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पूरे भारत में बिजली की कमी का संकट

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12/03/2018
ऐलिज़ाबेथ चटर्जी

क्या कारण है कि कुछ राज्यों में अन्य राज्यों की तुलना में बिजली अधिक जाती है ? हाल ही में भारत ने यद्यपि पीढ़ीगत क्षमता और ग्रामीण विद्युतीकरण के क्षेत्र में बहुत-सी उपलब्धियाँ हासिल की हैं, लेकिन पर्याप्त भुगतान और निवेश न हो पाने और निराशाजनक प्रदर्शन के दुश्चक्र में फँस जाने के कारण कई सुविधाओं का लाभ लोगों तक अभी भी नहीं पहुँच पा रहा है. इसके भारी दुष्परिणाम सामने आ रहे हैं: सन् 2010 में विश्व बैंक की अनुमानित लागत के अनुसार बिजली की कमी की लागत भारत की सकल घरेलू दर (GDP) की 7 प्रतिशत है.

यह निराशाजनक प्रदर्शन भी सब जगह समान नहीं रहा. वितरण के महत्वपूर्ण  “अंतिम छोर” के अंतिम उपभोक्ता तक पहुँचाने का संवैधानिक दायित्व राज्य सरकारों पर होता है और इसके कारण उपराष्ट्रीय स्तर पर भारी घट-बढ़ पैदा हो जाती है. इसलिए भारत के संघीय ढाँचे के भीतर एक ऐसी प्रयोगशाला की पेशकश की गई है जिससे पता चलता है कि किस प्रकार के बिजली सुधार कारगर हुए हैं और इसके क्या कारण हैं?

इस तरह “मैपिंग पावर” का प्रस्थान बिंदु भी यही था और यह एक ऐसी सहयोगपूर्ण परियोजना थी, जिसके माध्यम से पंद्रह प्रमुख राज्यों में बिजली के शासनतंत्र की छानबीन की जाती थी. ये वे राज्य हैं, जिनमें भारत की 87 प्रतिशत आबादी रहती है. सन् 2016 में प्रत्येक राज्य में सत्ता की राजनीति के इतिहास की “रूपरेखा” तैयार करने के लिए हमने मौजूदा और सेवानिवृत्त नौकरशाहों, राजनीतिज्ञों, विनियामकों, उद्योगपतियों, इंजीनियरों और उपभोक्ता समूहों के 300 इंटरव्यू लिये थे. इन पंद्रह राज्यों में मेरा शोध स्थल पश्चिम बंगाल रहा है और इसका एक रोचक मामला दो आयामों में उभर कर सामने आया है: सुधार का डिज़ाइन और सुधारों के कारण मिली सफलता के राजनैतिक मानदंड, विशेषकर चुनावी (अ) स्थिरता का प्रभाव.  

एकवैकल्पिकसुधारमॉडल
नब्बे के दशक में, बिजली संबंधी सुधार का तथाकथित “मानक मॉडल” विश्व-भर में प्रचलित हो गया था, जिसमें शामिल थे, लंबवत् रूप में समन्वित राज्य की एकाधिकार की प्रवृत्ति, निजीकरण, स्वंतत्र विनियम और प्रतियोगिता का विभाजन. कैलीफ़ोर्निया से लेकर युगांडा और पाकिस्तान तक के विश्व-भर के साक्ष्यों के नतीज़े अक्सर निराशाजनक सिद्ध हुए हैं. ऐसे साक्ष्यों का सर्वेक्षण करते हुए पश्चिम बंगाल के वरिष्ठ नौकरशाहों, सुविधा प्रबंधकों और परामर्शदाताओं के सुधार दल ने “सभी के लिए एक ही आकार” वाले इस मॉडल को अस्वीकार कर दिया. इसके बजाय, उन्होंने एक नवोन्मेषकारी स्थानीय सुधार के मार्ग को अपनाया, जिसके बारे में मैंने विश्व का विकास (World Development) में प्रकाशित होने वाले “बिजली के सुधार की राजनीति” शीर्षक से लिखे अपने आगामी लेख में प्रकाश डाला है.

