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अंतर्वर्गीय असमानता और मतदान का व्यवहारः भारत के साक्ष्य

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15/08/2016
पवित्र सूर्यनारायण

भारतीय राजनीति के अंतर्गत राजनैतिक व्यवहार में वर्गीय पहचान पर बहुत जोर दिया गया है. फिर भी भारत एक ऐसा देश है जिसमें व्यक्तियों की भाषा, धर्म और (सवर्ण जाति, पिछड़ी जाति और अनुसूचित जातियों के नाम से) राजनैतिक छत्र के अंतर्गत समाहित जातियों और ‘बिरादरी’ या ‘जाति’ के रूप में बेहद स्थानीकृत उप-जातियों/ रिश्तेदारों के वर्गों के अंतर्गत भी अनेक वर्गीय पहचानें हैं. यदि व्यक्तियों की इतनी अधिक पहचानें हैं तो चुनाव के समय मतदाताओं के लिए किस पहचान का सबसे अधिक महत्व है और क्यों ?   

सन् 2015 में “वर्गीय पहचान संबंधी असमानता और इस आधार पर दलगत प्रणालियों का वर्गीकरण: भारत के साक्ष्य” शीर्षक के अंतर्गत वैश्विक राजनीति नामक आलेख में सहलेखक जॉन हूबर और मेरा यह मंतव्य रहा है कि मतदाता के व्यवहार से वर्गीय पहचान का संबंध प्रणाली के अंतर्गत वर्गीय पहचान के आधार पर आर्थिक समृद्धि के अंतर पर निर्भर करता है. अगर कुछ अलग पहचान वाले वर्ग समृद्ध होते हैं और कुछ गरीब तो राजनीति में वर्गीय पहचान की प्रमुखता बढ़ जाती है क्योंकि इसके कारण वर्ग और वर्गीय पहचान की राजनैतिक दरार और गहरी हो जाती है. इसके अलावा जब वर्गों की आर्थिक स्थिति में अंतर होता है तो इस बात की संभावना भी बढ़ जाती है कि उनके सदस्यों की राजनैतिक विचारधाराओं में भी अंतर आ जाए और इसके परिणामस्वरूप मतदाता चुनाव की दृष्टि से अपनी पहचान का भी अपने -आप ही चयन कर लेते हैं.

भारत में इस तर्क की समीक्षा के लिए लोकनीति- CSDS द्वारा किये गये 1999 और 2004 के राष्ट्रीय चुनाव अध्ययन के आँकड़ों का प्रयोग करते हुए हमने भारत के राज्यों में दलीय समर्थन के वर्गीय पहचान के आधारों की जाँच की है. सबसे पहले तो हमने यह समझने के लिए कि लोगों के मतदान में वर्गीय पहचान की भूमिका किस हद तक महत्वपूर्ण रहती है, यह पाया कि वर्गीय पहचान की प्राथमिकता सबसे ऊँची होती है और धर्म की प्राथमिकता सबसे नीचे रहती है. दूसरी बात हमने यह समझने की कोशिश की आखिर मतदान के लिए वर्गीय पहचान का महत्व अधिक क्यों है तो हमने पाया कि जिन राज्यों में जातियों के बीच आर्थिक असमानता जितनी अधिक है, उतनी ही मात्रा में मतदाता का झुकाव अपनी ही वर्गीय पहचान वाले सदस्यों वाली पार्टी के प्रति रहता है. इससे यही नतीजा निकलता है कि भारत की वर्गीय पहचान वाली राजनीति में पिछली मान्यता की तुलना में आर्थिक तत्व की भूमिका कहीं अधिक महत्वपूर्ण रहती है. 

एक रोचक बात तो यह है कि इस आलेख में यह तथ्य भी उजागर हुआ है कि विशेष पहचान वाले वर्गों के बीच जितनी अधिक मात्रा में असमानता बढ़ी है, उतनी ही मात्रा में वर्गीय पहचान के आधार पर मतदान में भी वृद्धि हुई है और इसका असर वर्गीय पहचान के आधार पर किये गये मतदान पर बहुत अधिक नहीं पड़ा है. इससे यह दावा करने के लिए भी अनंतिम साक्ष्य मिल जाता है कि सिर्फ़ आर्थिक धन के अलावा भी जो कारक हैं, उनकी मदद से भी उसी विशेष पहचान वाले वर्ग में सदस्यों के आपसी संबंध और मज़बूत हो सकते हैं. “सामाजिक असमानता और दक्षिणपंथी मतदान- भारतीय राज्यों के साक्ष्य” शीर्षक से लिखे एक नये आलेख में मैंने यह जाँचने की कोशिश की है कि उच्च सवर्ण जाति के मतदाता आखिर एक ऐसी दक्षिणपंथी पार्टी भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) का समर्थन क्यों करता है जिसने अपने चुनाव अभियान में कम से कम आँकड़ों का उपयोग किया है, कम ही सरकारी प्रचार सामग्री वितरित की है, उनकी नीतियाँ भी बहुत सकारात्मक नहीं हैं और वे निजी क्षेत्र की व्यापक भूमिका का समर्थन करती है.  

