Penn Calendar Penn A-Z School of Arts and Sciences University of Pennsylvania

उत्तर प्रदेश में राष्ट्रीय और राज्य स्तर की नीतियाँ

Author Image
02/01/2017
नीलांजन सरकार

30 दिसंबर, 2016 को समाजवादी पार्टी के अध्यक्ष मुलायम सिंह ने अपने ही बेटे अखिलेश यादव को पार्टी से निष्कासित कर दिया. सिर्फ़ एक दिन के बाद ही निष्कासन आदेश को वापस ले लिया गया और अखिलेश यादव को फिर से अपने पद पर बहाल कर दिया गया. उत्तर प्रदेश (यूपी) के करिश्माई नेता अखिलेश यादव ने अपनी पार्टी पर अपनी पकड़ मज़बूत करना शुरू कर दिया था. यही बात कुछ हद तक पार्टी के बुजुर्ग नेताओं और उनके परिवार के सदस्यों को चुभ गई. चुनाव आयोग यूपी में चुनाव की तारीखों की घोषणा करने वाला है. समाजवादी पार्टी के पास अपनी पार्टी में गुटबाज़ी को खत्म करने के लिए बहुत कम समय बाकी है. इसलिए यह समय उनके लिए बहुत कीमती है. किसी को नहीं मालूम कि कल क्या होगा ? स्वाभाविक है कि दैनिक समाचार पत्र यादव परिवार के इस नाटक को बेनकाब करके लोगों का ध्यान आकर्षित करें. निश्चय ही भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) के लिए राजनैतिक अव्यवस्था का यह माहौल बहुत लाभप्रद सिद्ध हो सकता है.

बहुजन समाज पार्टी और समाजवादी पार्टी जैसे बड़े प्रतिस्पर्धी नेताओं की अपील की तुलना में भाजपा की अपील राज्य स्तर के बेहद लोकप्रिय नेताओं तक सीमित नहीं है. भाजपा अपनी यह जीत जातिगत समीकरणों और प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी की लोकप्रियता के आधार पर सुनिश्चित करना चाहती है.ऐसे लगातार बदलते जटिल क्षेत्रीय परिदृश्य वाले राज्य में अपनी राष्ट्रीय अपील के आधार पर यूपी का चुनाव जीतना भाजपा की बहुत बड़ी उपलब्धि मानी जाएगी.

भाजपा के लिए उत्तर प्रदेश का महत्व
जनसंख्या की दृष्टि से यूपी भारत का सबसे बड़ा राज्य है और यही कारण है कि राष्ट्रीय चुनाव के नतीज़ों पर इसका प्रभाव अन्य राज्यों के मुकाबले कहीं अधिक पड़ता है. भारत की लोकसभा में कुल 543 सीटें हैं, जिनमें 80 सीटें यूपी से हैं. 2014 के राष्ट्रीय चुनाव में भाजपा ने लगभग पूरे राज्य में ही सबसे अधिक सीटें जीतकर 71 सीटों पर कब्ज़ा कर लिया था और उसके सहयोगी दल ‘अपना दल’ ने दो और सीटें जीती थीं. देखा जाए तो यूपी की इन सीटों के बिना न तो भाजपा के पास और न ही इसके राष्ट्रीय लोकतांत्रिक गठबंधन (एनडीए) के पास इतनी सीटें होतीं कि वे सरकार बना पाते.

लेकिन यूपी का महत्व केवल संख्या की दृष्टि से ही नहीं है. 2014 की भारी जीत के बावजूद पिछले दो वर्षों में राज्यों में जो चुनाव हुए हैं, वे भाजपा के लिए बहुत अनुकूल नहीं रहे हैं. इस अवधि में सात राज्यों और केंद्रशासित क्षेत्रों (असम, बिहार, दिल्ली, केरल, पुडुचेरी, तमिलनाडु और पश्चिम बंगाल) में चुनाव हुए, लेकिन भाजपा केवल असम में ही विजयी हुई. भाजपा को यूपी के इस चुनाव के माध्यम से इस रुख को बदलने का अवसर मिला है.