इसके परिणामस्वरूप 2005 से आरंभ होने वाले सुधारों में निजीकरण के विवादग्रस्त मामले की अनदेखी करते हुए राज्यों का एकाधिकार बनाये रखा गया ताकि राजनैतिक हस्तक्षेप की सुविधा की गुंजाइश बनी रहे. स्वतंत्र विनियामक एजेंसियों पर मानक मॉडल की निर्भरता के विपरीत सुधारवादियों ने अपना पूरा ध्यान इस सुविधा के आंतरिक परिवर्तनों पर ही केंद्रित रखा.   उन्होंने निजी कॉर्पोरेट शासन और जवाबदेही का, विशेषकर संस्था के अंतर्नियमों के माध्यम से उस “शैडो लिस्टिंग” का अनुकरण करने का प्रयास किया, जिसका अनुपालन शेयर बाज़ार की लिस्टिंग को शासित करने वाले करार में किया गया था. वास्तविक रूप में स्वतंत्र निर्देशकों को लाया गया. इससे पता चलता है कि सार्वजनिक स्वामित्व पर सुधारवादियों की प्रतिबद्धता में कट्टरता का भाव नहीं है; उन्होंने बिल कलैक्शन जैसे सड़क स्तर के कार्यों को आउटसोर्स करते समय बाहरी परामर्शदाताओं और तकनीकी विशेषज्ञों की सेवाएँ किराये पर लीं.

जवाबदेही का यह अभियान कामगारों के ज़रिये जारी रहा. यूनियनों का विश्वास जीतने के लिए आवश्यक समय और संसाधनों को लगाने के बाद सुधारवादियों ने कार्य परिणामों की निगरानी के काम में सुधार लाने के लिए काम के विस्तृत मानक तैयार किये. रिमोट रीडेबल मीटरों और कंप्यूटरीकृत नियोजन जैसी प्रौद्योगिकी के प्रयोग के माध्यम से प्रबंधकों ने भ्रष्टाचार और अकुशलता के “मानवीय तत्व के और कम होने” की उम्मीद की थी. एक प्रमुख सुधारवादी ने मुझे बताया था कि उनका लक्ष्य सरकार से वित्तीय स्वतंत्रता सुनिश्चित करते हुए लाभप्रद स्थिति में पहुँचना ही था.

आरंभ में इस मॉडल से नाटकीय सफलता मिली. पारेषण और वितरण में हुए नुक्सान से बिजली की चोरी का पता लगाने के लिए कुशलता और स्वेच्छा का भी पता चलता है. यह नुक्सान 2001 में 40 प्रतिशत था और 2008 में यह घटकर 23 प्रतिशत रह गया. सन् 2002 में सन् 2002 में पश्चिम बंगाल को $300 मिलियन डॉलर का नुक्सान हुआ था और सन् 2011 में यह राज्य उन तीन राज्यों में से एक हो गया था, जिन्हें सन् 2011 में लाभ हुआ था. इस अवधि के दौरान ग्रामीण घरेलू विद्युतीकरण 20.3 प्रतिशत से बढ़कर 40.3 प्रतिशत हो गया अर्थात् दुगुना हो गया; आज सरकार का दावा है कि यह आँकड़ा 90 प्रतिशत से भी अधिक है. इस प्रकार वर्ष 2011 के आसपास राष्ट्रीय स्तर पर और विश्व बैंक के स्तर पर यही अनुमान लगाया गया था कि पश्चिम बंगाल की वितरण कंपनी का रैंक गुजरात के बाद चौथे नंबर पर था. वस्तुतः वस्तुतः व्यापारिक दृष्टि से अनुकूल गुजरात को समाजवादी नाम से पुकारे जाने वाले पश्चिम बंगाल से ठीक प्रतिकूल ही माना जाता है, लेकिन जहाँ तक बिजली सुधार के इस मॉडल का सवाल है, पश्चिम बंगाल ने इस मॉडल के लिए ठीक वैसे ही निम्नलिखित मुद्दों का अनुसरण किया, जैसे अन्य चार प्रमुख राज्यों ने किया था. आंतरिक उपयोगिता शासन (“लोगों” और “प्रक्रियाओं” दोनों पर ही विचार करते हुए) लाकर, यूनियनों को साथ लेते हुए, तकनीकी समाधान को तरजीह देते हुए और पूरी तरह से निजीकरण की माँग को ठुकराते हुए और विनियामक मंचों में लोकप्रिय भागीदार बनकर. 

