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भारत में व्यावसायिक बनाम परोपकारी स्थानापन्न मातृत्व (सरोगेसी)

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18/01/2016
निष्ठा लाम्बा

अक्तूबर के मध्य में भारत के उच्चतम न्यायालय ने व्यावसायिक स्तर पर सरोगेसी प्रथा को लेकर कुछ सवाल उठाये थे.उसके बाद उसी महीने में इसकी प्रतिक्रिया स्वरूप केंद्र सरकार ने भारत में सरोगेसी के लिए विदेशी जोड़ों पर प्रतिबंध लगा दिेए, लेकिन केवल बाँझ भारतीय जोड़ों को ही इसमें छूट दी गई है. थाईलैंड और नेपाल जैसे पड़ोसी देशों में व्यावसायिक स्तर पर सरोगेसी पर हाल ही में लगाये गये प्रतिबंध को देखते हुए इन परिवर्तनों को लेकर कोई हैरानी नहीं होनी चाहिए, लेकिन इस बदलाव के औचित्य पर गहरी छानबीन करने की आवश्यकता है.  राज्यविहीन और माता-पिता विहीन शिशुओं के हाई-फ़ाई मामलों में मीडिया का जबर्दस्त आक्रोश देखने को मिला. जैसे भारत में बेबी माँजी (2008) और थाईलैंड में गैमी (2015) जैसे मामलों ने सरकार पर “सही” निर्णय लेने का दबाव बढ़ा दिया था. यह प्रतिबंध इसी की परिणति है और भारत में सरोगेसी के फलते-फूलते कारोबार पर सरकार का यह प्रतिबंध सरकार की मंशा को दर्शाता है.

भारत व्यावसायिक स्तर पर सरोगेसी का अंतर्राष्ट्रीय अड्डा (हब) बन गया है और सरोगेसी बाजार में  “कोख फ़ार्म,” “बेबी फैक्टरी,” और  “ग्लोबल सिस्टरहुड ” जैसे शब्द बेहद प्रचलन में आ गए हैं. भारतीय चिकित्सा अनुसंधान परिषद  (ICMR) के एक अनुमान के अनुसार यह कारोबार  $450 मिलियन डॉलर का हो जाएगा, लेकिन इसके अनियमित कारोबार का “काल्पनिक मूल्य” $2.3 बिलियन डॉलर हो सकता है. इसके परिणमस्वरूप भारतीय विधि परिषद (2009) ने इसे  “सुनहरे बर्तन” की संज्ञा दी है. कम लागत और सुविधाजनक नियमों ( जैसे जन्म प्रमाणपत्र पर माता-बाप के नाम का अंकन और होस्टल में साथ-साथ रहते हुए नौ महीने तक सरोगेट माता की लगातार देखभाल के कारण ) सारी दुनिया से इच्छुक माता-बाप यहीं आना पसंद करते हैं.

भारत सरकार ने गरीब और ज़रूरतमंद औरतों के शोषण को रोकने के लिए ही व्यावसायिक स्तर पर सरोगेसी पर रोक लगाई है. अनुसंधानकर्ताओं  ने सीमा के आर-पार व्यावसायिक स्तर पर सरोगेसी के माध्यम से शोषण के अनेक कारण बताए हैं- ये कारण मुख्यतः नैतिक, वित्तीय और भावनात्मक हैं. वैश्विक उत्तर के देशों की संपन्न बाँझ औरतों द्वारा वैश्विक दक्षिण के देशों की गरीब और मातृत्व के लिए उपयुक्त औरतों की “कोख को किराये” पर लेना कहाँ तक नैतिक है. (दासगुप्ता व दासगुप्ता, 2014). इसी नैतिक तर्क को आगे बढ़ाते हुए कुछ लोग इसे आधुनिक युग की गुलामी और मातृत्व का उपहास मानते हैं.

वित्तीय पक्ष पर विचार करते हुए यह कहना कठिन है कि क्या सरोगेसी एक ऐसे देश के लिए वाकई खराब विकल्प है, जहाँ विषम सामाजिक परिस्थितियों के कारण औरतें वेश्या बनने के लिए मजबूर हो जाती हैं या गरीबी के कारण लोग ( कमाने और ज़िंदा रहने के अंतिम विकल्प के रूप में ) अपने अंग तक बेच डालते हैं. गरीबी और विषमता की चक्की में पिसती हुई  एक औसत भारतीय औरत के सरोगेट के जीवन को देखते हुए वित्तीय शोषण जैसे शब्द शब्दाडंबर से अधिक कुछ नहीं लगते और ये शब्द पश्चिम से उधार लिये हुए शब्द ही तो लगते हैं. शोषण परिस्थिति-सापेक्ष है. यही कारण है कि नीति के स्तर पर अंतर्राष्ट्रीय व्यावसायिक सरोगेसी के तर्क शोषण की दृष्टि से कमज़ोर लगते हैं. इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता कि भारत में व्यावसायिक सरोगेसी के कारण ही बाल-बच्चों से विहीन हज़ारों माता-पिताओं को मदद मिली थी, चिकित्सा पर्यटन के माध्यम से राजस्व मिलने लगा था और  सरोगेसी के ज़रिये औरतों को आमदनी का बहुमूल्य स्रोत मिल गया था.

