कोविड-19 संकट ने देखभाल करने वाले मेहनतकश स्वास्थ्यकर्मियों के कठोर श्रम को बहुत हद तक लोगों के सामने रख दिया है. परिवार और राज्य के दायित्वों को अक्सर निष्क्रिय करते हुए चिकित्सा से जुड़े देखभाल के काम के क्लिनिकल आयामों को भावनात्मक, नौकरशाही और नैतिक कार्यों से जोड़ दिया जाता है और इसी कारण चिकित्सा का कार्य संभव हो पाता है. आम तौर पर इनकी पर्याप्त रूप में क्षतिपूर्ति नहीं हो पाती. जहाँ भारत कोविड-19 की दूसरी लहर से जूझ रहा है और विश्व नर्सिंग दिवस के मद्देनज़र ये मेहनतकश स्वास्थ्यकर्मी महामारी के केंद्र में हैं. भले ही रोगियों के परिवार हों या अस्पताल के अंदर के लोग हों या अस्पताल के बाहर के लोग, व्यक्तिगत स्तर पर, पारिवारिक स्तर पर और संस्थागत स्तर पर महामारी से जूझते सभी प्रकार के लोगों के उपचार के लिए सबसे अधिक ज़रूरत इसी तरह के स्टाफ़ की ही पड़ती है.
देखभाल करने वाले नर्सिंग स्टाफ़ की अनिश्चित स्थिति का आंशिक कारण यह है कि यह स्टाफ़ विभिन्न स्रोतों से आता है और सोशल मीडिया में यह व्यापक प्रचार होता रहा है कि अपने प्रियजनों की देखभाल के लिए ऑक्सीजन, दवाओं और अस्पताल के बिस्तरों की खोज में लगे परिवार के परिवार इन्हें पाने के लिए अनुरोध करते रहते हैं. महामारी के दौरान परोपकारी लोगों के प्रशंसनीय प्रयासों के कारण भारी संख्या में मौतों के बीच भी देखभाल के नैतिक मूल्य हमारे सामने आए हैं, लेकिन हम थोड़ा रुककर यह सोचें कि ये नैतिक मूल्य आखिर किस क्षितिज की ओर संकेत करते हैं.
मैंने भारत के सार्वजनिक अस्पतालों में भारी ज़ख्मों की स्वास्थ्य संबंधी देखभाल से संबंधित अपने शोधपत्र में यह पाया है कि “ज़ख्म” तो रोगियों, परिवारों और स्वास्थ्यकर्मियों की समस्या का केवल एक अंश है. यह अलग बात है कि हमें एक समस्या के तौर पर क्लिनिकल मुद्दे पर ध्यान केंद्रित करना चाहिए. लेकिन समस्या के समाधान की दिशा में आगे बढ़ना भी महत्वपूर्ण है. बिस्तर की व्यवस्था कैसे की जाती है? जख्म के स्थल से रोगी को उठाकर देखभाल के स्थल पर कौन ले जाता है? कब और किन स्थितियों में रिश्तेदार रोगी से मुलाकात के लिए आ सकते हैं? डॉक्टर एक निर्धारित समय पर रोगियों से आकर मिलेंगे और यह जाँच करने के लिए कि रोगी को किस इलाज की ज़रूरत है, एक-एक रोगी का मुआयना करेंगे. लेकिन हर घंटे डॉक्टर के नियमित और अनियमित मुआयने के दौरान नर्सें और सर्विस स्टाफ़ एक बिस्तर से होकर दूसरे बिस्तर तक रोगियों की देखभाल में जुटा रहता है. रोगियों का मुआयना कैसे और कब किया जाए, यही चिकित्सा की समस्या है. इस तरह के मुआयने का प्रबंधन क्लिनिकल नर्सों का काम है और “महामारी” को समझने का काम बहुत व्यवस्थित होते हुए भी इसके नतीजों का कुछ पता नहीं होता.