बिजली सुधार और चुनावी (अ) स्थिरता
फिर भी 2010 के आरंभ में पश्चिम बंगाल में ये सुधार ज़मीन पर दिखाई देने लगे थे, हालाँकि आरंभ में ये लाभ पूरी तरह से विलीन नहीं हुए थे. इस स्पष्टीकरण से पश्चिम बंगाल प्रकरण का एक दूसरा रोचक आयाम हमारे सामने आया हैः बिजली सुधारों पर चुनावी (अ) स्थिरताका प्रभाव. पश्चिम बंगाल ने स्थिरता का एक अनूठा उदाहरण हमारे सामने रखा-भारतीय साम्यवादी पार्टी (मार्क्सवादी) या सीपीआई (एम) ने 1977 से 34 साल तक राज किया. इस प्रकार यह भारत की यह सबसे अधिक समय तक राज करने वाली राज्य सरकार बन गई. सन् 2011 में अंततः इसकी चुनावी हार हुई और एकदलीय शासन से प्रतियोगी राजनीति में परिवर्तन का युग शुरू हुआ.

औद्योगिक देशों में चिर-प्रचलित सिद्धांत तो यही है कि लोकतांत्रिक दलगत राजनैतिक प्रतियोगिता के कारण राजनीतिज्ञों का प्रयास रहता है कि वे ज़्यादा से ज़्यादा सामूहिक भलाई के काम करें, लेकिन भारत में बार-बार चुनाव जीतने की चिंता के कारण राजनीतिज्ञों का प्रयास यही रहता है कि वे प्रत्यक्ष दिखाई देने वाले अल्पकालीन कार्य (जैसे सब्सिडी या बिजली के नए कनैक्शन) करते रहें और यही कारण है कि दीर्घकालीन मुद्दे (जैसे बिजली सुधार) उपेक्षित रहते हैं. उदाहरण के लिए विशाल और राजनैतिक दृष्टि से  प्रतियोगी उत्तर प्रदेश जैसे राज्य में निजीकरण और अन्य बिजली सुधार के कार्यक्रम बार-बार विफल होते रहे और वित्तीय घाटा बढ़ता रहा. झारखंड में बार-बार बदलने वाली सरकारों ने दीर्घकालीन नियोजन के बजाय ऊर्जा परियोजनाओं से भाड़ा लेने की प्रवृत्ति को अधिक तरजीह दी. तमिलनाडु और पंजाब जैसे समृद्ध राज्यों में भी दलगत राजनीति के बीच भारी प्रतियोगिता के कारण लोक-लुभावनी सब्सिडी को ही बढ़ावा मिला और कर्ज़ का बोझ बढ़ता गया.

