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बिहार से सीखः बिहार 2015 के चुनाव भारत की राजनीति के बारे में क्या कहते हैं

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04/01/2016
नीलांजन सरकार

भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) के नेतृत्व में राष्ट्रीय लोकतांत्रिक गठबंधन (एनडीए) सरकार को 2015 के बिहार चुनाव में भारी पराजय का सामना करना पड़ा. 2014 के राष्ट्रीय चुनाव में एनडीए ने 243 विधानसभा-क्षेत्रों में से 172 क्षेत्रों में जीत हासिल की थी, लेकिन सिर्फ़ 18 महीने के बाद हुए 2015 के बिहार के चुनाव में केवल 58 विधानसभा-क्षेत्रों में ही जीत हासिल हुई. रस्मी तौर पर किसी भी चुनाव की अंतिम शल्य-परीक्षा तो होगी ही, लेकिन इस चुनाव के माध्यम से भारत के निर्वाचक मंडल को समझने की प्रक्रिया बहुत महत्वपूर्ण सिद्ध हो सकती है. एक थोड़े-से अंतराल में राजनैतिक परिवर्तन की भारी लहर से हमें एक ऐसा अवसर तो मिला ही है जिसके माध्यम से भारत की राजनैतिक प्रणाली की मौजूदा और मूलभूत विशेषताओं का मूल्यांकन किया जा सकता है.

दलों के गठबंधन में बदलाव       

2010 के बाद से बिहार के राजनैतिक क्षितिज में बहुत बदलाव आया है. उस समय जनता दल (युनाइटेड) अर्थात् जेडीयू का एनडीए के बैनर तले भाजपा के साथ गठबंधन था और इस गठबंधन ने राज्य के चुनाव में भारी जीत हासिल की थी, अर्थात् 243 में से 206 सीटों पर जीत हासिल की थी. तब से लेकर अब तक बिहार में दलों के गठबंधन में भारी फेरबदल होता रहा है. 2014 के राष्ट्रीय चुनाव से ठीक पहले नरेंद्र मोदी को प्रधानमंत्री पद का प्रत्याशी घोषित करने के कारण भाजपा और जेडीयू में विभाजन हो गया था, जिसके परिणामस्वरूप भाजपा ने गठबंधन के लिए नये घटकों का चुनाव करना शुरू कर दिया था और जेडीयू अकेले ही चलने लगी थी. एनडीए ने सन् 2014 में 40   में से 31 संसदीय सीटों पर कब्ज़ा कर लिया और जेडीयू के खाते में केवल दो सीटें ही आईँ. जेडीयू के तत्कालीन मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने अपनी पार्टी के खराब प्रदर्शन की ज़िम्मेदारी स्वीकार करते हुए अपने पद से इस्तीफ़ा दे दिया था, लेकिन राज्य सरकार पर उनकी पार्टी का नियंत्रण बना रहा. भाजपा और उसके गठबंधन के सहयोगियों की जीत की आशंका के डर से अब तक के घोर विरोधी नीतीश कुमार, लालू प्रसाद यादव और उनकी सहयोगी पार्टियों, जेडीयू और राष्ट्रीय जनता दल (आरजेडी) ने एनडीए को हराने के लिए आपस में हाथ मिला लिये.

जैसा कि अब हम जानते ही हैं कि आरजेडी,जेडीयू और कांग्रेस के महागठबंधन ने 2015 के चुनाव में सत्ता हथिया ली है, लेकिन अंततः महागठबंधन की सफलता इस बात पर निर्भर करती है कि हताशा में बना महागठबंधन किस प्रकार से बिहार का शासन कुशलता से चला पाता है. हालाँकि चुनाव से पूर्व आपस में घोर विरोध रखने वाले दलों के बीच महागठबंधन बनने से भारत से बाहर के चुनावी राजनीति के अधिकांश प्रेक्षक भी हैरान रह गए थे.  वस्तुतः भारत की राष्ट्रीय राजनीति में इस प्रकार के महागठबंधन की गुंजाइश कई दशकों से रही है. चुनावी सफलता के लिए कई बड़ी पार्टियाँ और व्यक्तिगत स्तर की छोटी पार्टियाँ भी आपस में गठबंधन कर सकती हैं.

