली के लिए एक प्रकार का विनियम बनाने में मदद करेगा. एक बहुत बड़ी चेतावनी को छोड़कर यह समाचार हर लिहाज से शुभ समाचार ही है. मात्र लगभग 6 प्रतिशत मज़दूर ही इस विधेयक में कवर होते हैं और 94 प्रतिशत मज़दूर अनौपचारिक अर्थव्यवस्था से जुड़े हुए हैं और यह भी सच है कि सामाजिक सुरक्षा कवर के दायरे में इन्हें लाने की ज़रूरत कहीं ज़्यादा है. संयुक्त राष्ट्र के आँकड़ों से जोड़कर अगर इसे देखा जाए तो सन् 2050 तक पाँच भारतीयों में से एक भारतीय की उम्र साठ से ऊपर हो जाएगी. विशाल आबादी का यह हुज़ूम उपर्युक्त अनौपचारिक क्षेत्र से ही जुड़ा हुआ है और सवाल कर रहा हैः हम अपने बड़े-बूढ़ों की हिफ़ाज़त के लिए क्या करने जा रहे हैं?

सच तो यह है कि भारत की भूसांख्यिकी का नक्शा बदल रहा है. जहाँ एक ओर शिक्षाशास्त्री और बड़े-बड़े दानी लोग आबादी को कम करने के लिए परिवार नियोजन को अपनाने और शिशु- मृत्यु की दर को कम करने की दिशा में हस्तक्षेप करने के लिए सही ढंग से अपनी निधि और अपना ध्यान केंद्रित कर रहे हैं, वहीं परिवार नियोजन के इन साधनों की लगातार कामयाबी के कारण अनेक भारतीय पहले की तुलना में अधिक उम्र तक जीते हैं. इसका परिवार और निधि आबंटन पर काफ़ी प्रभाव पड़ा है. खास तौर पर बूढ़ी औरतों (विशेषकर विधवाओं) की तादाद बढ़ी है, उनके बच्चे भी कम हुए हैं जो बड़ी उम्र तक जीवित रहने पर उनकी देखभाल कर सकते थे और रोज़गार और / या बच्चों की शादी के कारण होने वाले स्थानांतरण के कारण परिवार व्यवस्था भी बदल रही है. इन तीनों कारणों से आवश्यकता इस बात की है कि हम वर्तमान पेशन प्रणाली में यथाशीघ्र रद्दोबदल करने के लिए व्यापक चर्चा करें

विधवाओं के लिए सामाजिक सुरक्षा

भारत और दक्षिण एशिया के देशों की अनूठी स्थिति यह है कि इस समय साठ साल से अधिक उम्र की  अधिकांश औरतें ऐसी हैं जिनकी शादी उस समय हुई थी जब साक्षरता की दर बहुत कम थी, आम तौर पर पति और पत्नी की उम्र में बहुत अंतर होता था और आर्थिक ढाँचा भी मुख्यतः पति की आमदनी पर निर्भर होता था. वैसे तो पति-पत्नी में से किसी की भी अकाल मृत्यु से मुश्किलें पैदा हो जाती हैं, लेकिन उस हाल में जब आमदनी की कोई वैकल्पिक व्यवस्था न हो तो स्थिति और भी बिगड़ जाती है. इंदिरा गाँधी राष्ट्रीय विधवा पेंशन योजना  (IGNWPS) इसी मकसद से शुरू की गयी थी कि चालीस से उनसठ साल की उम्र की गरीबी रेखा से नीचे (बीपीएल) की हर विधवा को हर माह 300/- रु. का अनुदान दिया जाए और इतनी ही समतुल्य राशि राज्य सरकार भी दे. यह मनमानी मदद भी उन औरतों को नहीं मिलती है जिनके पतियों की मृत्यु उनकी शादी जल्दी हो जाने के कारण हो जाती है और साथ ही यह रकम भी इतनी कम है कि इससे गुज़ारा नहीं होता. हिमाचल प्रदेश जैसे कुछ राज्यों ने इंदिरा गाँधी राष्ट्रीय विधवा पेंशन योजना  (IGNWPS) में उन औरतों को भी शामिल कर लिया है जिनका एक ही बेटा है, लेकिन इस योजना में वे औरतें शामिल नहीं हैं जिनके बेटे की वार्षिक आमदनी 11,000/- रु. से अधिक है. इससे न केवल पेंशन पाने वाली औरतों की विशेष पहचान आवश्यक हो जाती है बल्कि राष्ट्रीय विधेयकों की ध्यानपूर्वक लिखी गयी भाषा का महत्व भी बढ़ जाता है क्योंकि इसीके कारण उम्रदराज़ औरतों की आर्थिक देखभाल का ज़िम्मा सरकार के बजाय बच्चों पर आ जाता है.  संसद में इस पर चर्चा भी होती रही है कि पेंशन पाने के लिए पात्र महिलाओं की उम्र घटाकर अठारह कर दी जाए और वित्तीय योगदान (जो हर राज्य में अलग-अलग है) बढ़ा दिया जाए, लेकिन समय-सीमा तय न होने के कारण सुधार के अगले दौर के लिए इसे अनंत काल तक प्रतीक्षा करनी पड़ सकती है. 