उदाहरण के लिए हम यह देखते हैं कि सार्वजनिक स्वास्थ्य का बुनियादी ढाँचा सब कुछ सुलभ बनाने के गतिशील संबंध से जुड़ा हुआ है. स्वास्थ्य संबंधी देखभाल की सुलभता का क्रम अक्सर लिंग, जाति, वर्ग, श्रेणी और समुदाय जैसे सामाजिक फ़ॉल्टलाइन के साथ ही विफल हो जाता है. जैसे-जैसे महामारी से होने वाली मौतों का क्रम ग्रामीण समुदायों में बढ़ता जाता है, यह अंतर और भी बढ़ता और बदलता जाता है. लगातार काम करने वाले नर्सिंग स्टाफ़ के लिए हमेशा उपलब्ध रहना भी बहुत मेहनत का काम है. कानून के मुताबिक अधिकांश सार्वजनिक अस्पताल रोगियों को दाखिल करने से मना नहीं कर सकते. लेकिन अगर वैंटिलेटर या बिस्तर सचमुच उपलब्ध नहीं हैं तो सही प्रथा तो यही है कि अस्पताल के कर्मचारी रोगी को किसी नज़दीकी अस्पताल में भेजने की व्यवस्था करें. कोविड-19 द्वारा होने वाले व्यवस्थित स्ट्रेन के मद्देनज़र “देखभाल” का अर्थ यह भी है कि रोगियों और उनके परिवारों को दवाओं और अस्पताल के उपलब्ध बिस्तरों की खोज में शहर, कस्बे और गाँव भर के अस्पतालों में “रैफ़र” कर दिया जाए. इन तमाम सुविधाओं के साथ टीकों की व्यवस्था का काम भी अक्सर जुड़ जाता था.
इस बीच, कोरोना के गंभीर संक्रमण से ग्रस्त रोगी के लिए ऑक्सीजन की समाप्ति या रोगी की गंभीर स्थिति का संकेत भी मिलता जाता है. रोगी का परिवार देखभाल के काम के लिए एक बहुत ज़रूरी बुनियादी ढाँचा खड़ा तो कर लेता है, लेकिन उसकी कोई कद्र नहीं होती. इस काम का पता तब चलता है जब अनिश्चित समय के दौरान कोविड-19 की जाँच की जाती है, स्वास्थ्यकर्मी प्रदाता से संपर्क करके यह पता करना होता है कि अस्पताल में भर्ती करना आवश्यक है या नहीं, एक ऐसे अस्पताल का पता लगाना होता है, जिसमें बिस्तर भी उपलब्ध हों, उपचार के दौरान रोगी के ठीक होते या बिगड़ते हालात को समझना होता है, सच या अफ़वाह का पता लगाना होता है ताकि उपचार के सही तरीके की पुष्टि की जा सके और परिवार के किसी सदस्य की मौत होने पर अक्सर दुनिया-भर को हिला देने वाले दुष्परिणामों का सामना करने की तैयारी की जा सके. कोविड-पॉज़िटिव रोगियों की देखभाल की प्रक्रिया स्वास्थ्य संबंधी देखभाल की बुनियादी सुविधाएँ मिलने पर ही शुरू होती हैं और यह प्रक्रिया किसी भयानक और भ्रामक युद्ध से कम नहीं होती.
