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भारत में पुलिस महिलाकर्मीः अभी मंज़िल दूर है

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02/01/2013
अंजना सिन्हा

इतिहास के प्रवाह में स्वाधीन भारत की महिलाएँ आगे तो आयी हैं, लेकिन पिछले पैंतीस वर्षों में ही उन्होंने वैश्वीकरण की उत्तर-औद्योगिक क्रांति और उसके बाद आयी सकारात्मक गतिविधियों को महसूस किया है. इन गतिविधियों के कारण घर में,कार्यस्थलों पर, अपने सहकर्मियों के साथ और आम तौर पर पूरे समाज में भी बुनियादी तौर पर बदलाव आया है. यह ठीक वैसा ही सामाजिक बदलाव था,जैसा कि साठ के दशकों में अमरीकी महिलाओं ने महसूस किया था.

इस क्रांति का संबंध सारे देश में खास तौर पर एकल परिवारों में शिक्षा और आमदनी का स्तर बढ़ने से रहा है. तब से लेकर आज तक भारतीय महिलाओं ने सक्रिय कार्यबल का हिस्सा बनकर बहुत-सी दूरी तय कर ली है और अधिकांश पेशेवर क्षेत्रों में वर्दीधारी पुलिस और अर्ध-सैन्यबल की लगभग सभी बाधाओं को पार कर लिया है. 

सत्तर के दशक के बाद सामाजिक बदलाव और प्रगतिशील कानून बनने के कारण कानून लागू करने वाली एजेंसियों में रिकॉर्ड संख्या में दाखिला होने से महिलाओं का मार्ग प्रशस्त हो गया है. सत्तर के दशक की शुरूआत में जो संख्या 2 प्रतिशत से भी कम थी, वह संख्या आज बढ़कर 12 प्रतिशत से अधिक हो गयी है. जिस कार्यस्थल पर अब तक पुरुषों का ही वर्चस्व था, वहाँ भी अपनी जगह बना कर उन्होंने अपनी अलग पहचान बना ली है.

भारतीय पुलिस के इतिहास में महिलाओं का प्रवेश सत्तर के दशक के आरंभ में तब हुआ था, जब पहली महिला ने वर्दीधारी पुलिसबल में प्रवेश किया था. उसने अत्यंत सख्ती से बने पदानुक्रम में शिखर के पद पर इस सेवा में प्रवेश किया था और तीन दशक तक अनुकरणीय सेवा करके बेहतरीन रिकॉर्ड स्थापित किया था. इन दशकों के दौरान हज़ारों महिलाओं ने पूरे पुलिस बल में कॉन्स्टेबल के स्तर से पुलिस बल में प्रवेश किया था. सन् 2010 में पुलिस अनुसंधान व विकास ब्यूरो ने अनुमान लगाया था कि भारतीय पुलिस बल के विभिन्न दलों में लगभग तीस हज़ार महिला पुलिसकर्मी हैं.    लेकिन इन उपलब्धियों के बावजूद एक दशक पुराने संयुक्त राष्ट्रसंघ के सातवें सर्वेक्षण में तेरह एशियाई देशों के महिला पुलिस बलों के जो प्रतिशत दर्शाये गये हैं उनकी तुलना में भारतीय पुलिस बल का प्रतिशत बहुत ही कम है.

सिंगापुर

19.1

न्यूज़ीलैंड

14.6

हांगकांग एस.ए.आर

13.4

चीन

11.3

कज़ाकिस्तान

10.0

मलेशिया

9.7

श्रीलंका

5.3

पपुआ न्यू गिनी

5.3

थाईलैंड

5.0

किर्गिस्तान

4.9

जापान

3.7

दक्षिण कोरिया

2.4

भारत

2.2

 

भारत की पुलिस में पिछले बीस वर्षों में अच्छी-खासी संख्या में महिलाओं की भर्ती की गयी है, लेकिन पेशेवर कोर क्षेत्र में अपने पुरुष सहकर्मियों के साथ “समान सहकर्मी” के रूप में उनकी स्वीकार्यता और समीकरण के लिए अभी बहुत कुछ करना बाकी है. इस वर्दीधारी महिला पुलिस बल की स्वीकार्यता की कमी को लेकर बहुत कम अध्ययन किये गये हैं, लेकिन जो भी अध्ययन किये गये हैं उनमें एक है जेम्स वडकुमचरी की पुस्तक पुलिस, वीमेन ऐंड जैंडर जस्टिस ( एपीएच पब्लिशिंग कॉर्पो., 2000). यह पुस्तकइस तथ्य की ओर संकेत करती है कि वर्दीधारी महिलाओं को अभी-भी वर्दीधारियों के इस पेशे में सामान्य रूप से ‘वे’ और ‘हम’ के रूप में ही देखा जाता है. यद्यपि संगठन के रवैये में तो बदलाव आना शुरू हो गया है, लेकिन देश के विभिन्न भागों में और विभिन्न सैन्यबलों के अंदर कार्यसंस्कृति के स्तर पर अलग-अलग रूपों में गंभीर समस्याएँ अभी भी बनी हुई हैं.