निवास व्यवस्था और स्थानांतरण

परंपरागत रूप में भारत में सामाजिक सुरक्षा का आधार यही रहा है कि औरतें अपनी संतानों के साथ, विशेषकर पुरुष संतानों के साथ ही रहती रही हैं. जनगणना के अनुसार रोज़गार की वजह से पुरुषों के स्थानांतरण के कारण और शादी के कारण महिलाओं के स्थानांतरण के कारण भारत में अधिकांश उम्रदराज़ लोग अकेले रहने लगे हैं. राष्ट्रीय परिवार और स्वास्थ्य सर्वेक्षण के दो दौरों के विश्लेषण से पता चलता है कि केवल एक दशक में ही अकेले रहने वाली उम्रदराज़ औरतों या पतियों के साथ रहने वाली औरतों का अनुपात 9 प्रतिशत से बढ़कर 19 प्रतिशत हो गया. यद्यपि इसका आशय सामाजिक अलगाव के बजाय आर्थिक स्वाधीनता भी हो सकता है, लेकिन इसकी संभावना बहुत ही कम है, क्योंकि इस समूह में ज़्यादातर विधवाएँ और गरीब शहरी महिलाएँ ही हैं. इसी कारण प्रचलित सहायता प्रणाली के बजाय मज़बूत पेंशन प्रणाली की ज़्यादा आवश्यकता है. रोज़गार के लिए जो बच्चे शहरों में चले जाते हैं, वे शहरों में निवास के भारी खर्च और भीड़-भाड़ वाले शहरी आवास के कारण अपने माँ-बाप को साथ नहीं ले जा पाते और इसका कारण यह भी होता है कि शहर में अकेले रहने के कारण वे अधिक आज़ादी से अपनी ज़िंदगी जीना पसंद करते हैं. पुराने ढर्रे के घरों में अब लोग रहना पसंद नहीं करते और घर में रहते हुए बड़े-बूढ़ों की सेवा करना भी अधिक महँगा पड़ता है. बिखरते “भारतीय परिवारों” पर शोक मनाने के बजाय अब समय आ गया है कि हम अकेले रहने वाले बड़े-बूढ़ों की देखभाल के बारे में नये ढंग से खास तौर पर उनकी सेहत की देखभाल को लेकर अधिक सृजनात्मक रूप में सोचें.

भारत में 4-2-2 का ढाँचा ?

चीन में “4-2-1”  की एक अनूठी समस्या है, जिसका संबंध एक बच्चे की नीति से है. इसके अंतर्गत एक नियोजित बच्चे से अपेक्षा की जाती है कि वह अपने दोनों माँ-बाप और चारों जीवित दादा-दादियों की देखभाल करेगा. यद्यपि भारत में परिवार नियोजन की नीति प्रतिबंधित (हालांकि कुछ लोग मानते हैं कि आपात् काल के बाद भी दबाव की नीति जारी रही) नहीं है, लेकिन छोटे परिवार के अभियान के साथ-साथ गर्भ निरोधकों और गर्भपात की सेवा सुलभ होने के कारण नाटकीय रूप में संतानें कम होने लगीं.       कुछ राज्यों में पहले ही परिवारों का स्तर छोटा (अर्थात् 2.1 बच्चे प्रति महिला) होने लगा, जो आबादी को स्थिर रखने के लिए काफ़ी था. इससे यह संकेत मिलता है कि भारत में भी 4-2-2 का ढाँचा देखा जा सकता है, जहाँ परंपरा से चली आ रही प्रथाओं के अनुसार बड़े-बूढ़ों की देखरेख में ही परिवार के भरण-पोषण का महत्व माना जाता है. जहाँ एक ओर बच्चे और माँ-बाप एक-दूसरे की देखभाल करना पसंद करते हैं और इस संबंध में परिवार की भूमिका को समझते हैं, वहीं भारत सरकार पारिवारिक सपोर्ट को कानूनी तौर पर एक बाध्यकारी करार मानती है, जो विचित्र और अप्रासंगिक लगता है.  माता-पिता और वरिष्ठ नागरिक अधिनियम (2007) के अनुसार जो माता-पिता अपनी देखभाल (‘देखभाल’ शब्द की परिभाषा स्पष्ट नहीं है) करने में असमर्थ हैं, अपने बच्चों से खानपान, कपड़े-लत्ते, आवास, डॉक्टरी देखभाल और उपचार के लिए भरण-पोषण भत्ते की माँग कर सकते हैं. यह व्यवस्था कर पाने में असमर्थ बच्चों पर मुकदमा चलाकर जुर्माना किया जा सकता है. जहाँ एक ओर हम बड़े-बूढ़ों की देखभाल के लिए परंपरागत और संस्थागत ढाँचे का समर्थन कर सकते हैं, वहीं क्या आर्थिक और भावनात्मक जटिलताओं से जुड़े इस मसले के लिए सरकारी सहायता आवश्यक नहीं है? अधिकतर कानूनी मामलों में हम भारत की न्यायिक प्रक्रिया की गति और नियमितता को लेकर शिकायत करते रहते हैं, लेकिन यह एक ऐसा मामला है जिसमें अगर कुशलता नहीं दिखायी गयी तो उसे माफ़ नहीं किया जा सकेगा. 

