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भारत के शहरों में ग्राहकवाद की दिक्कतें

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28/03/2016
साइमन चॉचर्ड

भारत में राज्यों के विधायकों की सबसे बड़ी दिक्कत है, विधायक के रूप में उनकी पदधारिता का कार्यकाल. एक बार विधायक होने पर दुबारा से विधायक चुना जाना मुश्किल हो जाता है. यह इस हद तक भ्रामक होता है कि इन पदधारियों को अपने इस राजनीतिक पद पर बने रहने का पर्याप्त लाभ उठाते हुए ही अगले चुनावों के दौरान भी अपने प्रतिद्वंद्वियों को चुनौती देनी होती है. उदाहरण के तौर पर उनकी यह अपेक्षा तो रहती ही है कि व्यक्तिगत स्तर पर मतदाताओं की मदद करने के कारण अगले चुनाव में भी उनकी जीत होगी. यह सच है कि विधान सभा के सदस्य, आम तौर पर विधान सभा में अपने विधायी कर्तव्यों का निर्वहण करने के बजाय अपने स्थानीय कामों पर अधिक ध्यान देते हैं और वे अपने अधिकांश समय का उपयोग मतदाताओं के लिए पत्र लिखने या उनकी तरफ़ से फ़ोन आदि करने में ही बिता देते हैं. जिस तरह से वे अपने चुनाव-क्षेत्र में राज्य की विभिन्न सेवाओं के लिए या निजी स्तर पर लोगों पर दबाव डालते हैं, उससे उनके मतदाताओं के जीवन में नई बहार आ जाती है, लोगों को पेंशन मिल जाती है, बच्चों को निजी स्कूलों में कोटे के आधार पर दाखिला मिल जाता है और आनाकानी के बावजूद डॉक्टर कम दाम पर ज़रूरी सर्जरी करने के लिए तैयार हो जाता है. ऐसे अनेक उदाहरण मिल जाएँगे, लेकिन यह उलझन तो फिर भी बनी ही रहती है कि इस सबके बावजूद निर्वाचित प्रतिनिधियों को अपनी सेवाओं के एवज में अगले चुनाव में जीत का पुरस्कार नहीं मिल पाता ?

कुछ मामलों में तो चुनावी जीत न मिल पाने के कारण पार्टी-स्तर या राष्ट्रीय स्तर के भी होते हैं. उदाहरण के तौर पर अपने सभी चुनाव क्षेत्रों में बढ़िया काम करने के बावजूद भी कांग्रेस पार्टी सन् 2014 के चुनाव में साफ़ तौर पर घाटे में ही रही, लेकिन 2014 में “मोदी-लहर” के दौरान इस घाटे का कारण विधायक के रूप में उनकी पदधारिता ही रही हो, इसके स्पष्ट कारण नहीं हैं, क्योंकि कमोबेश यह स्थिति सभी पार्टियों और राज्यों की रही. कई मामलों में तो इसका कारण यही रहा कि पदधारियों ने उपर्युक्त स्थानीय समस्याओं पर पर्याप्त ध्यान ही नहीं दिया. जब मतदाताओं की धारणा बन जाती है कि पदधारी ज़िम्मेदारियों से बचने की कोशिश कर रहा है तो निश्चय ही वे मतदाताओं से यह उम्मीद नहीं कर सकते कि अगले चुनाव में भी वे उसे ही चुनाव में जितवाएँगे.   

हालाँकि इन तर्कों से पदधारिता-विरोधी बातों का आंशिक रूप में ही समाधान हो पाता है, मुंबई में मेरे हाल ही के फ़ील्ड अनुसंधान से भी कुछ हद तक सामान्य स्पष्टीकरण ही मिल पाया है. अनेक जन-सांख्यिकीय, सामाजिक और राजनीतिक परिवर्तनों के कारण पदधारी ऐसे किसी फ़ॉर्मूले की तलाश में असफल होकर भटक रहे हैं, जिससे अगले चुनावों में सेवाओं और लाभों को वोट में बदला जा सके. अगर शहरी चुनाव क्षेत्रों से राजनीतिक गतिशीलता के परिदृश्य का पता चलता है तो इस प्रकार के संभावित विनिमय से भावी चुनावों की प्रवृत्तियों को समझना मुश्किल ही नहीं, बल्कि असंभव होता जाएगा. इस प्रकार के संभावित विनिमय को आम तौर पर “ग्राहकवाद” या “संरक्षण” कहा जाता है. इससे स्पष्ट हो जाता है कि बहुत ही भले और परिश्रमी पदधारियों के लिए भी अपने काम के बल पर चुनाव जीतना संभव क्यों नहीं हो पाता.