यहाँ तक कि सुश्री किरण बेदी, जो पुलिसबल में प्रवेश के सबसे ऊँचे ओहदे पर भर्ती हुई थी और अपनी दृढ़ता और साहस के लिए जानी जाती थी, को भी राष्ट्रीय राजधानी में उच्चतम पर तैनाती के लिए विचार करते समय अपने पेशे के भीतर ही ‘पुरुष सहकर्मियों’ के वर्चस्व के आगे झुका पड़ा था.

कुल मिलाकर भारतीय पुलिस की महिलाओं ने बँधी-बंधाई लीक पर चलने वाले ऐसे गैर-परंपरागत कैरियर में अच्छा कार्य-निष्पादन किया है. अनुभव और ज़मीनी सच्चाइयों के गहन निरीक्षण के बाद यह कहा जा सकता है कि अपने पुरुष सहकर्मियों के साथ भेदभाव और अंतर्विरोध के मामले तो हमेशा ही रहते हैं और पक्षपातपूर्ण भी होते हैं, लेकिन वे बेहद सूक्ष्म रूप में होते हैं.  उम्मीद तो है कि महिलाओं को इस पेशे में नापसंद नहीं किया जाता और,लेकिन उन्हें प्रमुख नेतृत्व के पदों पर आने से रोका तो जाता ही है और बहुत ही कम और अपवाद रूप में ही और कुछ चुनी हुई महिलाओं को ही बहुत आनाकानी के साथ अत्यंत चुनौतीपूर्ण और महत्वपूर्ण पद सौंप जाते हैं.

अब तक महिला पुलिस अधिकारियों के कुछ राष्ट्रीय सम्मेलन भी सफलतापूर्वक आयोजित किये जा चुके हैं और पहली तीन सिफ़ारिशों को हर सम्मेलन में दोहराया जाता है, लेकिन इसके बावजूद उन्हें अभी तक लागू नहीं किया जा सका है. मोटे तौर पर उचित सामाजिक रवैये और खास तौर पर सरकार में और सरकारी दफ़्तरों में उचित कार्यसंस्कृति के अभाव के कारण ही इस पेशे में लैंगिक भेदभाव होता है.  

2005-10 के बीच आंध्र प्रदेश में महिला पुलिसकर्मियों की विज्ञापित रिक्तियाँ भरी नहीं जा सकीं, क्योंकि इसके लिए पर्याप्त संख्या में प्रत्याशी उपलब्ध नहीं थे. यह उदाहरण देश के इंडेक्स का सही प्रतिबिंब तो नहीं होगा, लेकिन कुछ अन्य राज्यों ( राजस्थान, हरियाणा, असम आदि) में भी महिला प्रत्याशियों की संख्या स्पष्ट रूप में नियोजित की जाने वाली कोटि की संख्या के अनुरूप नहीं है.

वर्दी वाले कैरियर और कानून का प्रवर्तन करने वाले ऐसे पेशों में महिला प्रत्याशियों की कमी के अनेक कारण हो सकते हैं. यद्यपि अनुसंधान तो यह दर्शाते हैं कि महिलाएँ पुरुषों के बराबर ही प्रभावी होती हैं, लेकिन उन्हें भर्ती करने की प्रणाली,सामाजिक और सांस्कृतिक मूल्य, चयन प्रक्रियाएँ और भर्ती नीति की भिन्नता के कारण महिला प्रत्याशियों की संख्या कम रहती है. आम तौर पर दाखिले के समय कुछ खास तरह के मापदंड अपनाये जाने के कारण चयन प्रक्रिया के पहले चरण में ही अधिकांश महिला प्रत्याशियों को बाहर कर कर दिया जाता है और केवल वही महिलाएँ इन मापदंडों पर खरी उतरती हैं जो खेलकूद में पहले से भाग लेती हैं या शारीरिक दृष्टि से हृष्ट-पुष्ट होती हैं.   