प्रधानमंत्री के रूप में मोदी के कार्यकाल में सबसे बड़ी बात यही हुई है कि भाजपा के अंदर मोदी की सत्ता बहुत मज़बूत (और केंद्रित) हो गई है. उदाहरण के रूप में भारत में “विमुद्रीकरण या नोटबंदी” जैसे व्यापक अभियान के बारे में कितने लोगों को पहले से ही जानकारी थी, इस बारे में भले ही सही संख्या के बारे में कुछ मतभेद हों, लेकिन यह निश्चित है कि एक छोटी-सी मंडली तक ही यह जानकारी सीमित रही होगी और अधिकांश लोगों को अँधेरे में ही रखा गया होगा. इस केंद्रीकरण के कारण मोदी की व्यक्तिगत लोकप्रियता भले ही बढ़ी हो, लेकिन राज्यों में होने वाले चुनावों के दौरान इससे उनकी मुश्किलें भी बढ़ गई हैं. भाजपा की राज्य इकाइयाँ, खास तौर पर हाल ही में बिहार और दिल्ली में पार्टी की करारी हार के कारण कभी-कभी केंद्र की नीतियों से असहमत भी रही हैं. असम में भी भाजपा की जीत के संदर्भ में इस बात का आकलन करना मुश्किल है कि अगर विरोधी दलों के प्रत्याशियों, खास तौर पर हिमांत बिस्व शर्मा जैसे कांग्रेस के बहुत ही लोकप्रिय नेताओं का भारी मात्रा में दलबदल न हुआ होता तो क्या भाजपा की इतनी बड़ी जीत होती. यूपी के चुनाव के माध्यम से भाजपा को यह अवसर मिला है कि वह मोदी की केंद्रीकृत पार्टी के अंतर्गत राज्य स्तर पर होने वाले चुनावों में भी भारी जीत हासिल कर सकती है.

राष्ट्रीय और राज्य स्तर की राजनीति में परस्पर खींचतान
अखिलेश यादव जैसे राजनैतिक नेताओं ने हाल ही के चुनावों में भाजपा को झकझोर कर रख दिया है. भले ही बिहार में नीतीश कुमार-लालू प्रसाद यादव का गठबंधन हो या पश्चिम में ममता बनर्जी, दोनों ही राज्यों में इन करिश्माई नेताओं का हाल के चुनावों में दबदबा रहा है और इन नेताओं ने ज़मीन पर दिखाई देने वाली विकास परियोजनाओं और लाभप्रद योजनाओं को अपना आधार बनाकर चुनाव लड़ा था. अखिलेश यादव जैसे करिश्माई नेता के पास भी ऐसी ही अपील है और वह सामान्य जातिगत समीकरणों से ऊपर उठकर इस मॉडल को अपनाकर आगे बढ़ सकते हैं. लोग उनको राज्य में अन्य बातों के अलावा हाल ही में निर्मित ऐक्सप्रैसवे, लखनऊ मैट्रो परियोजना और छात्रों को लैपटॉप बाँटने जैसे लोकप्रिय कार्यक्रम के साथ जोड़कर देखने लगे हैं, लेकिन यादव परिवार में मचे घमासान के कारण इस बार उनको भारी नुक्सान हो सकता है. बहुजन समाजवादी पार्टी की नेता मायावती भ्रष्टाचार के आरोपों से घिरी हैं और उनकी अकूत निजी संपत्ति भी जाँच के दायरे में है. इसलिए भाजपा के लिए राज्य स्तर पर किसी करिश्माई नेता को सामने रखे बिना भी यूपी का चुनाव जीतने का यह सुनहरा मौका है.