इस तरह के श्रम पर लगने वाला समय दिहाड़ी पर काम करने वाले मज़दूर की तरह होता है, क्योंकि कोविड-19 के रोगी की देखभाल का मतलब यही होता है कि इसमें काम के अंतराल और समय की अवधि बदलती रहती है. घर और अस्पताल से संबंधित कोविड-19 की दिनचर्या और जिम्मेदारियाँ रोज़ ही बदलती रहती हैं. किसी बीमारी के क्लिनिकल पैटर्न बार-बार बदलते रहते हैं. कभी तो रोगी के मुख्य अंगों की हालत बहुत बिगड़ जाती है और कभी बेहतर हो जाती है और फिर बार-बार उसमें बदलाव होता रहता है. इसलिए लगातार निगरानी रखनी पड़ती है. दिन-भर की मेहनत को छोड़कर या फिर घरेलू श्रम करना असंभव होता जाता है. कम से कम नुक्सान के लिए अक्सर किसी एक परिवार के सदस्य की निगरानी रखने का काम परिवार के सदस्यों के बीच बँट जाता है. भारत में या भारत के बाहर रहने वाले परिवारजनों के लिए यही सच है. दक्षिण एशिया के प्रवासी समुदाय पर भारी बोझ रहता है, क्योंकि वे भारत में रहने वाले अपने परिवार की आर्थिक मदद करते हैं. दिन-रात चौबीसों घंटे व्हाट्सऐप या फ़ोन के माध्यम से वे टीकाकरण की वैबसाइट के चक्कर लगाते रहते हैं और ऑक्सीजन के स्रोत का पता लगाने की कोशिश में रहते हैं और अपने प्रियजनों की देखभाल के लिए स्वास्थ्यकर्मियों से संपर्क करने की कोशिश में जुटे रहते हैं. कहीं दूर बैठे हुए अस्पताल के बाहर से या समुद्रपार से कोशिश करते हुए उनकी देखभाल बहुत ज़रूरी हो जाती है, भले ही महामारी से जूझने में वे कितने ही तनावग्रस्त क्यों न रहते हों. इसे काम के साथ-साथ काम की लागत के तौर पर भी समझने की आवश्यकता है.
कोविड-10 के दौरान ये बातें बहुत स्पष्ट हो गई हैं और परिवारों और अस्पतालों के बीच उलझते अनेक प्रकार संबंधों के रूप में प्रकट होने लगी हैं. एक बार जब कोविड के लक्षणों से संक्रमित कोई रोगी अस्पताल में आता है तो उसका पाला अस्पताल के अनेक प्रकार के कर्मचारियों से पड़ता है. “डॉक्टर-रोगी संबंध” पर लिखने वाले समाजविज्ञानी अक्सर अपने लेख में उन तमाम कर्मचारियों की अनदेखी कर देते हैं जिनके कारण चिकित्सा संपन्न होती है, जैसे नर्सें, कैमिस्ट, अर्दली, लैब सहायक, तकनीशियन से लेकर सफ़ाई वाले और क्लर्क भी चिकित्सा की प्रक्रिया में शामिल रहते हैं. इन तमाम प्रकार के स्वास्थ्यकर्मियों में अलग-अलग लिंग,श्रेणी और जाति के कर्मचारी शामिल होते हैं. जहाँ एक ओर ये स्वास्थ्यकर्मी अस्पताल प्रणाली के अंतर्गत अलग-अलग श्रेणियों से संबद्ध रहते हैं, उनके विशिष्ट प्रतिपूरक खर्चे और संरक्षण होते हैं, लेकिन “देखभाल” में उनका योगदान औपचारिक और अनौपचारिक दोनों ही रूपों में बहुत महत्वपूर्ण होता है. वे वैंटिलेटर लगाते हैं, IV ड्रिप चैक करते हैं, परामर्श संबंधी नोट लेकर जाते हैं, एक वार्ड से दूसरे वार्ड में रोगियों को ले जाते हैं, खाना पकाते हैं और खाना डिलीवर भी करते हैं. वे ऑक्सीजन टैंक के स्तर की जाँच करते हैं, इलाज के लिए रोगियों को दवा देते हैं और रक्त बैंक का प्रबंधन भी करते हैं. वे फ़र्श साफ़ करते हैं, उपकरणों की सफ़ाई करते हैं और महामारी के संक्रमण को रोकने के लिए उन्हें कीटाणुरहित बनाते हैं. वे रोगियों तक दवाएँ पहुँचाते हैं ताकि रोगी जीवित रह सकें.