स्थूल रूप में तीन दीर्घकालीन कारक ऐसे हैं जिनके कारण ग्राहकवादी संबंध बनाना लगातार असंभव होता जा रहा है. पहला कारक तो यह है कि चुनाव क्षेत्रों का दायरा बढ़ता जा रहा है. संभावित विनिमय की राजनीति के आधार पर सफलता की उम्मीद बहुत कम है, क्योंकि अब राजनीतिज्ञों के पास एक साथ बहुत-से चुनाव क्षेत्र होते हैं.  हालाँकि विधायक अपने-आपको आम आदमी का चैम्पियन समझते हैं, लेकिन यह व्यावहारिक नहीं है कि वे तीन से चार लाख लोगों की समस्याएँ सुलझा सकें. तमाम कोशिशों के बावजूद वे सबकी समस्याएँ सुलझाने के बजाय कुछ ही लोगों की समस्याएँ सुलझा पाते हैं. इतना ही, उनके अपने समर्थक भी उनसे छिटकने लगते हैं, क्योंकि वे उन सबकी समस्याएँ भी नहीं सुलझा पाते और वही समर्थक उनके विरोधी हो जाते हैं.    जहाँ बुनियादी ढाँचा ही सीमित होता है और राज्य की बुनियादी सुविधाएँ भी ठप्प पड़ी होती हैं, वहाँ पर बहुत सक्रिय विधायक भी मतदाताओं के कहने पर कुछेक मतदाताओं की समस्याओं को ही हल कर पाते हैं. और यह भी ज़रूरी नहीं है कि जिन समस्याओं को उन्होंने सुलझा दिया हो, वे भी वोट में ही परिणत हो जाएँ. अधिक आबादी वाले चुनाव क्षेत्रों की राजनीति में तो यह भी आवश्यक है कि निर्वाचित राजनीतिज्ञों का ध्यान आकर्षित करने के लिए अधिक से अधिक मझौलियों को भी जोड़ा जाए. इस संदर्भ में, ज़रूरी नहीं है कि मतदाता उनके सभी कार्यों का श्रेय अनिवार्यतः संबंधित विधायक को ही दें, वे इसके लिए कई कारकों को ज़िम्मेदार मान लेते हैं. 

अगर ज़मीनी स्तर पर उनकी उपलब्धियों का बखान करने के लिए राजनीतिज्ञों के वफ़ादार समर्थक मौजूद हों तो जन-सांख्यिकीय कारकों को भी कम किया जा सकता है. लेकिन दुर्भाग्यवश, ऐसा बहुत कम पदधारियों के साथ हो पाता है. मुझे लगता है कि यही प्रवृत्ति संगठनात्मक कमी का दूसरा कारण है: साथ ही राजनीतिक प्रतिस्पर्धा का स्तर भी बहुत तेज़ी से बढ़ रहा है. अधिक उम्मीदवार होने का भी सीधा मतलब है, अनिश्चित चुनाव और उसके कारण अधिकाधिक बढ़ती पदधारिता विरोधी प्रवृत्ति. लेकिन इसका एक और कारण भी है, जो महत्वपूर्ण होते हुए भी परोक्ष कारण है और वह है राजनीतिक प्रतिस्पर्धा या होड़ में बढ़ोतरी. इसके कारण पदधारियों के लिए मतदाताओं के साथ ऊपर से नीचे तक सीधे संपर्क बनाने के लिए पिरामिड के आकार का मज़बूत संगठन खड़ा करना मुश्किल हो जाता है. जन-सांख्यिकीय परिवर्तनों के कारण यह और भी आवश्यक हो जाता है कि संगठनात्मक ढाँचे को और भी बढ़ाया जाए. साथ ही राजनीतिज्ञों के लिए यह भी ज़रूरी है कि वे अपने एजेंट नियुक्त करें ताकि मतदाताओं से निकट संपर्क बनाया जा सके. भाजपा के हाल ही के अभियान को इसी तरह से भी समझा जा सकता है: अर्थात् एक ऐसा प्रयास, जिससे स्थानीय स्तर पर पार्टी के अतिरिक्त एजेंटों को चिह्नित किया जा सके.