भारत की राजनीति में यह धारणा बन गई है कि भारत के राज्यों में सामाजिक और सांस्कृतिक दृष्टि से इतनी भिन्नता है कि राज्य स्तर की मज़बूत पार्टी इकाइयाँ भी तब तक राज्य के चुनाव नहीं जीत सकतीं, जब तक कि उनके पास राज्य स्तर के लोकप्रिय राजनैतिक नेता न हों. साथ ही लोकसभा के शासकीय गठबंधनों को भी एकजुट रहते हुए राज्य विशेष के हितों का ध्यान रखना पड़ता है. वस्तुतः लोकसभा में अनेक ऐसे क्षेत्रीय दल हैं जिनकी कोई राष्ट्रीय महत्वाकांक्षा नहीं है, लेकिन वे अपनी स्थिति का लाभ उठाते हुए केंद्र के साथ सौदेबाज़ी करके अपने राज्यों के हित साधने में सफल हो जाते हैं. अगर मोदी की भाजपा अनेक राज्यों के चुनाव (और राष्ट्रीय चुनाव में अनेक सीटें) जीतकर अपनी पार्टी के अंदर ही अपनी स्थिति को मज़बूत और केंद्रीकृत बनाने में सफल रहती है तो लोगों की यह धारणा बदल भी सकती है.

पार्टी के केंद्रीकरण के प्रभाव को समझने के लिए हमें यह समझना होगा कि मतदाता किस हद तक राज्य स्तर के और राष्ट्रीय चुनाव में अंतर करते हैं और किस प्रकार और किस हद तक (राज्य स्तर के और राष्ट्रीय चुनाव) की राजनैतिक प्राथमिकताओं का निर्धारण होता है. और मतदाता राज्य के चुनावों में अपना वोट डालते समय राज्य से जुड़े मुद्दों या राष्ट्रीय मुद्दों को किस हद तक देखता है? सत्ता में आने के बाद से ही मोदी की अपनी विशेष शैली के अनुरूप भाजपा देश में राजनैतिक बहस को राष्ट्रीय संदर्भ में परिभाषित करने के लिए बहुत आक्रामक रही है, भले ही काले धन और भ्रष्टाचार (जैसा कि हमने विमुद्रीकरण या नोटबंदी के मामले में देखा है) का ही मामला क्यों न हो, वे अपने विरोधियों को “राष्ट्रविरोधी” तक घोषित कर देते हैं. हो सकता है कि भारत में राजनैतिक बहस के राष्ट्रीयकरण से ही भाजपा भ्रष्टाचार (यूपी में भाजपा की यह रणनीति लगती है) जैसे राष्ट्रीय मुद्दों पर राज्यों के चुनाव जीतने में सफल हो जाए. अगर मतदाता राज्य और राष्ट्रीय स्तर के चुनावों में अंतर करने लगता है तो राज्यों में चुनाव हारने के बावजूद राष्ट्रीय स्तर पर भाजपा की सत्ता पर पकड़ मज़बूत हो सकती है.

यूपी का आगामी चुनाव हमें बहुत आगे तक यह समझने में सहायक होगा कि भारत में राज्य और राष्ट्रीय राजनीति के बीच संबंध किस प्रकार से विकसित हो रहे हैं. भले ही यूपी के चुनावी मौसम में कितनी भी उठा-पटक हो या बवंडर मचे, यूपी के चुनाव को नज़दीक से देखकर हमें भारत की राजनीति में व्यापक स्तर पर होने वाले संरचनात्मक परिवर्तनों को समझने में अवश्य ही मदद मिल सकती है.

नीलांजन सरकार नई दिल्ली स्थित नीति अनुसंधान केंद्र में सीनियर फ़ैलो हैं.

 

हिंदी अनुवादः विजय कुमार मल्होत्रा, पूर्व निदेशक (राजभाषा), रेल मंत्रालय, भारत सरकार <malhotravk@gmail.com> / मोबाइल : 91+9910029919