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नेहरू का भारत और 1956 का स्वेज नहर का संकट

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07/11/2016
स्वप्ना कोना नायुडु

इसी सप्ताह स्वेज नहर के संकट को साठ साल पूरे हो गए हैं. सामान्य रूप में संबंधित क्षेत्र के प्रति और अरब राष्ट्रवाद के उदय के प्रति भारत के दृष्टिकोण की दृष्टि से यह घटना बहुत महत्वपूर्ण है.शुरू-शुरू में तो भारत इस संकट के मूल कारणों से जुड़ी गतिविधियों के प्रति पूरी तरह से अनजान बना रहा, लेकिन जब भारत ने इस समस्या से निपटने के लिए संयुक्त राष्ट्र के माध्यम से और इस संकट से जुड़े सभी पक्षों के साथ सीधे राजनयिक चर्चा शुरू की तो ऐसा लगने लगा कि हमें इस अनुभव से बहुत-से पाठ सीखने की आवश्यकता है. इस संकट का आरंभ तब हुआ जब इज़राइल, ब्रिटेन और फ्रांस तीनों ने मिलकर 29 अक्तूबर, 1956 को मिस्र पर हमला कर दिया. हालाँकि यह संकट केवल दस दिनों तक रहा, लेकिन भारत के लिए यह गहरी चिंता का सबब बना रहा. खास तौर पर नवोदित स्वतंत्र देशों और साम्राज्यवादी चंगुल से तेज़ी से मुक्त होने वाले देशों और उनके पूर्व साम्राज्यवादी देशों के साथ संबंधों को लेकर भारत बहुत चिंतित रहा. यह बात नेहरू द्वारा जॉन फ़ॉस्टर डलेस को लिखे गये पत्र से उजागर होती है, “यूरोप और एशिया के बीच के संबंधों का पूरा भविष्य” ही अधर में लटक गया है. भारत सरकार को इस बात को लेकर भारी आशंका थी कि “भारत पर इस संकट का आर्थिक और राजनीतिक  दोनों ही तरीकों से गहरा असर पड़ेगा, क्योंकि नहर के ज़रिये होने वाले यातायात पर प्रतिबंध या रोक लगने से और भारी मात्रा में पथकर की वसूली का परिणाम इतना भयानक होगा कि इससे दूसरी पंचवर्षीय योजना की प्रगति भी प्रभावित हो सकती है.”

सन् 1956 में मिस्र की आर्थिक प्रगति बहुत हद तक नील नदी के प्रवाह को नियंत्रित करने पर निर्भर करती थी और यह प्रगति तभी संभव हो पाई जब इस नदी पर आसवान बाँध बना लिया गया. सोवियत और अमरीकी दोनों ही पक्षों ने बाँध बनाने के लिए वित्तीय मदद देने की पहले तो पेशकश की, लेकिन बाद में इस मदद को मिस्र की आर्थिक दुर्बलता का बहाना बनाकर रोक दिया गया. मिस्र के राष्ट्रपति जमाल अब्दुल नासर ने इस बात पर अपना आक्रोश प्रकट करते हुए कहा कि न तो पूर्व साम्राज्यवादी शक्तियों ने और न ही युद्धोत्तर महाशक्तियों ने किसी प्रकार की मदद की, जबकि नहर के जलमार्ग से होने वाले यातायात से सबसे अधिक लाभ उन्हें ही मिलने वाला था. अपने जोशीले भरे भाषण में उन्होंने कहा कि यह स्वेज़ नदी के राष्ट्रीयकरण का अपमान है और यह घोषणा भी की मिस्र अपना बाँध खुद बनाएगा. नेहरू को नासर की इस घोषणा पर संदेह था और यही कारण है कि उन्होंने इस घोषणा से अपने-आपको दूर रखा ताकि यह न समझा जाए कि वे भी इस योजना में नासर के साथ हैं.