इस तरह एक पार्टी के प्रभुत्व के कारण भी दीर्घकालीन बिजली सुधारों का मार्ग प्रशस्त हो सकता है. पश्चिम बंगाल में कर्ज के संकट और कृषि के क्षेत्र में विकास की गति में अवरोध आने के कारण ही सीपीआई (एम) को सन् 2001 के आसपास व्यापार के पक्ष में एक नई रणनीति अपनानी पड़ी. बिजली की स्थिति में सुधार, राज्य की “यूएसपी” होने के कारण उद्योग के क्षेत्र में आकर्षक औद्योगिक वृद्धि को बल मिला. मौजूदा हितकारी समूह का पक्ष लेने के बजाय तत्कालीन सुधारवादियों ने भावी उद्योगपतियों के एक काल्पनिक निर्वाचन क्षेत्र को बढ़ावा दिया. इसके बावजूद भी सीपीएम (एम) के व्यापार-समर्थकों के झुकाव के कारण उनका परंपरागत ग्रामीण आधार अंततः खिसकने लगा. सन् 2008 से वे स्थानीय चुनाव हारने लगे और सन् 2011 में तृणमूल कांग्रेस ने सत्ता हथिया ली. बिजली का किराया बढ़ाने का अलोकप्रिय कदम उठाने से कतराने के कारण बिजली के क्षेत्र में पश्चिम बंगाल के स्थिर प्रदर्शन की स्थिति भी प्रतियोगी राजनैतिक परिदृश्य के समान ही हो गई.

स्थिर राज्य सरकारों और बिजली के सुधारों के संदर्भ में इसी तरह की स्थिति हम गुजरात में भी देखते हैं. यहाँ भी सन् 1988 से भाजपा का शासन रहा है और यही स्थिति 1998 से लेकर 2013 तक कांग्रेस-शासित दिल्ली राज्य की भी रही है. ओडिसा, छत्तीसगढ़, मध्य प्रदेश और बिहार जैसे सर्वाधिक गरीब राज्यों में भी कुछ हद तक स्थिर-सी ही सरकारें रही हैं. शायद यही कारण है कि इन राज्यों में भी सुधार के काम पर ज़ोर दिया जाना चाहिए. यह ठीक है कि एक दल का प्रभुत्व बढ़ने के कारण लोकतांत्रिक जवाबदेही में कमी आ जाती है, लेकिन इसका यह अर्थ नहीं है कि व्यापक सार्वजनिक सेवा के काम में सुधार न लाया जाए या इस क्षेत्र में निवेश न किया जाए, क्योंकि इससे उद्योग को प्रत्यक्ष रूप में बढ़ावा नहीं मिलेगा.

अगर पश्चिम बंगाल में मिली आरंभिक सफलताओं से यह निष्कर्ष निकलता है कि संकटग्रस्त बिजली के क्षेत्र में कोई ऐसा समाधान नहीं हो सकता, जो सबके लिए समान रूप में उपयोगी हो. फिर भी सरकार को चाहिए कि वह उदारीकरण के थके-हारे ढाँचे के विकल्प के तौर पर क्रमिक रूप में बुनियादी सुविधाओं के ढाँचे में सुधार लाने का प्रयास करे. साथ ही हमारे विश्लेषण से लोकतांत्रिक प्रतियोगिता और विकास के बीच के संबंधों पर एक नया परिदृश्य सामने आता है. भावी शोध से ही यह पता चल सकेगा कि राजनीतिज्ञ “लंबे समय तक शासन” करने के लिए कब चुनावी जोखिम उठाने का निश्चय करते हैं और सुधारवादी कैसे राजनैतिक स्थिरता और स्थायी परिवर्तन के लिए ऊपर उठकर प्रयास करते हैं.

ऐलिज़ाबेथ चटर्जी शिकागो विश्वविद्यालय के राजनीति विज्ञान विभाग में पोस्ट डॉक्टरल स्कॉलर हैं. नवरोज़ दुबाश, सुनील काले और रणजीत भारवीरकर के नेतृत्व में और नियामक सहायक परियोजना के अंतर्गत मैपिंग पावरका वित्तपोषण किया गया.

 

हिंदीअनुवादःविजयकुमारमल्होत्रा, पूर्वनिदेशक(राजभाषा), रेलमंत्रालय, भारतसरकार<malhotravk@gmail.com> / मोबाइल: 91+9910029919