इसके अलावा, सरोगेसी के ज़रिये इन औरतों को दस साल के बराबर की नियमित आमदनी होने लगती है. कुछ लोगों का मानना है कि व्यावसायिक सरोगेसी के कारण ही कई औरतें आर्थिक रूप में सशक्त हो पाई हैं और इसीसे शोषण के तर्क की चुनौती का सामना किया जा सकता है. इसके अलावा यह भी सत्य है कि ( कुछेक अपवादों को छोड़कर) इन औरतों को सरोगेसी के लिए बाध्य नहीं किया जाता और ये औरतें सरोगेसी के ठेके में उल्लिखित वित्तीय पक्षों से पूरी तरह से परिचित होती हैं. इससे यह स्पष्ट है कि इस विकल्प के बारे में उनसे कुछ भी छिपा नहीं होता, लेकिन अमेरिका में कुल लागत के  50 प्रतिशत  का भुगतान सरोगेट औरतों को किया जाता है. इसकी तुलना में भारत में सरोगेट औरतों को लगभग 20 प्रतिशत ( या उससे भी कम) का भुगतान किया जाता है. इसलिए सरोगेट औरतों को भुगतान किये जाने वाले अंश को दुगुना करने का औचित्य तो बनता ही है.

परंतु आर्थिक रूप में लोकप्रिय इस शोषण का एक और आयाम भी है. यह भावनात्मक भी हो सकता है, क्योंकि इसमें सरोगेट औरतों की पूर्व सहमति निहित होती है, प्रजनन संबंधी श्रम का सम्मान होता है और इससे संबद्ध सभी पक्षों के मनोवैज्ञानिक कल्याण की कामना निहित रहती है. इस दृष्टि से देखें तो भारत में व्यावसायिक सरोगेसी का ढाँचा बहुत हद तक संतोषजनक  ही है. जहाँ तक सरोगेट औरतों को यह जानकारी प्रदान करने का सवाल है कि उनके गर्भाशय में कितने भ्रूण डाले गये या कितने निकाले गये, उनके गर्भ से पैदा होने वाले शिशु को देखने / मिलने का अधिकार उन्हें नहीं दिया गया, इच्छुक माता-पिता की राष्ट्रीयता से उन्हें अनभिज्ञ रखा गया और उन्हें किसी तरह के भी मनोवैज्ञानिक सलाह-परामर्श का अवसर नहीं दिया गया, इसे तो शोषण ज़रूर ही माना जा सकता है. इन पहलुओं के मद्देनज़र नीतिगत स्तर पर सरकार का यह हस्तक्षेप स्वागत योग्य कदम है, लेकिन व्यावसायिक सरोगेसी पर प्रतिबंध लगाने से इन समस्याओं का समाधान नहीं हो पाएगा.   

“कोख खरीदना” या  “शिशु खरीदना ” जैसे खरीद-फ़रोख्त वाले नज़रिये कई नैतिक सवाल उठाते हैं, लेकिन ऐसा लगता है कि भुगतान वाले पहलू को हटा देने से तो  इसका “शोषक ” वाला पक्ष और भी प्रबल हो जाएगा. सरकार ने परोपकारी सरोगेसी के मामले में अपनी सहमति तो जताई है, लेकिन ऐसे मामलों में सरोगेट औरतों को कोई खास आर्थिक प्रोत्साहन नहीं मिलता. उन्हें बाँझ भारतीय जोड़ों के लिए बच्चे के गर्भधारण का मात्र बुनियादी खर्च ही मिलता है, लेकिन ज़ाहिर है इसकी भी अपनी कुछ सीमाएँ हैं. पहली बात तो यह है कि भारत जैसे साधनों की भिन्नता वाले देश में इस बात की कोई गारंटी नहीं है कि संपन्न और बाँझ भारतीय महिलाएँ गरीब और मातृत्व के मामले में सक्षम औरतों का शोषण नहीं करेंगी. दूसरी बात यह है कि इस संबंध में किये गये अनुसंधान से पता चला है कि व्यावसायिक सरोगेसी  से प्राप्त “भुगतान ” से सरोगेट  औरतों का अपने अंदर पलते और बढ़ते हुए गर्भस्थ शिशु के साथ भावनात्मक स्तर पर लगाव पैदा नहीं हो पाता. इसलिए यह अनुमान लगाया जा सकता है कि  परोपकारी  सरोगेसी  के मामले में  गर्भस्थ शिशु के साथ लगाव बढ़ने की संभावना अधिक रहती है. तीसरी बात यह है कि किसी भी सरकारी संस्था के लिए  “मुआवज़े” के नाम से दिये गये  “उपहारों ” पर निगरानी रखना संभव नहीं हो पाता. अंततः परोपकारी सरोगेसी के मामलों में भी इन गरीब  और दबी-कुचली औरतों, जिनकी अपनी कोई आवाज़ भी नहीं होती, की स्थिति और भी दयनीय हो जाती है और ये और भी अशक्त हो जाती हैं.