भारत का मिस्र के साथ एक खास किस्म का रिश्ता रहा है. सन् 1954 में पश्चिमी शक्तियों ने सत्ता पर काबिज होने पर नासर को  “एशिया का मुसोलिनी,” “ हिटलर का अनुयायी” और “भावी डिक्टेटर” कहकर मज़ाक उड़ाना शुरू कर दिया था. इसमें हैरानी इसलिए नहीं होनी चाहिए कि लंदन और पैरिस दोनों ही नासर के अरबी राष्ट्रवाद को एशिया में और पश्चिम में सचमुच ही अपने हितों के खिलाफ़ एक खतरा मानते थे. दूसरी ओर भारत इसे “राष्ट्रपति नासर के नेतृत्व में उठाया गया एक विवेक संगत कदम” मानता था. साथ ही भारत का विश्वास था कि इससे इस क्षेत्र के देशों में व्यापक और मैत्रीपूर्ण संबंध बनने का अवसर मिलेगा. इसे नेहरू “भाईचारे की भावना के प्रतीक” के रूप में देखते थे. नासर “अंतर्राष्ट्रीय सुरक्षा” के मामलों में भारत की सलाह को बहुत महत्वपूर्ण मानते थे. दोनों नेताओं के बीच अरब-इज़राइली संघर्ष को लेकर मुख्यतः चर्चा हुआ करती थी. खास तौर पर नासर इस बात को लेकर बहुत चिंतित रहते थे कि “गाज़ा पट्टी पूरी तरह से असुरक्षित है” और जब से बैन गुरियन वापस लौटे हैं, इज़राइल बहुत अधिक आक्रामक होने लगा है. भारत भी इज़राइल पर पश्चिमी रुख से असहमत होने के कारण अलग हट गया था और पश्चिम एशिया में धर्मनिरपेक्षता के आधार पर विकसित राष्ट्रवाद को प्रोत्साहित करने के प्रयासों में जुट गया था. क्षेत्रीय सुरक्षा की प्रक्रिया में नासर की महत्वपूर्ण भूमिका को स्वीकार करते हुए नेहरू ने उन्हें रक्षा की किसी भी गुटबंदी में शामिल होने से निरुत्साहित किया और मिस्र को गुट-निरपेक्ष राष्ट्र के रूप में अपनी भूमिका के निर्वाह के लिए प्रोत्साहित किया. आरंभिक वर्षों में तो यह सहयोग बहुत कामयाब रहा. टीटो के नेतृत्व में युगोस्लोवाकिया, नासर के नेतृत्व में मिस्र और नेहरू के नेतृत्व में भारत की यह त्रिमूर्ति यूरोप, अफ्रीका और एशिया में गुटनिरपेक्ष देशों की एकता का प्रतीक बन गई थी.

इसलिए जब नासर ने इस नहर का राष्ट्रीयकरण किया तो भारत के कंधों पर यह दायित्व आ गया कि वह इस संकट के कारण बिगड़ सकने वाले हालात का जायज़ा ले. नेहरू इस बात को लेकर बहुत चिंतित थे कि “कहीं युद्ध न भड़क जाए. इसी कारण वे ऐसा शांतिपूर्ण समाधान चाहते थे जिससे कि पहले की तरह ही नहर का उपयोग होता रहे” और इसी बात पर वे बार-बार ज़ोर देते रहते थे.    इसके बावजूद ब्रिटिश और फ्रैंच अपने रुख पर अड़ियल बने रहे. हालाँकि ईडन “सैनिक कार्रवाई को लेकर एहतियात बरतने के लिए कहते रहे”. इन्हीं परिस्थितियों के कारण एशिया और अफ्रीका में चिंता के बादल छाये रहे. इन सभी गतिविधियों को देखते हुए आइज़नहावर ने सुझाया कि ब्रिटेन सभी संबंधित और प्रभावित देशों की एक बैठक बुलाए. इस बैठक को लंदन सम्मेलन का नाम दिया गया, लेकिन दुर्भाग्यवश यह बैठक न हो सकी. संयुक्त राष्ट्र की सुरक्षा परिषद के सामने इस मामले की सुनवाई से पहले ही इज़राइल ने 29 अक्तूबर को मिस्र पर हमला बोल दिया. इस संघर्ष की निंदा करते हुए पहले तो ब्रिटेन ने इज़राइल और मिस्र को अल्टीमेटम दे दिया, लेकिन फिर सिर्फ़ दो दिन बाद ही वह मिस्री हवाई अड्डों पर हमले में इज़राइल का साथ देने लगा.

नेहरू इस हमले की खबर पाकर स्तब्ध रह गए और इस “कायराना हमले” के कारण बिगड़ते हालात को और अधिक बिगड़ने से रोकने के लिए मध्यस्थता के अनेक उपाय करने में जुट गए. इनमें से एक उपाय तो यही था कि उन्होंने अमरीका को शांति बनाये रखने के लिए हस्तक्षेप करने के लिए कहा. नेहरू जानते थे कि मिस्र की सेना बहुत समय तक प्रतिरोध करने में सक्षम नहीं है और यही कारण है कि “नासर अपने जीवन को भी दाँव पर लगाने के लिए तैयार थे”. इसलिए संयुक्त राष्ट्र में भारत के स्थायी प्रतिनिधि ऑर्थर लाल को निर्देश दिये गये कि वह मिस्र के प्रतिनिधि ओमर लुत्फ़ी के साथ सक्रिय सहयोग करें. 2 नवंबर, 1956 को अमरीका द्वारा एकता के लिए रखा गया शांति प्रस्ताव पारित हो गया और युद्ध करने वाली सेनाओं के बीच युद्ध विराम हो गया और इसे आइज़नहावर-नेहरू फ़ॉर्मूले का नाम दिया गया. संक्षेप में, अमरीका ने संयुक्त राष्ट्र के साथ मिलकर पश्चिमी शक्तियों को युद्ध-विराम के लिए तैयार किया और भारत ने एशियाई और अफ्रीकी देशों के साथ मिलकर उन्हें मनाया. इसके दो दिनों के अंदर ही उन्नीस-सदस्यीय एशियन-अफ्रीकी प्रस्ताव पारित हो गया, जिसमें संयुक्त राष्ट्र के पिछले प्रस्ताव को पूरी तरह से लागू करने का आग्रह किया गया.