दक्षिणपंथी पार्टियों को गरीब लोग समर्थन देते हैं, इस बात को लेकर मैं उलझन में पड़ जाता हूँ, क्योंकि इससे ऐसा लगता है कि वे ऐसी पार्टियों का चुनाव कर रहे हैं जो उनके आर्थिक हितों के खिलाफ़ काम कर रही हैं. लेकिन यह स्थिति अमरीका से लेकर भारत तक अनेक विकसित और विकासशील देशों में बनी हुई है. मेरे आलेख में इसका तर्क यह दिया गया है कि उच्च सामाजिक असमानता के संदर्भ में दक्षिणपंथी पार्टियों द्वारा की गई अपील खास तौर पर गरीब मतदाताओं के लिए होती है और यह अपील केवल सामाजिक असमानता के बारे में नहीं होती. सामाजिक असमानता की मेरी परिभाषा के अनुसार, खास तौर पर ऐसे समाज में जहाँ अनुक्रमिक सामाजिक व्यवस्था की विरासत रहती है, सामाजिक असमानता का अर्थ है वे तमाम भेदभाव जो किसी समाज में उत्तराधिकार में प्राप्त “सामाजिक हैसियत” के वितरण से पैदा होते हैं. हमने देखा है कि कई समाजों में लगातार सामाजिक असमानता बने रहने के कई ऐतिहासिक कारण होते हैं, जैसे गुलामी, अभिजात वर्ग, साम्राज्यवाद और भारत के संदर्भ में वर्ण-व्यवस्था. ऐसी स्थिति में दक्षिणपंथी पार्टियाँ अपने वर्ग की हैसियत का वास्ता देकर उच्च वर्ग में जन्म लेने वाले ऊँची हैसियत वाले उसी सामाजिक वर्ग के गरीब मतदाताओं को लुभा सकते हैं.

सामाजिक वंशानुक्रम में अपने ओहदे के कारण "ऊँची हैसियत" वाले मतदाता अपनी पृथक् सामाजिक संस्था पर नियंत्रण रखते हुए अपना केंद्रीय महत्व बनाये रखते हैं. जब   "नीची हैसियत" वाले वर्ग अपना सामाजिक स्तर ऊपर उठाने के लिए इन संस्थाओं में अपनी पहुँच बनाने की कोशिश करते हैं तो दक्षिणपंथी पार्टियों के लिए ऊँची हैसियत वाले गरीब मतदाताओं को लुभाना आसान हो जाता है. गरीब मतदाताओं को ऊँची हैसियत वाले वर्ग के साथ जुड़कर मनोवैज्ञानिक लाभ भी मिलते हैं और साथ ही इस वर्ग द्वारा नियंत्रित विशेष संसाधनों तक पहुँच मिल जाने के कारण भौतिक लाभ भी मिलने लगते हैं. यही वे संसाधन हैं जिनके कारण अंतर्वर्गीय स्तर पर सीमांकन किया जाता है.

मंडल आयोग की सिफ़ारिशों के आधार पर केंद्र सरकार की नौकरियों और उच्च शिक्षा में पिछड़े वर्ग के लिए कोटा प्रणाली लागू करने के लिए भूतपूर्व प्रधानमंत्री वी.पी. सिंह द्वारा 7 अगस्त, 1990 को की गयी घोषणा के कारण चुनावों पर पड़े प्रभावों का आकलन  करने के लिए मैंने इनकी समीक्षा की है. मैंने इसके लिए मद्रास प्रेसिडेंसी, बॉम्बे प्रेसिडेंसी और युनाइटेड प्रोविन्स के 1931 में की गई तालुका-आधारित जनगणना के आधार पर एकत्रित जाति और शिक्षा संबंधी आँकड़ों का इस्तेमाल किया है. साथ ही इन प्रांतों के चुनाव क्षेत्र आज के सात राज्यों में फैले हुए हैं. मैंने इन आँकड़ों का प्रयोग ब्राह्मण वर्चस्व के नाम से प्रचलित परिवर्ती आँकड़े बनाने के लिए किया है, जो उनकी वास्तविक आबादी पर तालुके की साक्षर आबादी में ब्राह्मणों के अधिक प्रतिनिधित्व का प्रतिमान है. जिन स्थानों पर यह प्रतिमान अधिक था, वहाँ पर शिक्षा में ब्राह्मणों का वर्चस्व अधिक था और इस बात की भी संभावना है कि वे अपनी वर्गीय पहचान के आधार पर अधिक शक्तिशाली भी थे.