राष्ट्रमंडल मानवाधिकार पहल (2007) द्वारा कराये गये एक सर्वेक्षण के अनुसार अधिकांश महिलाएँ वर्दी वाले या कानून का प्रवर्तन करने वाले पेशों में भर्ती होने से शुरू से ही कतराती हैं. इनके कुछ कारण हैं, इस तरह के पेशे में काम की प्रकृति को लेकर वे गलतफहमी पाल लेती हैं, परिवार द्वारा भी विरोध किया जाता है या मीडिया में दिखायी जाने वाली पुलिस की आक्रामक और दबंग छवि भी इसका एक कारण हो सकता है. परंतु एक बार नौकरी में आ जाने के बाद भी वे भेदभाव, यौन उत्पीड़न या फिर सहकर्मियों के दबाव की शिकार होती हैं और उन्हें ऐसे अनुकरणीय आदर्श भी नहीं मिलते जिनकी मदद और प्रेरणा से वे आगे तरक्की कर सकें. अधिकांश महिला पुलिसकर्मी तो पदोन्नति की परीक्षाओं में भी नहीं बैठतीं, क्योंकि वे अपने परिवार और व्यक्तिगत संबंधों को तरजीह देती हैं. वास्तव में देश की सभी सरकारी नौकरियों में महिला पुलिसकर्मियों की विशेषकर कॉन्स्टेबल के स्तर पर सबसे अधिक घिसाई होती है और यह कहना भी अनुचित न होगा कि ऐसे बहुत-से मामले हैं जब भारतीय पुलिस सेवा के उन उच्च पदों से भी महिलाएँ अपना पद छोड़कर चली जाती हैं जो अपने-आप में बहुत संभ्रांत और प्रतिष्ठित माने जाते हैं. इसके स्पष्ट कारण हैं, निरुत्सहित करने वाला और प्रोत्साहित न करने वाला वातावरण,सहकर्मियों का दबाव और लैंगिक मामले.    

अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर और अमरीका में किये गये अनुसंधान यह स्पष्ट रूप से दर्शाते हैं कि महिला पुलिस और प्रवर्तन अधिकारी अलग ही किस्म की महिलोचित नीतिगत शैली अपनाती हैं, जिसमें वे हिंसक हो सकने वाले संघर्षों को टालने के लिए कम से कम शारीरिक बल का और अधिक से अधिक संप्रेषण कौशलों का इस्तेमाल करती हैं जिनके कारण कोई भी हिंसक आंदोलन न तो आगे फैलता है और न ही नियंत्रण से बाहर होता है. इसके परिणामस्वरूप नागरिकों की शिकायतें भी कम आती हैं, लोगों का आक्रोश कम हो जाता है और नागरिक संपत्ति का नुक्सान भी कम होता है. महिलाओं व पुलिस-नीति के राष्ट्रीय केंद्र (नारीवादी बहुमत प्रतिष्ठान का एक प्रभाग) के अनुसार किसी भी प्रगतिशील और आधुनिक पुलिस एजेंसी में सभी स्तरों पर महिलाओं का पर्याप्त प्रतिनिधित्व न होने के कारण सारे समुदाय पर और सारे देश में कानून का प्रवर्तन करने वाली एजेंसियों की संस्कृति और परिचालन की कार्यकुशलता पर नकारात्मक प्रभाव पड़ता है. 

आज भारत में महिलाओँ के विरुद्ध अपराधों का ग्राफ़ बहुत तेज़ी से आगे बढ़ा है और दहेज, छेड़छाड़, यौन हमले और उत्पीड़न जैसे सामाजिक दृष्टि से भयावह और शोषण वाले मामले भी अनगिनत हैं. यह संयोग ही है कि थॉम्सन राउटर फ़ाउंडेशन की सहायक कंपनी, प्रतिष्ठित कानूनी सेवा से संबंधित फ़र्म ट्रस्ट लॉ की जी 20 द्वारा हाल ही में किये गये सर्वेक्षण में पाया गया है कि शिशु हत्या, बाल विवाह और गुलामी जैसी सामाजिक बुराइयों ने कुल मिलाकर भारत का स्थान सबसे निचले उस पायदान पर धकेल दिया है जहाँ महिलाएँ रहने को विवश हैं. सच तो यह है कि भारत इस मामले में सउदी अरब से भी पिछड़ गया है, जहाँ महिलाएँ गाड़ी नहीं चल सकतीं और जहाँ वोट का अधिकार भी उन्हें सन् 2011 में ही मिला है. 

एक राष्ट्र के रूप में और आर्थिक शक्ति की दहलीज़ पर खड़े भारत के सामने जो कठिन चुनौतियाँ मुँहबाये खड़ी हैं उनका सामना करने के लिए कानून का प्रवर्तन करने वाली और सुरक्षा एजेंसियों में अधिक से अधिक महिलाओं को भर्ती करना नितांत आवश्यक है.

 

अंजना सिन्हा भारत के आंध्र प्रदेश राज्य में महा पुलिस निरीक्षक हैं. उन्हें भारत में सुरक्षा सुधार के संबंध में बीस से अधिक वर्ष का फ़ील्ड और प्रबंधन का अनुभव है. सन् 1990 में उन्होंने संघीय पुलिस बल में प्रवेश किया. कैसीफ़ॉल (पतझड़) 2012 की वे विज़िटिंग स्कॉलर हैं.

 

हिंदी अनुवादः विजय कुमार मल्होत्रा, पूर्व निदेशक (राजभाषा), रेल मंत्रालय, भारत सरकार <malhotravk@hotmail.com>

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