परंतु प्रतिस्पर्धा या होड़ बढ़ने से सारा मामला और भी जटिल हो जाता है. इसका अर्थ यह है कि पार्टी के संगठन में विधायक व्यक्तिगत स्तर पर सबसे निचले पायदान पर है और बूथ के स्तर पर भी उसके पक्षपातपूर्ण विकल्प कई गुना बढ़ जाते हैं. इसके फलस्वरूप वे अधिकाधिक अवसरवादी होते जाते हैं, उनकी वफ़ादारी कम होती जाती है और अक्सर उनकी विश्वसनीयता भी भरोसे लायक नहीं रहती. भारत में बहुत ही कम ऐसी पार्टियाँ हैं और भाजपा भी ऐसी पार्टी नहीं है, जिसका संगठन मज़बूत और वफ़ादार हो और जो इस बात की गारंटी दे सके कि वे अपने उम्मीदवारों की उपलब्धियों को चुनाव के समय स्थानीय तौर पर आगे बढ़-चढ़ कर प्रचारित करेंगी. इसी तरह से ये अपेक्षाकृत कमज़ोर संगठन चुनाव से पहले उचित रूप में मतदाताओं की निगरानी भी नहीं कर पाते. इसका यह आशय नहीं है कि पार्टी में सच्चे समर्थक या सैद्धांतिक रूप में प्रतिबद्ध कार्यकर्ता नहीं होते. कुछ समर्थक ऐसे भी होते हैं, लेकिन मेरे इंटरव्यू से यह बात साफ़ हो जाती है कि ज़मीनी स्तर के ये पार्टी एजेंट वैसे वफ़ादार, परिश्रमी और भरोसेमंद कार्यकर्ता नहीं होते, जैसा कि पार्टी के वरिष्ठ पदाधिकारी भर्ती के समय उनसे अपेक्षा करते हैं. पार्टी के ऐसे अपेक्षाकृत असंगठित स्वरूप के और भी अनेक कारण हैं, जैसे, पार्टी में आंतरिक लोकतंत्र का अभाव और पार्टी के अंदर ही पदोन्नति के अनुचित नियम, जिनके कारण पार्टी के निचले पायदान के कार्यकर्ता अक्सर निरुत्साहित हो जाते हैं. यही कारण है कि संगठनात्मक कमज़ोरियों के कारण पदधारियों के लिए पद पर बने रहना भी संभव नहीं हो पाता.

तीसरा और अंतिम कारक वह है जिसके कारण पदधारियों का दुबारा चुना जाना अधिक मुश्किल हो जाता है. इसका संबंध उन तमाम सामाजिक और पीढ़ीगत परिवर्तनों से है जो हाल ही के अभियानों में उभरकर सामने आया है. उल्लेखनीय रूप में इसका संबंध युवा शिक्षित मतदाताओं की बढ़ती आज़ादी से है. ये मतदाता पार्टियों के ज़रिये भी हो सकते हैं और पक्षपातपूर्ण पारिवारिक प्राथमिकताओं के ज़रिये भी. यही मतदाता “वोट बैंक” के लगातार खिसकने का संकेत भी देते हैं. जिन तमाम पार्टी कार्यकर्ताओं से मैंने बात की है वे युवा शहरी मतदाता थे, उन्हें समझ पाना मुश्किल था और उनका चयन भी जाति या पार्टी के स्तर पर नहीं, बल्कि योग्यता के आधार पर किया गया था और राजनीतिक प्रक्रिया से जुड़ने में उनकी सचमुच कतई रुचि नहीं होती. इन परिवर्तनों के कारण कुछ समूहों या कुछ पार्टियों के सदस्यों का जो स्वाभाविक संबंध रहता था, वह भी तेज़ी से घटता जा रहा है. यही कारण है कि पदधारी कुछ समूहों से अनायास ही मिलने वाले समर्थन से भी वंचित हो जाते हैं. जब वे अपनी उपलब्धियों को प्रचारित करने का प्रयास करते हैं तो उनके सामने और भी समस्याएँ उठ खड़ी होती हैं. यह और भी दुःखद है.

कुल मिलाकर इससे यह स्पष्ट हो जाता है कि जब भी पदधारी दुबारा चुनाव के लिए सक्रिय होते हैं तो उनके सामने भारी दिक्कतें आती हैं. आम तौर पर भारत के शहरों में ग्राहकवादी शुद्ध रणनीतियाँ कारगर नहीं होतीं. राजनीतिक प्रणाली के लिए तो यह सुखद समाचार हो सकता है, क्योंकि इससे पता चलता है कि मतदाता बहुत कम अवसरों पर किसी का बंधन स्वीकार करते हैं. उनके विकल्प बढ़ते जा रहे हैं और वे उनका भरपूर लाभ भी उठाते हैं, लेकिन यह इस बात पर निर्भर करता है कि अंततः ग्राहकवाद के लगातार विफल होते हुए इस फ़ॉर्मूले की जगह अंततः कौन-सी रणनीति लेती है.

साइमन चॉचर्ड(simon.chauchard@dartmouth.edu)  डार्टमाउथ कॉलेज में सहायक प्रोफ़ेसर हैं. उनके शोध का मुख्य विषय है, भारत में राजनीतिक आरक्षण, मतदान व्यवहार और मतदाता-राजनीतिज्ञों के संबंधों का प्रभाव.

 

हिंदी अनुवादः विजय कुमार मल्होत्रा, पूर्व निदेशक (राजभाषा), रेल मंत्रालय, भारत सरकार <malhotravk@gmail.com> / मोबाइल : 91+9910029919