कनाडा, कोलंबिया और नॉर्वे द्वारा रखे गये दूसरे प्रस्ताव में यह व्यवस्था की गई कि संयुक्त राष्ट्र की पहली शांतिसेना गठित की जाएः संयुक्त राष्ट्र आपात् सेना I (UNEF I). इसमें यह व्यवस्था भी थी कि पाँचों स्थायी सदस्यों में से किसी भी सदस्य-देश से सैन्य टुकड़ी न ली जाए. UNEF I के गठन का स्वरूप तात्कालिक प्रकृति का होना चाहिए. साथ ही ब्रिटेन ने भारत से तो यहाँ तक कहा कि वह भारी संख्या में अपनी सैन्य टुकड़ी मुहैय्या कराए और शांति समझौता लागू कराने में अपना सहयोग प्रदान करे. भारतीय सैन्य दस्ता (सशस्त्र शांति सेना के रूप में भारत द्वारा भेजा गया यह पहला सैन्य दस्ता था) 15 नवंबर, 1956 को स्विज़ के लिए रवाना हो गया और इसे सिनाई प्रायद्वीप में तैनात कर दिया गया. दोनों ही चरणों में UNEF की कमान किसी न किसी भारतीय के हाथ में रही थी. दिसंबर 1959 और जनवरी 1964 के बीच UNEF I का नेतृत्व ले. जनरल पी.एस. ज्ञानी ने किया था. भारत की शांतिसेना ने अपने लिए एक खास नाम बना लिया था. नेहरू के शब्दों में “उन्हें एक बहादुर सेना होने के साथ-साथ भारत का सम्मान भी बढ़ाना चाहिए.”

संयुक्त राष्ट्र संघ में भारत ने बार-बार एशिया और अफ्रीका को साम्राज्यवादी चंगुल से मुक्त कराने और मिस्र को समर्थन देने की वकालत की, लेकिन इसके कारण दोनों ही पक्षों ने उसकी मध्यस्थता को लेकर कोई उँगली नहीं उठाई और इस प्रकार भारत ने इस संकट से उबरने में महत्वपूर्ण योगदान प्रदान किया. इसके कारण एक लंबे समय तक पश्चिम एशिया के देशों के साथ भारत के संबंध एक खास ढाँचे में ढले रहे, लेकिन हाल ही में इज़राइल की प्रशंसा करते हुए उसके साथ नज़दीकी संबंध बनाने के कारण इस स्थिति में थोड़ा बदलाव आ गया है. स्वेज़ नहर के संदर्भ में भारत के अनुभव से एक बात तो स्पष्ट हो गई कि इससे भारत को राजनैतिक लाभ तो मिला ही, साथ में किसी गुट विशेष के साथ न जुड़ने के कारण विश्व-भर में सम्मान भी मिला. इसके अलावा संयुक्त राष्ट्र की गतिविधियों में शामिल होने का भी अवसर मिला. उस समय इसी नीति को गुटनिरपेक्षता का नाम दिया गया. आवश्यकता इस बात की है कि इस क्षेत्र के प्रति भारतीय डिप्लोमेसी को पहले की तरह ही बनाये रखा जाए और इस पर सटीक और व्यापक चर्चा भी की जाए. उस प्रकार की विदेश नीति को तभी बनाये रखा जा सकता है जब हम एक खास क्षेत्र के साथ भारत के संबंधों के इतिहास पर ध्यान दें, लेकिन अपने इतिहास के प्रति अड़ियल रुख अपनाने से बचें.

स्वप्ना कोना नायुडु, लंदन स्कूल ऑफ़ इकॉनॉमिक्स ऐंड पॉलिटिकल साइंस में एलएससी फ़ैलो, आइडियाज़ हैं और नई दिल्ली स्थित नीति अनुसंधान केंद्र में विज़िटिंग फ़ैलो हैं. वह इस समय नेहरू युग में भारतीय गुट-निरपेक्षता से संबंधित अंतर्राष्ट्रीय इतिहास को पूरा करने में जुटी हैं.

 

हिंदी अनुवादः डॉ. विजय कुमार मल्होत्रा, पूर्व निदेशक (राजभाषा), रेल मंत्रालय, भारत सरकार <malhotravk@gmail.com> / मोबाइल : 91+9910029919