और भी कई विवादास्पद मामले हैं. उदाहरण के लिए परोपकारी  सरोगेसी के मामलों में यू.के. की तरह क्या भारत सरकार भी सरोगेट औरतों को, यदि वे चाहें तो शिशु को अपने पास रखने का अधिकार दे सकती है? जन्म प्रमाणपत्र पर किसका नाम लिखा जाएगा ? सरोगेट औरत का या इच्छुक माता-पिता का ? किसका नाम “ प्रकट”  रूप में लिखा जाएगा और किसका नाम “ गुप्त”  रखा जाएगा? इसप्रकार इस नीतिगत हस्तक्षेप के कारण कई सवाल उठ खड़े होंगे और हमें इनके जवाब तलाशने होंगे.

व्यावसायिक  सरोगेसी के मामलों की तरह परोपकारी सरोगेसी के मामलों के भी कई सामाजिक और नैतिक निहितार्थ हैं और इसे भावनात्मक शोषण से पूरी तरह मुक्त नहीं माना जा सकता. यह समझना ज़रूरी है कि सरोगेट औरतें अपने नवजात शिशु से अलग होने में कितने स्तरों पर मनोवैज्ञानिक पीड़ा का अनुभव करती हैं.  यू.के. में किये गये अध्ययन ( जाडवा, 2003) से पता चला है कि सरोगेट माताएँ अपने नवजात शिशु से भावनात्मक स्तर पर जुड़ाव से मुक्त हो सकती हैं. यह तभी संभव होता है जब ये औरतें अपने-आपको किसी और के शिशु की मात्र वाहिका के रूप में “सफलतापूर्वक” देख पाती हैं.  मैंने अपने ही अनुसंधान में पाया है कि  अधिकांश सरोगेट माताएँ नवजात शिशु को न देख पाने के कारण और इच्छुक माता-पिता द्वारा सरोगेसी की व्यवस्था को संपन्न करने की उत्कंठा दिखाये जाने के कारण सरोगेट माताओं को रोकने के कारण मनोवैज्ञानिक स्तर पर बहुत पीड़ा अनुभव करती हैं. इसलिए ज़रूरी है कि एक ऐसी व्यवस्था लाई जाए  जिसमें सरोगेट माताओं की आवाज़ भी सुनने की व्यवस्था बनी रहे. अंततः अनुसंधान से पता चला है कि सरोगेट माताएँ तब  हल्का अनुभव करने लगती हैं जब उन्हें पता चलने लगता है कि यह शिशु कहीं और ले जाया जा रहा है. इससे कम से कम गर्भावस्था के दौरान और डिलीवरी के बाद भी कुछ समय तक इच्छुक माता-पिता और  सरोगेट माताओं  के बीच एक स्वस्थ संवाद बना रहेगा. “सफल” सरोगेसी व्यवस्था के लिए यह बहुत ज़रूरी भी है.

सरोगेसी एक बेहद जटिल व्यवस्था है, जिसके अपने सामाजिक, जैविक, सांस्कृतिक और मनोवैज्ञानिक निहितार्थ भी हैं. आदर्श सरोगेसी व्यवस्था को लेकर किसी प्रकार की आम सहमति भी नहीं बन पाई है. किसी भी देश की व्यावसायिक और परोपकारी - दोनों  ही प्रकार की  सरोगेसी प्रथाएँ ऐसी नहीं हैं, जिनमें कोई न कोई खामी न हो. दोनों ही प्रकार की प्रथाओं में गहन स्तर पर नियम बनाये जाने की ज़रूरत है. भारतीय संदर्भ में तो कठोर नियमों में भी यथार्थ का स्वस्थ पुट होना ही चाहिए. पूर्ण प्रतिबंध लगाने से असली समस्या का समाधान नहीं होगा और इससे सरोगेसी का भूमिगत बाज़ार पनपने लगेगा और यह सभी संबंधित पक्षों के लिए और भी भयावह हो जाएगा. 

निष्ठा लाम्बा कैम्ब्रिज विश्वविद्यालय  के परिवार अनुसंधान केंद्र में मनोविज्ञान की पीएच डी की छात्रा हैं. उन्होंने अपने शोध प्रबंध में सरोगेट औरतों की विशेषताओं,प्रेरणाओं और मनोवैज्ञानिक आरोग्य की भावना का विश्लेषण किया है. 

 

हिंदी अनुवादः विजय कुमार मल्होत्रा, पूर्व निदेशक (राजभाषा), रेल मंत्रालय, भारत सरकार <malhotravk@gmail.com> / मोबाइल : 91+9910029919