इस आलेख में यह पाया गया है कि सन् 1931 में शिक्षा के क्षेत्र में ब्राह्मणों के अधिक वर्चस्व वाले राज्यों के चुनाव क्षेत्रों में 1990 के बाद के राज्यों के चुनावों में भाजपा के लिए बहुत अधिक मतदान किया गया. सबसे अधिक महत्वपूर्ण बात तो यह है कि सकारात्मक कार्रवाई की घोषणा से पहले ब्राह्मणों के अधिक वर्चस्व और दक्षिणपंथी मतदान का आपस में कोई संबंध नहीं था. उसके बाद ब्राह्मण बनाम अन्य जाति समूहों में भाजपा के मतदान का अध्ययन करने के लिए मैंने 2004 के राष्ट्रीय चुनाव अध्ययन के व्यक्तिगत स्तर के सर्वेक्षण संबंधी आँकड़ों का इस्तेमाल किया. आँकड़ों के विश्लेषण से पता चलता है कि यदि अन्य जातियों से तुलना की जाए तो ब्राह्मण मतदाताओं द्वारा भाजपा के लिए मतदान करने की संभावना कम वर्चस्व वाले चुनाव क्षेत्रों में रहने वाले उन ब्राह्मणों की तुलना में तभी अधिक होती है जब वे सन् 1931 में ब्राह्मणों के अधिक वर्चस्व वाले चुनाव क्षेत्र में रहते हैं. इस आलेख का अधिक महत्वपूर्ण तर्क तो यही था कि भाजपा के लिए अधिक मतदान करने की संभावना तभी रहती है जब ये गरीब ब्राह्मण सन् 1931 के ब्राह्मणों के अधिक वर्चस्व वाले चुनाव क्षेत्रों में रहते हैं. इन नतीजों से इस दावे की पुष्टि के लिए साक्ष्य प्राप्त होता है कि दक्षिणपंथ का उदय उन गरीब ऊँची हैसियत वाले मतदाताओं से होता है जो उच्च सामाजिक असमानता वाले स्थानों में रहते हैं.

साथ ही, इन आलेखों से एक ऐसी अंतर्दृष्टि का बोध होता है जिससे भारतीय राजनीति में वर्गीय पहचान की लगातार रहने वाली प्रासंगिकता का पता चलता है. जहाँ पहला आलेख यह दर्शाता है कि सभी वर्गों की औसत आमदनी में बराबरी आने से राजनीति में कुछ हद तक वर्गीय पहचान की प्रासंगिकता घट सकती है, लेकिन दूसरे आलेख से पता चलता है कि ऊँची हैसियत वाले विशेष वर्ग के लोगों पर संकट आने से उनकी ओर से भी प्रतिक्रिया हो सकती है. खास तौर पर इसकी आशंका तब होगी जब सरकार की नीतियों के कारण वे तमाम संस्थाएँ एकाकार होने लगेंगी,जिनके कारण जातिप्रथा कायम है और उनकी हैसियत बनी हुई है. 

नतीजों से पता चलता है कि ऊँची जातियों के गरीब लोग सरकार की उन नीतियों का समर्थन करने के लिए अधिक तत्पर रहते हैं जिनका लक्ष्य उनकी आमदनी को बढ़ाना हो, गरीबी रेखा से नीचे के सभी जातियों के गरीब (BPL) कार्डधारी मतदाताओं की खरीद की शक्ति को बढ़ाना हो या सार्वजनिक वितरण प्रणाली में सुधार लाने की कोशिश हो, लेकिन वे उन नीतियों का समर्थन करने के लिए उन्मुख नहीं होंगे जिनका लक्ष्य मात्र वर्गीय पहचान के आधार पर शिक्षा, रोज़गार और आवास के क्षेत्र में यथास्थिति में बदलाव लाना हो. इसलिए अलग-अलग वर्गों का गठबंधन बनाने की इच्छुक दक्षिणपंथी पार्टियों को पुनर्वितरण संबंधी नीतियों के सीमित समर्थन के साथ ऊँची जाति के गरीब लोगों के चुनाव क्षेत्र का समर्थन मिल सकता है.

ऐसे अध्ययन के नतीजों का निहितार्थ केवल भारत के मतदाताओं के व्यवहार को ही समझना नहीं है, बल्कि इससे संयुक्त राज्य अमरीका, ब्राज़ील और दक्षिण अफ्रीका जैसे अन्य देशों में जहाँ अंतर्नस्लीय आर्थिक विभिन्नता के कारण ऐतिहासिक रूप में विद्यमान सामाजिक हैसियत के भेदभाव के समान तत्वों पर भी प्रकाश डाला जा सकता है.  

पवित्र सूर्यनारायण जॉन्स ह़ॉपकिन्स विश्वविद्यालय में उन्नत अंतर्राष्ट्रीय अध्ययन स्कूल (SAIS) में सहायक प्रोफ़ेसर हैं.

 

हिंदी अनुवादः डॉ. विजय कुमार मल्होत्रा, पूर्व निदेशक (राजभाषा), रेल मंत्रालय, भारत सरकार <malhotravk@gmail.com> / मोबाइल : 91+9910029919