भारतीय राजनैतिक प्रणाली की दो ऐसी विशेषताएँ हैं, जिनके कारण ऐसे हताश गठबंधन बनने की संभावना बनी रहती है. पहली विशेषता तो यह है कि भारत में अधिकांश पार्टियों का कोई गहन वैचारिक आधार नहीं होता, लेकिन उनका सामाजिक या जातिगत आधार तो होता ही है. पश्चिम में “वामपंथी” समाजवादी पार्टी किसी  भी “दक्षिणपंथी” मुक्त बाज़ार पार्टी के साथ गठबंधन नहीं करती. विचारधारा का बंधन हटने से ही भारत में पार्टियों के गठबंधन की गुंजाइश रहती है. दूसरी विशेषता यह है कि भारत की अधिकांश पार्टियों का नियंत्रण कुछ ही लोगों के हाथ में रहता है या फिर यह कह सकते हैं कि उनका नेतृत्व किसी एक करिश्माई नेता के हाथ में होता है. इसका मतलब यह है कि पार्टियों के बीच ऐसे गठबंधन के लिए चंद लोगों की ही खरीद-फ़रोख्त पर्याप्त होती है. ये दोनों ही शर्तें बिहार में महागठबंधन होने के समय (और एनडीए के गठबंधन के समय) मौजूद थीं.

विकास के दो मॉडल

सितंबर के अंत से लेकर नवंबर के आरंभ तक मैंने अपने सहयोगियों (भानु जोशी और आशीष रंजन) के साथ चुनावी अभियान को देखने के लिए बिहार की यात्रा की. हमें शुरू में ही लगने लगा था कि इस चुनाव में वाद-विवाद मुख्यतः आर्थिक विकास के मॉडल पर ही केंद्रित रहेगा. नीतीश कुमार के बारे व्यापक धारणा यही थी कि उन्होंने बिहार की अर्थव्यवस्था को नया स्वरूप प्रदान किया है और राज्य की कानून-व्यवस्था को चुस्त-दुरुस्त किया है. सन् 2005 में जब नीतीश कुमार ने बिहार के मुख्यमंत्री का पद सँभाला था तो उन्होंने राज्य में बड़े परिमाण पर व्यय किया था. भारतीय रिज़र्व बैंक के अनुमान के अनुसार, 2013-14 के राजकोषीय वर्ष के दौरान बिहार एकमात्र राज्य था, जहाँ विकास के लिए व्यय की गई राशि, सामाजिक क्षेत्र पर किया गया व्यय और पूँजीगत परिव्यय राज्य के सकल घरेलू उत्पाद से 40 प्रतिशत अधिक बढ़ गया था, जबकि भारत के गैर-विशेष कोटि के राज्यों में इसका औसत 24 प्रतिशत से भी कम था.

नीतीश कुमार के महँगे राज्य मॉडल की तुलना में प्रधानमंत्री का “गुजरात मॉडल” लघु शासन व्यवस्था से जुड़ा हुआ है, जिसमें निजी निवेश और काम-धंधे के लिए आवश्यक पदों का सृजन किया गया था. हमने अपने साक्षात्कारों में पाया कि उन तमाम युवा मतदाताओं में मोदी का मॉडल काफ़ी लोकप्रिय रहा है जो बिहार में काम-धंधों और उद्योग की कमी के कारण हताश होने लगे थे. यह गलत धारणा है कि मतदाता आर्थिक नीति के विकल्पों को समझने में असमर्थ होते हैं. एक स्थान से दूसरे स्थान तक भारत और विदेशों में आने-जाने वाले बिहारी श्रमिक प्रवासियों की तादाद बहुत ज़्यादा है और ये लोग विकास के अलग-अलग मॉडलों और उनके परिणामों को समझने की क्षमता रखते हैं. जहाँ एक ओर हाल ही के अनेक दशकों में भारत में शहरीकरण बहुत तेज़ी से बढ़ा है, वहीं बिहार इस दौड़ में सबसे पिछड़ा हुआ दूसरा राज्य है. जिस तरह से काम-धंधों की कमी, निजी निवेश में कमी और कमज़ोर शहरीकरण के मुद्दे मतदाताओं को साफ़ दिखाई देते हैं, उसी तरह से राज्य के लाभकारी मुद्दे भी उन्हें साफ़ समझ में आते हैं.