दवाओं की आनुक्रमिक प्रकृति के मद्देनज़र जहाँ कनिष्ठ डॉक्टरों और नर्सों पर रोगियों की भारी ज़िम्मेदारी होती है और उन्हें एक बिस्तर से दूसरे बिस्तर तक चक्कर लगाने पड़ते हैं, वहीं इन कर्मचारियों को रोगियों और परिवार के बीच अधिकाधिक और आत्मीय संबंध बनाये रखने की ज़िम्मेदारी रहती है. वे विशेष जरूरतों के बारे में गोपनीय जानकारी रखते हैं या उनकी पैरवी भी करते हैं और जब कोई किसी की बात नहीं सुनता तो ये कर्मचारी ही सबकी सुनते हैं. कोविड की देखभाल सबसे अधिक सार्वजनिक संस्थानों में ही होती है. इस बात के मद्देनज़र ये कर्मचारी ही राज्य के दाएँ और बाएँ हाथ होते हैं. उनकी यह मेहनत-मशक्कत रोगी के अस्पताल में रोगी के रहने तक ही नहीं चलती, बल्कि कुछ मामलों में तो रोगी की मौत के बाद भी जारी रहती है. मुर्दाघर में काम करने वाले कुछ कर्मचारियों ने तो उन परिवारजनों के लिए अनौपचारिक रूप में “व्हाट्सऐप अंत्येष्टि” भी शुरू कर दी है, जो अपने प्रियजनों को उनकी मौत के बाद अंतिम विदाई के लिए अस्पताल भी नहीं पहुँच पाते, लेकिन इस देखभाल की भी कीमत होती है. जितनी बार वे रोगियों के संपर्क में आएँगे, उतना ही अधिक उनके लिए खतरे बढ़ेंगे. जब PPE की सप्लाई कम पड़ जाती है तो सबसे निचले दर्जे के स्वास्थ्यकर्मी अपने संरक्षण के साथ समझौता करने के लिए विवश हो जाते हैं. रोगियों के बार-बार संपर्क में आने के कारण उनके अपने लिए और उनके परिवारजनों के लिए खतरा और भी बढ़ता जाता है. इलाज के लिए प्रयुक्त दवा लाने-ले जाने से भी बार-बार संपर्क में आने के कारण उनकी समस्या बढ़ती ही जाती है.
भारत के साथ-साथ अन्य देशों में भी महामारी का प्रमुख पक्ष यही है कि देखभाल के काम में लगे स्वास्थ्यकर्मी अस्पताल के बाहर भी इस खतरे से जूझते रहते हैं. यह खतरा अस्पताल के अंदर के खतरे से किसी भी हालत में कम नहीं होता. टीका लगाने वाले स्वास्थ्यकर्मी, आशा कर्मी, परीक्षण केंद्रों में काम करने वाले कर्मचारी और संपर्क करने वाले कर्मचारी इस महामारी का एक अत्यंत महत्वपूर्ण बुनियादी ढाँचा है. इसी तरह कोविड-19 के पॉज़िटिव रोगियों के लिए टिफ़िन सप्लाई करने वाले, लंगर में खाना बाँटने वाले और घर का बना खाना उपलब्ध कराने वाले सामुदायिक समर्थक भी बुनियादी ढाँचे की तरह ही हैं. रोगियों और उनके परिवारजनों को अस्पताल पहुँचाने वाले ऑटोवाले और एम्बुलेंस के ड्राइवर भी देखभाल करने वाले लोगों में शामिल हैं. वे बार-बार रोगियों के संपर्क में आते हैं और काम का बहुत अधिक बोझ ढोते हैं. ऐसे कर्मचारियों को भी मान्यता मिलनी चाहिए और उन्हें संरक्षण भी प्रदान किया जाना चाहिए.