जहाँ तक इनके अंतर्गत आने वाले साठ वर्ष की उम्र से ऊपर के दीन-हीन और / या गरीबी रेखा से नीचे आने वाले लाभकर्ताओं का संबंध है, इंदिरा गाँधी राष्ट्रीय वृद्धावस्था पेंशन योजना (IGNOAPS) इंदिरा गाँधी राष्ट्रीय विधवा पेंशन योजना  (IGNWPS) के समान ही है. पिछले साल पेंशन परिषद और हैल्प एज इंडिया द्वारा काफ़ी ऊँची दर पर और व्यापक पेंशन दिलाने के पक्ष में जनमत तैयार करने के लिए सम्मिलित प्रयास किये गये थे. यद्यपि इस दिशा में पहला कदम तो बहुत महत्वपूर्ण था, लेकिन यह स्पष्ट नहीं है कि व्यापक पेंशन योजना का प्रबंधन बेहतरीन ढंग से कैसे किया जाए. इन केंद्रीय योजनाओं का कार्यान्वयन तो प्रत्येक राज्य के स्तर ही किया जाना है और वहीं जवाबदेही का मामला भी बनता है.  साथ ही यह तय करना भी मुश्किल है कि अमुक व्यक्ति गरीबी की रेखा से नीचे आने वाले परिवार में आता है या नहीं, लेकिन उदाहरण के लिए विधवा होने का सबूत तो पति के मृत्यु-प्रमाणपत्र से मिल सकता है, लेकिन विधवा का अपना जन्म-प्रमाणपत्र मिलने में मुश्किल हो सकती है, क्योंकि अनेक विधवाओं के पास तो अपना जन्म-प्रमाणपत्र होता ही नहीं. आधार के माध्यम से दस्तावेज़ बनाने की प्रक्रिया शुरू तो की ही जा सकती है. यह एक ऐसा रास्ता हो सकता है जिसके ज़रिये पात्र बड़े-बूढ़ों को मासिक पेंशन दी जा सकती है और कुछ राज्यों ने तो प्रायोगिक स्तर पर यह प्रक्रिया शुरू भी कर दी है. इसके अलावा, जीवन-निर्वाह और स्वास्थ्य संबंधी देखभाल पर बढ़ते हुए खर्च को देखते हुए पेंशन भत्ता बढ़ाने के लिए ज़मीनी स्तर पर अभियान चलाना बहुत ज़रूरी हो गया है.

सन् 2050 में भारत में बड़े-बूढ़ों की तादाद की स्थिति सन् 2010 में इटली की स्थिति से बहुत मेल खाती  है. भारत में भूसांख्यिकी का लाभांश इटली और स्पेन के स्तर पर बुढ़ापे के निर्भरता के विषम अनुपात की तुलना में घट सकता है और भारत जहाँ इस पर गर्व कर सकता है, वहीं आर्थिक तौर पर सक्षम होने के लिए इनको रोज़गार देने और शिक्षित करने की भी आवश्यकता है. योरोप के देश इस समय अपने बड़े-बूढ़ों की मदद के लिए भूसांख्यिकीय संकट झेल रहे हैं और इसके कारण सेवा निवृत्ति की उम्र बढ़ाने पर चर्चा चल रही है और दंपतियों को अधिक बच्चे पैदा करने के लिए प्रोत्साहन भी दिये जा रहे हैं और आबादी का स्थानांतरण भी हो रहा है. भारत में ऐसे नाटकीय सरकारी चिंतन की ज़रूरत तो एक दशक बाद ही पड़ेगी, लेकिन उम्रदराज़ भारत के लिए संस्थागत सुरक्षा जाल के महत्व पर अभी से विचार करना होगा और वर्तमान पेंशन प्रणालियों को लागू करने का निर्णय हमारे राष्ट्रीय एजेंडे में होना चाहिए ताकि भविष्य में योरोप जैसे संकट को टाला जा सके.

 

अपूर्वा जाधव कैसीकी रिसर्च ऐसोसिएट हैं. वे पेन्सिल्वेनिया विश्वविद्यालय में भूसांख्यिकी में डॉक्टरेट की प्रत्याशी हैं.

हिंदीअनुवादःडॉ.विजयकुमारमल्होत्रा, पूर्वनिदेशक (राजभाषा), रेलमंत्रालय, भारतसरकार <malhotravk@hotmail.com>