आज भारत के अधिकांश राज्यों में विकास के इन दो मॉडलों पर चर्चा हो रही है. राजनीति में जाति और धर्म की भूमिका पर होने वाली व्यापक चर्चा के बावजूद आर्थिक नीति का मुद्दा केंद्रीय मुद्दे के रूप में बहुत तेज़ी से उभर रहा है और इनके आधार पर ही पार्टियाँ और राजनेता बँटते नज़र आ रहे हैं. उदाहरण के रूप में, 2014 के राष्ट्रीय चुनाव में कांग्रेस के नेतृत्व वाली पिछली सरकार के मॉडल की तुलना में भारत-भर में गुजरात के मॉडल को अपनाने की अपील के कारण ही नरेंद्र मोदी सत्ता में आये थे. कांग्रेसी मॉडल में महात्मा गाँधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोज़गार गारंटी अधिनियम (मनरेगा) जैसे केंद्र द्वारा प्रवर्तित लाभकारी योजनाओं को प्राथमिकता दी गई थी.    

चुनावी अभियान का महत्व

विदवान् लोग मतदाताओं को लुभाने के लिए पार्टियों द्वारा की जाने वाली अपील को दो भागों में बाँटते हैं. एक अपील उन मतदाताओं को लिए होती है, जो पार्टी के अपने प्रतिबद्ध मतदाता होते हैं और दूसरी अपील उन मतदाताओं के लिए होती है जो किसी पार्टी विशेष से संबद्ध नहीं होते और एक स्थान से दूसरे स्थान पर आने-जाने वाले प्रवासी लोग होते हैं.जब किसी पार्टी के पक्ष में संख्या बल होता है तो उसकी सर्वोत्तम रणनीति यही रहती है कि अपने प्रतिबद्ध मतदाताओं से अपील करें कि अधिक से अधिक संख्या में मतदान के लिए बाहर निकलें ताकि उनकी जीत पक्की हो सके. अगर अनिश्चित हालात हों और मतदाता भी ऐसे हों जो एक जगह रहने के बजाय इधर-उधर आने–जाने वाले प्रवासी हों, जैसा कि 2015 के बिहार चुनाव के समय स्थिति थी, तो रणनीति यही रहती है कि चुनाव जीतने के लिए इधर-उधर आने–जाने वाले प्रवासी मतदाताओं को लुभाने का हर संभव प्रयास किया जाए. फ़ील्ड में जाकर वास्तविकता को देखने के बाद मेरे सहयोगियों और मेरी यही राय बनी कि इधर-उधर आने–जाने वाले प्रवासी मतदाताओं को लुभाने के लिए विकास का मुद्दा ही सबसे अधिक प्रभावी होता है. अगर एनडीए विकास के मुद्दे पर ही टिका रहता तो शायद चुनाव भी यकीनन वही जीतते, लेकिन बार-बार वे अपने एजेंडे से भटकते रहे और गोमांस खाने के औचित्य पर ही बहस में उलझ गए और जातिगत आरक्षण पर पुनर्विचार की बातें करने लगे. अंततः एनडीए के लिए मतदान का पक्का इरादा रखने वाले मतदाता भी गोमांस खाने-न खाने की चिंता में ही उलझ गए. उम्मीद नहीं थी कि इस मुद्दे का इधर-उधर आने–जाने वाले प्रवासी मतदाताओं पर भी असर पड़ेगा. एनडीए के चुनावी अभियान में विकास का मुख्य मुद्दा अनायास ही नीतीश कुमार और महागठबंधन की झोली में चला गया. 