जब तक हम इधर से उधर आने-जाने वाले कर्मचारियों के श्रम का महत्व नहीं समझेंगे, तब तक हम बीमारी के स्रोत के रूप में बीमारी पर ही दोषारोपण करते रहेंगे और उसके संभावित उपचार के लिए सही उपाय नहीं कर पाएँगे. आम तौर पर नीति पर चर्चा करते समय “रोकी जा सकने वाली मौत” की परिकल्पना की जाती है; आवश्यकता इस बात की है कि इधर-उधर घूमकर देखभाल करने वाले कर्मचारियों के संदर्भ में भी इसी तरह चर्चा की जानी चाहिए. अक्सर हम देखभाल करने वाले इन श्रमिक कर्मचारियों की अनदेखी कर जाते हैं, जबकि आवश्यकता इस बात की है कि हम भारी करों के बोझ के तले दबी चिकित्सा व्यवस्था पर चर्चा करते समय इन कर्मचारियों की भी क्षतिपूर्ति का प्रयास करें. यह बात उस संदर्भ में और भी सही लगती है, जब देखभाल करने वाले स्वास्थ्यकर्मियों के संदर्भ में संसाधनों की कमी को पूरा करने की बात आती है. नर्सों, तकनीशियनों, अर्दलियों, सफ़ाई करने वाले कर्मचारियों और अस्पताल के मुर्दाघरों में काम करने वाले कर्मचारियों के साथ-साथ देखभाल के खर्च की पूर्ति के लिए रोगियों के रिश्तेदारों के लिए ये कर्मचारी असाधारण प्रयास करते हैं. इन कर्मचारियों के अभाव में अस्पतालों का काम ठप्प हो जाएगा और रोगी साँस लेने में भी कठिनाई का अनुभव करेंगे और सारी व्यवस्था चरमराने लगेगी.
जब भी नीतिनिर्माता महामारी के बाद स्वास्थ्य की देखभाल संबंधी क्षमता के पुनर्निर्माण पर चर्चा करते हैं तो यह चर्चा टीका केंद्रों और बाहरी ढाँचे तक ही सीमित रहती है, जबकि इन कर्मचारियों की देखभाल संबंधी सेवा बेहद महत्वपूर्ण है. लेकिन इतना ही महत्वपूर्ण यह भी है कि जो कर्मचारी इधर-उधर घूमते हुए चिकित्सा को संपन्न करते हैं, उनकी बेहतर ढंग से क्षतिपूर्ति की जाए. स्वास्थ्यकर्मियों के लिए बेहतर क्षतिपूर्ति के उपायों पर विचार किया जा रहा है लेकिन उनके लिए संसाधन जुटाना अभी भी बहुत कठिन है. यह केवल सामान्य देखभाल की बात नहीं है, स्वास्थ्यकर्मियों का जीवन भी खतरे में है. महामारी के खतरों से उत्पन्न नुक्सान में स्वास्थ्यकर्मियों का जीवन और श्रम दोनों ही दाँव पर लगे होते हैं. इसलिए इनकी गणना साथ-साथ की जानी चाहिए. आप अस्पताल में बिस्तर की बात तो करते हैं, लेकिन रोगी की देखभाल एक अन्य विषय है, जिस पर चर्चा की जानी चाहिए. टीकों के तकनीकी जादुई प्रभाव के आलोक में हम सामूहिक दायित्व से मुक्त नहीं हो सकते. अंततः इस संकट का पहला लाभ मनुष्य को ही मिलना चाहिए.
हैरिस सोलोमन ड्यूक विश्वविद्यालय में सांस्कृतिक नृवंशविज्ञान और वैश्विक स्वास्थ्य के एसोसिएट प्रोफ़ेसर हैं.
हिंदी अनुवादः डॉ. विजय कुमार मल्होत्रा, पूर्व निदेशक (राजभाषा), रेल मंत्रालय, भारत सरकार
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