हमने इस बदलाव को स्पष्ट तौर पर बिहार में देखा कि किस तरह से एनडीए के वोट खिसक कर चुनावी अभियान के दौरान ही महागठबंधन की झोली में चले गए. विकासशील समुदाय अध्ययन केंद्र (CSDS) द्वारा किये गये सर्वेक्षणों में पाया गया कि चुनावी अभियान की अवधि के दौरान 8 प्रतिशत वोट एनडीए से खिसककर महागठबंधन की झोली में चले गए. भारतीय चुनावों के प्रेक्षक चुनाव के दौरान ही एक पार्टी से दूसरी पार्टी में व्यापक और निर्णायक रूप में खिसकने वाले ऐसे मतों को देखने के आदी हो चुके हैं, भले ही 2014 के राष्ट्रीय चुनाव हों या हाल ही में संपन्न दिल्ली और बिहार के चुनाव. यदि इसकी तुलना पश्चिम से की जाए तो आप बहुत अंतर पाएँगे. पश्चिम के चुनावों में ऐसे अभियानों का प्रभाव बहुत सीमित और क्षणिक रहता है. 

पश्चिम में अधिकांश मतदाता विचारधारा के आधार पर ही अपनी प्राथमिकता तय करते हैं और पार्टियों की मौजूदा विचारधारा से अपने को जुड़ा हुआ महसूस करते हैं. यही कारण है कि चुनावों का पूर्वानुमान भी आसानी से किया जा सकता है. भारत में मतदाता चुनावी अभियान के दौरान ही इस बात का मूल्यांकन करते हैं कि किस पार्टी में अपने वायदे निभाने की क्षमता है और पार्टी का संगठन कितना मज़बूत है, क्योंकि पार्टी के गठबंधनों की चुनाव-पूर्व विचारधारा से कोई खास अंतर नहीं पड़ता. यही कारण है कि चुनावी अभियान के दौरान बड़े पैमाने पर बदलाव होते हैं, इसलिए हमें लगता है कि भारतीय चुनावों के विश्लेषकों को यह देखने के बजाय कि उनका जातिगत और धार्मिक आधार कितना मज़बूत है, इस बात पर पूरा ध्यान केंद्रित रखना चाहिए कि पार्टियाँ अपना चुनावी अभियान कैसे चलाती हैं.

निष्कर्ष

बिहार का यह चुनाव भारतीय राजनैतिक प्रणाली की व्यापक प्रवृत्तियों की महत्वपूर्ण झलक प्रदान करता है. बीजेपी के नेतृत्व में राष्ट्रीय चुनाव में एनडीए की भारी जीत हासिल करने के महज़ 18 महीने के बाद ही 2015 के बिहार के चुनाव में एनडीए के खराब प्रदर्शन से गंभीर घटना-क्रम का पता चलता है. यह सोचना भी एक प्रकार की गलती होगी अगर हम सोचें कि भाग्य का यह बदलाव बहुत दुर्लभ होता है. अभियान के दौरान ही दलों के गठबंधन और चुनावी सहयोग में बदलाव आ सकता है. यही चुनावी अस्थिरता अब भारतीय राजनैतिक प्रणाली की मूलभूत विशेषता बन गई है. भारतीय मतदाता का आर्थिक नीतियों के प्रति बढ़ता रुझान भावी भारत को आकार प्रदान कर रहा है और आवश्यकता इस बात की है कि इस बात पर विचार किया जाए कि ऐसे अस्थिर परिवेश में मतदाता निर्णय कैसे लेते हैं.  

नीलांजन सरकार नई दिल्ली स्थित नीति अनुसंधान केंद्र में फ़ैलो हैं और कैसी में अनिवासी विज़िटिंग स्कॉलर हैं.

हिंदी अनुवादः विजय कुमार मल्होत्रा, पूर्व निदेशक (राजभाषा), रेल मंत्रालय, भारत सरकार <malhotravk@gmail.com> / मोबाइल : 91+9910029919